sant sahitya

प्रस्तावना : निर्गुण भक्तिधारा के कवियों को ‘संत’ शब्द से संबोधित किया गया है। अपने हित के साथ जो लोक कल्याण की भी चिंतन करता है, वही संत कहलाने का अधिकारी है। इन संतों द्वारा बताये गये विचार तत्कालीन समाज के लिए जितने उपयोगी थे उससे कहीं अधिक आज के समाज के लिए आवश्यक हैं। आधुनिक वैश्वीकरण के दौर में संत साहित्य इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि वह जाति-व्यवस्था व साम्प्रदायिक कट्टरता जैसी व्यवस्था का विरोधी है।
इन कवियों ने संस्कृत, फारसी को ना अपनाकर लोक भाषा को अपनाया इसलिए लोक भाषा का साहित्यिक विकास हुआ। संतों के साहित्य में विचारों की भव्यता, हृदय की तन्मयता और धार्मिक उदारता है जो आज के सांप्रदायिक संकीर्णता के विषम वातावरण में अत्यंत उपयोगी है।
बीज शब्द : निर्गुण भक्तिधारा, वैश्वीकरण, जाति-व्यवस्था, साम्प्रदायिक कट्टरता, समाज-व्यवस्था, धार्मिक उदारता
शोध आलेख : संत लोग निर्गुण ब्रह्मा के उपासक थे और आत्माशुद्धि पर बल देते थे। वे गुरु को सर्वोपति मानते थे। जप तप, गंगा स्नान आदि का विरोध करते थे। इन लोगों रूढ़ीवाद के कट्टर विरोधी थे। ज्ञानमार्गी संत कवियों हिन्दू समाज की निचली कही जानेवाली जातियों के हैं इसलिए ये लोग जादिवाद के खिलाफ कवियों रचते थे। अपने स्वतंत्र चिंतन के माध्यम से वे समाज में एक प्रकार की वैचारिक क्रांति को जन्म दिया।
संत कवियों की परंपरा महाराष्ट्र के नामदेव और त्रिलोचन से प्राप्त होती है। नामदेव को संत काव्य की परम्परा का प्रवर्तक कहा जाता है। आज हम संत काव्य का अवलोकन करते हैं तो देख सकते हैं की संत कवियों अपने काव्य में जातिवाद, पाखंड, सामाजिक व धार्मिक दुराचारों के प्रति अपने विद्रोह व्यक्त किये हैं।
संत लोग व्यक्तिगत जीवन के विकारों के खिलाफ अपनी ध्वनि उठाते हैं। इसके माध्यम से उनके आदर्श समाज की कामना दिखाई देती है। आचार्य परशुराम लिखते हैं “वे सीधे समाज के सुधार में आत्मा सुधार की कल्पना नहीं करते, अपितु अपने व्यक्तित्व के निखार में ही समाज का परिष्कार देखते हैं” 1।
आज भी समाज में जातिवाद पूरी तरह से दूर नहीं हुआ है। लोग जाति के नाम से पागल हो बैठे हैं। छुआछुत एवं जातिगत भेदभाव आज भी है। संत रैदास जाति के बंधनों को दूर करके कर्म की प्रधानता पर बल देते हैं और कहते हैं-
“जाती ओछी, पाती ओछी, ओछा जनम हमारा।
राजा राम की सेवन कीन्हीं, कहि रैदास चमारा।।”2
सूरसागर के प्रारम्भ में सूरदास कहते हैं की भगवान के दरबार में सब एक हैं वहाँ कोई जाति-पाति नहीं पूछी जाती।
“जाति-पाति कोई पूछत नाहीं श्रीपति के दरबार।। ”3
ईश्वर की प्राप्ति के लिए आज हम जप, तप, हवन आदि करते है परंतु हम अच्छे आचरण नहीं रखते तो ये सब करने से कोई प्रयोजन नहीं है। ईश्वर को देखने के लिए हम मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे को भटकते हैं। विभिन्न तीर्थ स्थलों जाकर उनको ढूंढ़ते हैं लेकिन संतों का मानना था कि आचरण शुध्दता से ही हम ईश्वर को प्राप्त कर सकते हैं।
“अवधू भेष देषि जिनी भूलै,
जब लग आतम दृष्टि न आइ्र्र, तब लग मिटै न सूलै।
मुद्रा पहरी कहावत जोगी, युगति न दीसे हाथा।
वह मागर कहुं रह्यौ अनत ही, पहॅंचे गोरषनाथा।
मूंड मूंडाई तिलक सिर दीयो, माला गरै झुलाई।
जो सुमरनि कीनो सब संतनि, सौ तौ षबरी न पाई।’’4
एक समय था जब हमारे समाज के लोग जीवन में मूल्य को अधिक स्थान देते थे। लेकिन आज की दुनिया स्वार्थ से भरी है। रिश्तों के बीच में स्वार्थ ही स्वार्थ है। इस विषय को लेकर संत कबीर इस प्रकार कहते है
“स्वारथ को सब कोउ सगा, जग जगला ही जांणि
बिन स्वारथ आदर करे, सौ हरि की प्रिति पिछांणि।।’’5
आज भी राज्यों के बीच में भेदभाव, हिन्दू मुसलमान की लड़ाई सब कुछ वैसी की वैसी है जैसी मध्यकालीन युग में थी। संत लोगों की मानना यह है की हम इस मतभेद को छोड़ देना चाहिए। दादू दयाल मानते है कि हिंदू और मुसलमान में कोई अंतर नहीं है। दोनों एक ही परमसत्ता का निवास हैं।
“दादू ना हम हिंदू होहिंगे, ना हम मूसलमान।
षट दर्शन मैं हम नहीं, इस राते रहिमान।।
दादू करणी हिंदू तुरक की, अपनी अपनी ठौर।
दुहु बिचि मारग साध का, यह संतों की रह और।।’’6
आज कल के मनुष्य धन के पीछे दौड़ता है। समाज में मनुष्यों के सम्मान मानव मूल्य ना होकर धन होता जा रहा है। कबीर ने मनुष्य के इस लालच धन संचय के बारे में इस तरह कहते हैं
‘सांई इतना दीजिए जामै कुटुंब समाए।
मैं भी भूखा ना रहूँ साधु ना भूखा जाए’॥7
रैदास ने भी धनसंचय को दुख की खान कहा है-
“सच्चा सुख सत्त धरम मंहि, धन संचय सुख नाहि।
धन संचय दुख खान है, ‘रैदास’ समुझि मन माहिं”॥8
नारीवाद के बारे में भी संत लोग अपने काव्यों में बताए हैं। वे नारी को आत्मा-परमात्मा के प्रेम मिलन के रूप में दर्शत करते हैं। कबीर नारी को नरक का कुंड कहते हैं। उनका मान्यता यह है की परनारी को देखने से महाप्रतापी राजा रावण का नाश हो गया। इसीलिए नारी को सम्मान करना चाहिए।
‘नारी कुंड नरक का, बिरला थंभै बाग।
कोई साधू जन ऊबरै, सब जग मूवा लाग’।।9
संत लोग नारी की कामिनी रूप का निंदा करते हैं। वे सौभाग्यवती नारी की प्रसंशा करते हैं। सूरदास अपने दोहे में
‘सुकदेव कहयौ, सुनौ हो राव। नारी नागिनि एक सुभाव।
नागिनि के काटैं विप्र होई। नारी चितवन नर रहै भोई।10
कामिनी रुपी नारी को नागिनी कहते हैं। उनका महादेवी जैसे महिला कवयित्रियों ने अपने काव्यों में भक्ति के साथ सामजिक रूढ़ियों को भी चुनौती दी हैं।

निष्कर्ष :
आज की स्थिति में मनुष्य मानवीय मूल्यों को कुचलता जा रहा है। वैयक्तिकता, घुटन, विद्रोह आदि भावनाएं का जड़ लोगों के मन में छा गई हैं। सत्य, नैतिकता, उदारता, पवित्रता आदि गुण कम दिखाई दे रहा है। संत रज्जब की मान्यता यह है की राम और रहीम में कोई अंतर नहीं है पर आज भी हम मंदिर और मस्जिद के नाम पर राजनीति करते हैं।
इस वैश्वीकरण के दौर में संत लोग यह कहते हैं की हम अपने अन्दर के भेदभावों को छोड़कर एक स्वार्थ विहीन समाज का निर्माण करना चाहिए। यह भी स्पष्ट होता है की संत लोग आम लोगों के अन्दर एक जागृति लाने का प्रयास किए हैं।
आज हमारे समाज में जाति-पाँति, छुआ-छूत, ऊँच-नीच आदि का विरोध दिखाई देता है उसे हम संत साहित्य में देख सकते हैं। इन्हीं सब कारणों से यह साहित्य हमें पुनर्जागरण का सन्देश देता है।

संदर्भ ग्रंथ:
1. अहीर, सोहन सिंह, सतगुरू रविदास जी की अमर कहानी, ईस्टर्न बुक लिंक्स, 2004 ई.
2. सिंह, डॉ. सुखदेव (सम्पादक), रैदास बानी, पृष्ठ-126, दोहा-84, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2003 ई.
3. सूरसागर, नवमस्कंध, पद सं-446
4. sahityasanskritiblog.wordpress.com/2017/01/22/समकालीन-जीवन-में-भक्ति-सा/
5. कबीर के दोहे, स्वारथ को अंग, दोहा-1, qwertylibrary.com/2023/02/Kabira-ke-dohe.html
6. दादूदयाल की बानी: भाग एक, 8/54
7. कबीर साखी संग्रह – पृ- 155
8. रैदास की बानी, पृ-126,दोहा-84,राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2003 ई.
9. कबीर ग्रंथावली – परिशिष्ट , पद-111
10. सूरसागर, नवमस्कंध, पद सं-446

वेब लिंक :
1.http://shriprbhu.blogspot.com/2012/01/blog-post_77.html
2.https://sahityasanskritiblog.wordpress.com/2017/01/22/
3.http://www.socialresearchfoundation.com/new/publish-journal.php?editID=5146
4.https://www.setumag.com/2020/05/Urmila-Porwal-Hindi-Sant-Sahitya.html
5.https://m.sahityakunj.net/entries/view/sant-sahitya-ke-saamaajik-aadarsh-evam-aaj-kaa-yug

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