जातिवादी विमर्श

जातिवादी विमर्श की शुरुआत आदिकाल से ही है, भक्तिकाल में इस पर जमकर प्रहार हुआ,रीतिकाल में जातिवादी विमर्श पर कुछ भी नहीं दिखलाई पड़ता है। आधुनिक काल तथा स्वतंत्रता आंदोलन के समय यह जातिवादी विमर्श, अंग्रेजों के लिए एक बहुत… Read More

गीत ‘आ अब लौट चलें’ की शब्द-सुर-स्वर के सापेक्ष साहित्यिक विवेचना

आ अब लौट चलें(https://www.youtube.com/watch?v=Rh4iH0ZR6CE) कोई गीत ‘आह् वान’ का स्वर लिए, किस प्रकार प्रभावी रूप से मारक क्षमता की उच्च तीव्रता को समेटे, सामूहिक उद् बोधन का ‘नाद’ बन कर, कालजयी नेतृत्व की बागडोर थामें, ‘युग प्रवर्तक’ बन जाता है, ‘आ… Read More

मुंशी प्रेमचंद ही क्यों ?

बात तब की है जब मैं कक्षा सातवीं में अध्यनरत था। पिताजी को उपन्यास पढ़ने का शौक था और मुझे कॉमिक्स। कॉमिक्स की लत इतनी बुरी थी कि पाठ्यपुस्तकों के बीच में छुपा कर उन्हें पढ़ता था।मैंने कई बार कॉमिक्स … Read More

जन्मदिवस पर विशेष : ‘हरिशंकर परसाई’, ‘तुलसीदास’, ‘गिरिजाकुमार माथुर’

हिंदी साहित्य के तीन महान विभूतियों का आज (22 अगस्त) जन्मदिवस है। जिनमें से एक हिंदी साहित्य में व्यंग्य की पहचान और मेरे प्रिय लेखक ‘हरिशंकर परसाई’ जी हैं जिसने ‘भोलाराम का जीव’, ‘प्रेमचंद के फटे जूते’ आदि व्यंग्य लिखा… Read More

हादसे: स्त्री मुक्ति के संदर्भ में

हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श के अंतर्गत समय–समय पर स्त्री जीवन की नई समस्याओं और नए मुद्दों पर तार्किक ढंग से चर्चा की जा रही है। साहित्य की अन्य विधाओं में जहाँ लेखक इन परिवर्तनों को आत्मसात कर प्रवक्ता के… Read More

“कलम का सिपाही” (प्रेमचंद) : लेखकीय दृष्टि

लेखकीय दृष्टि यदि अपने युगीन सामाजिक ,राजनीतिक ,धार्मिक,आर्थिक ,सांस्कृतिक दबावों ,घात –प्रतिघातों ,सम्बंधों में आती जटिलताओं के बीच मनुष्य की संपूर्णता में आत्मसात करते हुए जनाभिमुख और जनहित में अभिव्यक्त होती है तो वह सदैव प्रासांगिक बनी रहती है और… Read More

प्रेमचंद : कहानियों का सबसे बड़ा खिलाड़ी

कला केवल यथार्थ की नक़ल का नाम नहीं है कला दिखती तो यथार्थ है, पर यथार्थ होती नहीं उसकी खूबी यही है की यथार्थ मालूम हो……मुंशी प्रेमचंद             बीसवीं शती के संवेदनशील रचनाकार उर्दू से हिंदी भाषा में लिखने वाले… Read More

munshi premchand

वर्तमान समय में प्रेमचंद की प्रासंगिकता

प्रेमचंद को पढ़ना उन चुनौतियों को प्रत्यक्ष अनुभूत करना है, जिन्हें भारतीय समाज बीते काफी समय से झेलता आया है और आज भी उन चूनौतियों का हल नहीं ढूँढ पाया है। दलित, स्त्री, मजदूर, किसान, ऋणग्रस्तता, रिश्वतखोरी, विधवाएँ, बेमेल विवाह,… Read More

हिंदी साहित्य और सिनेमाई अनुवाद

अनुवाद किसी सीमा और देश तक सीमित नहीं हैं, उसकी महत्ता पूरे विश्वा में फैल चुकी है। भाषिक व्यापार के रूप में अनुवाद भारतीय परंपरा की द्रष्टि से कोई नई बात नहीं है। अनुवाद शब्द का संबंध ‘वद’ धातु से… Read More