kafan mohabbat ki

मेरी मौत पे अफ़सोस,जता जाते तो क्या जाता,
अपने हाथों से कफ़न,उड़ा जाते तो क्या जाता।

आँखें खुली रखी थीं यारा सिर्फ तेरे वास्ते मैंने,
खुदा के वास्ते दीदार,करा जाते तो क्या जाता।

जानता हूँ मैं कि हर चीज़ मिलती है नसीबों से,
मगर अपना हाल-ए-दिल,बता जाते तो क्या जाता।

हमेशा दिल तड़पता था तेरी आवाज़ सुनने को,
कोई गीत मोहब्बत का,सुना जाते तो क्या जाता।

मेरी रूह भटकती है यारा बस तेरे ही आस पास,
एक दीया मेरी कब्र पे, जला जाते तो क्या जाता।

ये माना कि तेरी मोहब्बत के काबिल न थे हम,
तो रश्म गैरों की तरह,निभा जाते तो क्या जाता

मैं जानता हूँ कि कौन रोता है गैरों के लिए‘मिश्र’,
मगर ज़रा सा नाटक,दिखा जाते तो क्या जाता।

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