खड़ी आँगन में अगर, दीवार न होती !
यूं दिलों के बीच यारा, तक़रार न होती !

महकती इधर भी रिश्तों की खुशबुएँ,
गर जुबां की तासीर में, कटार न होती !

न आतीं यूं ज़िंदगी के सफर में आफ़तें,
अगर रहबरों के दिल में, दरार न होती !

यहाँ खिलते गुल भी महकता जहाँ भी,
गर नीयत बागवां की, शर्मसार न होती !

न अखरता इतना खिज़ाओं का मौसम,
अगर दिल में ख़ारों की, भरमार न होती !

न होता पैदा खामोशियों का सिलसिला,
अगर नफ़रतों से दुनिया, बेज़ार न होती !

यारो बन जाता आदमी भी देवता अगर,
ये दुनिया ख्वाहिशों का, शिकार न होती !

न होती ज़रूरत इधर मुखौटों की “मिश्र”,
अगर आदमी की आत्मा, बीमार न होती

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