हम जुबां अपनी क्या चलाने लग गए !
लोग हक़ीक़त अपनी छुपाने लग गए !
सच सुनने की न बची हैं हिम्मत उनमें,
अब राह चलते वो आँखें दिखाने लग गए !
क्या होगा वतन का कोई समझाए ज़रा,
जब साधू ही शैतान को बचाने लग गए !
बहती हैं मक्कारियां रग रग में जिसके
आज वही हमको ईमां सिखाने लग गए !
यारो क्या होगा उस घर का खुदा जाने,
अपने दीपक ही घर को जलाने लग गए !
अब भूल जाओ ‘मिश्र’ नफ़ासत फूलों की,
अब तो कांटे भी ख़ूबियां बताने लग गए !