शुक्र है खुदा का कि तू अपने घर में है
तू उसकी सोच जो मौत की डगर मैं है
ये घूमने फिरने की चाहत को भूल जा
यारा हर किसी की ज़िंदगी अधर में है
ये इंसानियत नहीं सिर्फ अपनी सोचना
उसकी भी सोच जो अपनी फ़िकर में है
भला क्या बचा है एक मज़दूर पर यारो
घर में पड़े हैं फांके ज़िन्दगी भंवर में है
वक़्त सबका बिगड़ता है कभी न कभी
उबरेगा वो भी जो करोना के कहर में है
इस कुदरत से अब डरना सीख ले ‘मिश्र’
दे सहारा उसको भी जो तेरी नज़र में है