मैं दिल की जद्दोजहद,बातों में उड़ा देता हूँ, छुपाने को ज़र्द चेहरा,मुखौटा लगा लेता हूँ। इधर दिखा के तमाशा भी मिलेगा क्या यारो, मैं छलकते अश्कों को,पलकों में छुपा लेता हूँ। यारों न चाहता हैं कोई अब बनना हमसफ़र, मैं… Read More
ग़ज़ल : मैं भटका नहीं हूँ।
यारों ठोकरें खा कर भी,मैं ठहरा नहीं हूँ, भले ही अजीब हैं रास्ते,मैं भटका नहीं हूँ। ये आंधियाँ ये ज़लज़ले आते रहेंगे रोज़ ही, पर उड़ा न पाएंगे मुझे,मैं तिनका नहीं हूँ। मुझे हर तरफ से घेर लेती हैं पुरानी… Read More
ग़ज़ल : कफ़न उड़ा जाते तो क्या जाता
मेरी मौत पे अफ़सोस,जता जाते तो क्या जाता, अपने हाथों से कफ़न,उड़ा जाते तो क्या जाता। आँखें खुली रखी थीं यारा सिर्फ तेरे वास्ते मैंने, खुदा के वास्ते दीदार,करा जाते तो क्या जाता। जानता हूँ मैं कि हर चीज़ मिलती… Read More
कविता : कौन कहता है कि इंसान ज़िंदा है
कौन कहता है कि, इंसान ज़िंदा है मुखौटे में उसके तो, शैतान ज़िंदा है कहने की बात नहीं हक़ीक़त है ये, कि दिल के अंदर, शमशान ज़िंदा है यारो गुज़र गए वो ईमां के लम्हात, अब तो हर तरफ, बे-ईमान… Read More
ग़ज़ल : सादगी समझ बैठे
वो मुस्कराये क्या, कि हम आशिक़ी समझ बैठे हम तो मौत के सामान को, ज़िन्दगी समझ बैठे ये ख़ुदा का कुफ़्र था, या फिर नादानियाँ हमारी, कि धुप अंधेरों को यारो, हम चांदनी समझ बैठे न समझ पाए हम, उसके… Read More
ग़ज़ल : चाहत की इस दुनिया में
चाहत की इस दुनिया में, केवल व्यापार मिले मुझको चाहा जिसे फूलों की तरह, उससे ही खार मिले मुझको कैसे जिया और कैसे मरा हूँ, किसी को कोई गरज़ नहीं, दिल में घुस के आघात करें, कुछ ऐसे यार मिले… Read More
गजल : पता नहीं चलता
चिकनी चुपड़ी बातों से, फ़ितरत का पता नहीं चलता, अंदर क्या और बाहर क्या है, इसका पता नहीं चलता। जो मीठेपन का लेप चढ़ा कर, प्यारी सी बातें करते हैं, कब कटुता का वो रंग दिखा दें, इसका पता नहीं… Read More
ग़ज़ल : हमें खोना नहीं आता
हम कैसे बताएं यारो कि, हमें रोना नहीं आता यूं खामखा पलकों को, हमें भिगोना नहीं आता सहते रहें हैं यारों के सितम हम तो बस यूं ही, अकारण बीज नफ़रत के, हमें बोना नहीं आता अच्छा है कि कर… Read More
ग़ज़ल : तो बात बने
न वक़्त को बेकार गंवाओ, तो बात बने न किसी की आत्मा दुखाओ,तो बात बने बाद मरने के पहुँच जाते हैं सारे के सारे, किसी ज़िंदा को समझ पाओ, तो बात बने जितनी गिराने पे दिखाते हो एकता यारो, किसी… Read More
ग़ज़ल : मुस्कान बदल लेता है
कभी नाम बदल लेता है, कभी काम बदल लेता है, सब कुछ पाने की ललक में, वो ईमान बदल लेता है। इस बेसब्र आदमी को नहीं है किसी पे भी भरोसा, गर न होती है चाहत पूरी, तो भगवान् बदल लेता है। है कैसा आदमी कि रखता है बस हड़पने की चाहत, गर मिल जाए कुछ मुफ्त में, तो आन बदल लेता है। इतने रंग तो कभी गिरगिट भी नहीं बदल सकता है, यारों जितने कि हर कदम पर, ये इंसान बदल लेता है। कमाल का हुनर हासिल है मुखौटे बदलने का इसको, पड़ते ही अपना मतलब, झट से ज़ुबान बदल लेता है। “मिश्र” काटता है बड़े ही ढंग से ये अपनों की जड़ों को, सामने दिखा के भारी ग़म, पीछे मुस्कान बदल लेता है। +160