महाराणा प्रताप बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जब मैं स्कूल में था ।प्रताप को विशेष रूप से जानने-बुझने की जिज्ञासा जागृत हुई ।
मैं स्तब्ध था,क्योंकि अभी तक राष्ट्रनायकों से ज्यादा आक्रमणकारियों के विषय में पढ़ने को मिला था । बालपन में ही यह बात समझ आ गई कि जब इतिहास लिखनेवाला अपने गर्दन पर किसी विशेष विचारधारा का बोझ रख लेता है, अपनी कलम को व्यक्ति विशेष यहाँ गिरवी रख देता है तब मन मुताबिक प्रतिमान गढ़ता है। उसे असली नायकत्व नहीं दिखता। मैं बुजुर्गियत की छाँव में बैठा ।अलग-अलग स्रोतों की शरण में गया और महाराणा से परिचित हुआ ।
महाप्रतापी महाराणा प्रताप सात अव्ययों से बने थे । स्वाभिमान और साहस ‘पंचतत्व’ में समांगी रूप से मिला था । बप्पा रावल, राणा हमीर, राणा कुंभा, राणा सांगा जैसे परम प्रतापी पुर्वजों के शौर्य परंपरा को आगे ले जानेवाले वीर अवतार थे महाराणा प्रताप। वीर योद्धा राणा संगा
; जो शरीर पर 80 घाव के बाद भी दुश्मनों से लड़ते रहे थे, ऐसे पुर्वजों की वीर गाथा सुनकर महाराणा बड़े हुए । उनका बस एक ही सिद्धांत था-‘मातृभूमि और स्वाभिमान से बढ़कर कुछ भी नहीं ।’
बात उस समय की है जब मेवाड़ की बागडोर प्रताप के हाथों में थी ।आर्थिक-राजनैतिक-भौगोलिक हर दृष्टि से मेवाड़ बहुत महत्वपूर्ण था मुगलिया सल्तनत के लिए । मुगल बादशाह अकबर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मेवाड़ पर अपना आधिपत्य चाहता था ।
अकबर संधि का प्रस्ताव भेजा था । राणा को संधि यानी मुगल दरबार में सर झुकाकर खड़ा होना कतई मंजूर नहीं था। मानसिंह मान-मनौवल करने आया । प्रताप जी ने दुत्कार कर भगा दिया था । मानसिंह अपने अपमान से तिलमिला गया था । सबकुछ जाकर अपने सत्ता स्वामी से सुनाया था मानसिंह । महाराणा हर चुनौती स्वीकार करने को तैयार थे; लेकिन झुकने को कभी तैयार नहीं थे । राणा अपने आन पर अड़े रहे। हल्दीघाटी में युद्ध शुरू हुआ । अधिकांश राजवाड़े प्रताप के साथ नहीं थे । प्रताप के साथ उनका साहस था और मातृभूमि पर कट जाने का संकल्प ।
युद्धवीर महाराणा प्रताप भीलों, वनवासींदो, कुछ अफगानी सैनिकों के साथ रणक्षेत्र में कूद पड़े । राजा की तरह नहीं,एक सैनिक की तरह ।
भयंकर युद्ध शुरू हुआ । मुगल पानीपत के प्रथम युद्ध (1526 ई0) में हीं ‘तुगलमा युद्ध नीति’ एवं तोपखाने का प्रयोग कर चुके थे। अकबर के पास भयंकर सेना और तोपें थीं, राणा के तरफ चौड़ा-चौड़ा सीना और उनमें तोपगोला से भी ज्यादा ताव था । प्रताप के सैनिक स्वराज के लिए संकल्पित थे और पाँच-पाँच मुगल सैनिकों पर भारी पड़ रहे थे । राणा तलवार के एक वार से दुश्मन को घोड़ा सहित द्विभाजित कर रहे थे । तमाम ग्रह महाराणा प्रताप की गति के साक्षी बने और भगवान सूर्य शौर्य के साक्षी बने। आप कल्पना करिये उस दृश्य का जब 7 फुट 5 इंच की लंबाई और असाधारण शरीर वाला वीर योद्धा अपने शरीर पर लिए लगभग डेढ़ क्वींटल वजन के साथ रणभूमि में धमगज्जड़ मचा रहा होगा !
हल्दीघाटी रक्ताभ हो गई थी । राणा के सामने मुगल पक्ष से मानसिंह दिखाई पड़ा । राणा की आँखें मानसिंह को ही खोज रही थी, जैसे महाभारत युद्ध में अर्जुन की आँखें जयद्रथ को । चेतक चौकड़ी मारकर गज के मस्तक पर कूदा।प्रताप जी ने वार किया, पीलवान लुढ़क गया ।मानसिंह को जान-परान लेकर भागना पड़ा था ।
महाराणा प्रताप दुश्मनों का संहार करते रहे।सुर्य का प्रकाश मद्धिम होने लगा था। इधर प्रताप भी थकने लगे थे क्योंकि अकबर की ओर से सेना का समुंद्र था, जिसे पार करना असंभव था । स्थिति को भाँप, महाराणा की ओर से लड़ रहे वीर लड़ाका झाला सरदार प्रताप के निकट आ गये।
झाला सरदार ने महाराणा जी से लौटने का आग्रह किया । राणा मानने को तैयार न थे। झाला सरदार जानते थे कि स्वराज का सपना तभी पुर्ण होगा जब राणा होंगे।झाला सरदार कर जोड़कर बोले-“महाराज ! आप लौट जाइये । यही समय की माँग है।युद्धक्षेत्र में भगवान श्री कृष्ण जैसा दूरदर्शी आज तक कोई नहीं हुआ । आपको मालूम होना चाहिए, श्री किशन जी का एक नाम रणछोड़ भी है ।” परम प्रतापी प्रताप अपने हठ पर अडिग रहे । अब सरदार ने भगवान एकलिंग का सौगंध दे दिया और खुद प्रताप का भेष धर शत्रु सेना पर टूट पड़े । दुश्मनों में खलबली मच गई । झाला सरदार ने अपनी आहुती देकर आजादी के अलख को ज़िंदा रखा ।
महाराणा प्रताप स्वराज के लिए मृत्युपर्यन्त प्रयास करते रहे। कभी हारे नहीं । कभी टूटे नहीं । अपने आन- शान पर अड़े रहे।कभी झुके नहीं ।
हल्दीघाटी युद्ध के 21 साल बाद जंगल में एक दुर्घटना घटी । महाराणा जी का सामना एक शेर से हुआ । महाराणा अपने आप में सवाशेर थे , उसकी औकात नाप दिये । इस दुर्घटना में प्रताप बूरी तरह घायल हो गए थे । घटना के कुछ दिन बाद 19 जनवरी 1597 ईo को इस पावन भूमि पर अपनी वीरता और शौर्य का पदचिन्ह छोड़कर महाराणा प्रताप जी परमधाम को निकल पड़े । कहते हैं कि अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी को खोकर अकबर की भी आँखें छलक पड़ी थी ।
प्रताप ! आप सदा हमारे आदर्श बने रहेंगें । भारतभूमि का कण-कण आपका यशगान करता है…करता रहेगा । जयंती पर कोटिशः नमन धरतीपुत्र ! भारतभूमि की जय हो । जय हिन्द ।।