insaaniyat

कौन कहता है कि, इंसान ज़िंदा है

मुखौटे में उसके तो, शैतान ज़िंदा है

कहने की बात नहीं हक़ीक़त है ये,

कि दिल के अंदर, शमशान ज़िंदा है

यारो गुज़र गए वो ईमां के लम्हात,

अब तो हर तरफ, बे-ईमान ज़िंदा है

न रहा कहीं पे अब झुकने का चलन,

सभी के दिलों में, अभिमान ज़िंदा है

हैसियत नहीं एक तिनके के बराबर,

पर बनने को ख़ुदा, अरमान ज़िंदा है

न रही ‘मिश्र’ अब शराफ़त जमाने में,

अब तो इन हवाओं में, हैवान ज़िंदा है

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