यूं कुदरत को रंग दिखाना भी ज़रूरी था ! आदमी की औकात बताना भी ज़रूरी था ! खुद को ही समझ बैठा था वो दूसरा खुदा, उसको असलियत दिखाना भी ज़रूरी था ! किस कदर सताया है इस ज़माने ने… Read More
ग़ज़ल : यारो क्यों जान अपनी लुटाने पे तुले हो
यारो क्यों जान अपनी, लुटाने पे तुले हो क्यों अपने साथ सबको, मिटाने पे तुले हो तुम खूब जानते हो करोना की विभीषिका, फिर क्यों इसकी आफतें, बढ़ाने पे तुले हो न खेलो खेल ऐसा कि बन आये जान पर,… Read More
ग़ज़ल : कुछ भरम तो रहने दो
मेरे ख्वाबों का यारो, कुछ भरम तो रहने दो लूट लो सब कुछ, ईमानो धरम तो रहने दो खंडहरों को देख कर न उड़ाइये मेरी खिल्ली, मुझको मेरे वजूद का, कुछ वहम तो रहने दो मोहब्बत मेरी दौलत है बस… Read More
ग़ज़ल : तो मेरी ख़ता क्या है
जब खोदा कुआँ तूने, तो मेरी ख़ता क्या है। गिरे भी तुम खुद ही, तो मेरी ख़ता क्या है। न समझे कभी तुम मोहब्बत का मतलब, दिखाएँ लोग नफ़रत, तो मेरी ख़ता क्या है। गुलशन को रौंद कर बहुत खुश… Read More
ग़ज़ल : इक दिन ये माटी ही तेरी कहानी बनेगी
इक दिन ये माटी ही, तेरी कहानी बनेगी यारा तेरी फितरत ही, तेरी निशानी बनेगी भूल जायेगी तेरी शक्ल ओ सूरत ये दुनिया, बस तेरी करनी ही, सब की जुबानी बनेगी गर निकाल दे अंदर से ये हवस का जिन,… Read More
ग़ज़ल : हम जुबां अपनी क्या चलाने लग गए
हम जुबां अपनी क्या चलाने लग गए ! लोग हक़ीक़त अपनी छुपाने लग गए ! सच सुनने की न बची हैं हिम्मत उनमें, अब राह चलते वो आँखें दिखाने लग गए ! क्या होगा वतन का कोई समझाए ज़रा, जब… Read More
कविता : इस कुदरत से अब डरना सीख ले
शुक्र है खुदा का कि तू अपने घर में है तू उसकी सोच जो मौत की डगर मैं है ये घूमने फिरने की चाहत को भूल जा यारा हर किसी की ज़िंदगी अधर में है ये इंसानियत नहीं सिर्फ अपनी… Read More
कविता : सबको मज़ाक लगता है
अब तो मेरा दर्द भी, सबको मज़ाक लगता है मेरा तो अब रोना भी, सबको मज़ाक लगता है कर देते हैं कभी दोस्त ज़िक्र मेरे हालात का, यारों का ये जज़्बा भी, सबको मज़ाक लगता है भला इस बेखबर दुनिया… Read More
ग़ज़ल : तक़रार न होती !
खड़ी आँगन में अगर, दीवार न होती ! यूं दिलों के बीच यारा, तक़रार न होती ! महकती इधर भी रिश्तों की खुशबुएँ, गर जुबां की तासीर में, कटार न होती ! न आतीं यूं ज़िंदगी के सफर में आफ़तें, अगर रहबरों के दिल में, दरार न होती ! यहाँ खिलते गुल भी महकता जहाँ भी, गर नीयत बागवां की, शर्मसार न होती ! न अखरता इतना खिज़ाओं का मौसम, अगर दिल में ख़ारों की, भरमार न होती ! न होता पैदा खामोशियों का सिलसिला, अगर नफ़रतों से दुनिया, बेज़ार न होती ! यारो बन जाता आदमी भी देवता अगर, ये दुनिया ख्वाहिशों का, शिकार न होती ! न होती ज़रूरत इधर मुखौटों की “मिश्र”, अगर आदमी की आत्मा, बीमार न होती +80
ग़ज़ल : कीमत क्या है
लोग दे जाते हैं मुझको तो मुफ्त में बस यूं ही किसी और से पूंछो कि गम की कीमत क्या है दे देता है जान भी अपनी मोहब्बत के नाम पर कभी पतंगे से पूंछो कि उसकी कीमत क्या है… Read More