वो मुस्कराये क्या, कि हम आशिक़ी समझ बैठे
हम तो मौत के सामान को, ज़िन्दगी समझ बैठे
ये ख़ुदा का कुफ़्र था, या फिर नादानियाँ हमारी,
कि धुप अंधेरों को यारो, हम चांदनी समझ बैठे
न समझ पाए हम, उसके अंदर भड़कते शोर को,
उसके तो राग खुन्नस को, हम रागिनी समझ बैठे
इसे हम वक़्त की मार कहें, या फिर बदनसीबी,
कि पत्थर की मूरत को, हम महज़बीं समझ बैठे
वाह क्या ही अक्ल पायी है, परखने की हमने भी,
कि हलाहल की बूंदों को, हम चाशनी समझ बैठे
बड़ा ही शातिर बहुरूपिया, निकला वो तो “मिश्र”,
कि उस कपटी मुखौटे को, हम सादगी समझ बैठे