आ अब लौट चलें
(https://www.youtube.com/watch?v=Rh4iH0ZR6CE
कोई गीत ‘आह् वान’ का स्वर लिए, किस प्रकार प्रभावी रूप से मारक क्षमता की उच्च तीव्रता को समेटे, सामूहिक उद् बोधन का ‘नाद’ बन कर, कालजयी नेतृत्व की बागडोर थामें, ‘युग प्रवर्तक’ बन जाता है, ‘आ अब लौट चलें’ गीत उसी शाश्वत कृतित्व का, भारतीय सिने गीत-संगीत में अब तक का एकमात्र युगान्तकारी गीत-संगीत है। 
फ़िल्म ‘जिस देश में गँगा बहती है’ की कहानी के अनुसार कवि शैलेन्द्र ने ‘आ अब लौट चलें’ गीत में शब्द संयोजन, भाव की विभिन्न अवस्थाओं, हृदय के उद् गार तथा सन्देश के निमित्त जो कुछ सहज रूप से रचा है उसे अपने संगीत के आवरण में ढाल कर शंकर-जयकिशन ने रचनात्मकता, कलात्मकता एवं भावनात्मकता का जो पुट इसमें समाहित किया है वह किस प्रकार कालजयी स्वरूप लिए एक युगान्तकारी कृतित्व का ‘महानाद’ बन गया है, उसे आज इस गीत की ‘सम्पूर्णता’ में यहाँ समझना उतना ही रोमाँचक होगा जितना इस गीत के सृजन की प्रक्रिया में तब रहा होगा।
पारम्परिक रूप से शास्त्रीय, सुगम तथा सिने गीत-संगीत में वादकों की सँख्या प्रायः तीन, पाँच, सात ग्यारह तक ही सीमित रहती है। सिनेमा में यह सँख्या फ़िल्म के कथानक और प्रसंग विशेष की पृष्ठ भूमि के अनुसार बढ़ कर सौ से भी ऊपर पहुँच जायेगी यह 1960 के वर्ष में तब किसी ने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी। शंकर-जयकिशन ने अपनी परिकल्पना को मूर्त रूप देते हुए जब अपनी विशाल संगीत मण्डली के संग ‘आ अब लौट चलें’ का ‘सुर संसार’ रचा था तब यह समाचार सभी को स्तब्ध कर गया था। विस्मय और अचरज से भरे सिनेमा के साथ ही शास्त्रीय एवं सुगम संगीत से जुड़े सभी महारथी इस अपार संगीत समूह के सरगम से उपजने वाले गीत-संगीत का परिणामी ‘नाद’ सुनने को व्यग्र हो चुके थे। दो, चार, दस, बीस से ऊपर वाद्य कलाकारों की सँख्या के सम्बन्ध में किसी संगीतकार द्वारा प्रयोग में लाना तो दूर तब इसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। पश्चिमी गीत-संगीत में भी उन दिनों वादकों की इतनी बड़ी सँख्या का प्रयोग दुर्लभ ही था। बीस से ऊपर वादकों की सँख्या को नियंत्रित करना भी तब कठिन होता था ऐसे में स्वर का सुर तथा उसका सुरीलापन अनियंत्रित हो जाये, यह आशँका बनी रहती थी। इस प्रकार के प्रयोग में वाद्य यन्त्रों से निकलती ध्वनि असंयमित हो कर कर्कश प्रलाप करने लग जाये, यह सम्भावना भी बनी रहती है। संगीतकार स्वयं पूर्ण रूप से सिद्ध न हो तो मात्र वाद्य संयोजक के बल पर कोई नूतन प्रयोग कदापि सम्भव नहीं है। इस प्रकार के अभिनव प्रयोग हेतु यह अनिवार्य रूप से नितान्त आवश्यक है कि संगीतकार संगीत के प्रत्येक विधा का ज्ञानी हो तथा अपनी कल्पनाशील वृत्ति को साकार करने की प्रक्रिया को मूर्त रूप देने में सक्षम हो। जिन संगीतकारों की संगीत रचना की आकर्षक एवं प्रभावी प्रस्तुति का श्रेय संगीत संयोजक (Music Arranger) के नाम अंकित कर दिया जाता है शंकर-जयकिशन उस सूची में नहीं आते। शंकर-जयकिशन अपने कार्य में कितने सिद्ध थे वह उनकी कार्य प्रणाली से ही ज्ञात हो जाता है। एक-एक वादक, संयोजक, गायक-गायिका, समूह स्वर से कब, कहाँ, किस प्रकार का योगदान किस रूप में लेना है इसका निर्णय अपनी एक-एक संगीत रचना में स्वयं शंकर-जयकिशन ही लिया करते थे।
‘आ अब लौट चलें’ गीत में प्रयुक्त प्रारम्भिक संगीत (Prelude Music), मध्य संगीत (Interlude Music) तथा परिणामी (समापन) संगीत (Conclude Music) की संरचना जिस व्यवस्थित रूप से की गयी है वह गीत में निहित भाव, उसके प्रयोजन तथा उससे उद् भासित होने वाले सन्देश को आश्चर्यजनक रूप से अपनी सम्पूर्ण तीव्रता से सम्प्रेषित एवं प्रक्षेपित करता है। फ़िल्म का कथानक अपने अन्तिम चरण में ‘दस्यु उन्मूलन’ का आग्रह लिए जिस सामाजिक समस्या के निवारण हेतु हृदय परिवर्तन के सन्देश को स्थापित करने में रत है उसे सहज रूप से अत्यन्त ही प्रभावी भाव से स्थापित करने में यह गीत सफल रहा है। इस फ़िल्म में यह गीत ‘शीर्षक गीत’ का स्थान नहीं लिए है फिर भी यह गीत फ़िल्म का ‘प्राण तत्व’ अपने में समाहित किए हुए है। राज कपूर ने विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण के ‘दस्यु उन्मूलन’ अभियान से प्रेरित हो कर जब इस फ़िल्म की परिकल्पना की थी तब सम्भवतः उन्होंने भी नहीं सोचा होगा कि यह गीत दस्यु उन्मूलन अभियान को त्वरित वेग प्रदान कर स्वयं में एक आह् वान का रूप ले लेगा। गीत अपनी प्रचण्ड भाव सम्प्रेषण की मारक क्षमता लिए इतना प्रभावी आकार ग्रहण कर चुका था कि इस गान के श्रवण मात्र से दस्युओं का हृदय परिवर्तन उस समय विशेष तथा बाद के वर्षों में आश्चर्यजनक रूप से देखने को मिला। इसी के साथ प्रवासी भारतीयों का स्वदेश प्रेम जिस प्रकार इस एक गीत के कारण जागृत हुआ वह अद्भुत था। भारतीय सिने गीतों के अभी तक के इतिहास में यह प्रथम अवसर था जब किसी एक गीत ने वैश्विक स्तर पर ‘युगान्तकारी आह् वान’ का अलख जगाया था। एक ऐसा अलख जो वर्तमान के प्रत्येक आते हुए पल-क्षिन में अपनी शाश्वत जीवन्तता का अमृत घोल रहा है।


इस गीत में प्रारम्भिक संगीत (Prelude Music) द्वारा मन में उठ रहे भावों के उद् वेग को वाद्य की धीमी-धीमी परन्तु पुष्ट रूप से प्रबल होती ध्वनि को इस प्रकार झँकृत किया गया है मानों हृदय की तलहटी से उठ रहे ज्वार-भाटे के द्वन्द को जैसे किसी ने अकस्मात् मुखर कर दिया हो। विचार एवं भावना के सम्मिश्रण से उपजा आवेग शब्द की अनुपस्थिति में भी वह सब कुछ प्रगट कर गया है जो शून्य की स्थिति में व्यग्रता की अकुलाहट में स्वतः ही साकार हो उठता है। सिनेमा में इस गीत के संग जो दृश्य-परिदृश्य नयनों के समक्ष प्रगट हो रहा है उससे सहज साम्य बैठाती हमारी भाव तन्द्रा अपनों से विलग हो चुके अपने प्रिय परिजनों को पुनः स्वयं से जोड़ लेने को आतुर है। यदि नयनों को मूँद कर जब इस गीत का श्रवण अपने ही भाव के धरातल पर किया जाता है तो मन जैसे हर उस प्रिय को लौट आने का आग्रह करता सा लगता है जो बिछोह के अथाह सागर में न जाने कहाँ लुप्त हो गये हैं। अपनो से बिछड़ा मीत देस में हो या परदेस में, इस लोक में हो या परलोक में, मन उसे लौटा लाने को व्याकुल हो ही उठता है। ज्यूँ ही स्वर उभरता है – ‘आ, अब लौट चलें, नैन बिछाए बाँहें पसारे, तुझको पुकारे, देश तेरा’, यूँ लगता है जैसे मूक भाव को वाणी मिल गयी है। ये ‘देश’ कौन है? आपकी आत्मा में वास करने वाला/ वाली आपका अपना ही कोई प्रिय जो कहीं अन्यत्र भटक गया/ गयी है, उसी को पुनः अपने हृदय में समाने को व्याकुल हैं ये नयन। गीत में अकुलाहट लिए यह स्वर अधीरता और व्यग्रता का मिश्र भाव ले कर आर्तनाद सा उन्माद प्रगट करता प्रतीत होता है। भारतीय दर्शन में भाव-भक्ति के संग शक्ति का सान्निध्य वाँछित फल की प्राप्ति का मार्ग सहज प्रशस्त कर देता है। उसी शाश्वत दर्शन को अंगीकार करते हुए शंकर-जयकिशन द्वय जब गीत के मध्य संगीत (Interlude Music) में नारी स्वर में ‘आ जा रे’ की पुकार को ध्वनित करते हैं तब ‘शक्ति’ का पुँज भावना के वैचारिक मर्म को अपनी सम्पूर्ण चेतना के संग चित्त से बाहर उड़ेल देता है। यह एक विस्मयकारी अवस्था है। पुरुष स्वर से आगे बढ़ कर उच्च स्तर पर स्वयं को स्थापित कर जिस आसन पर आरूढ़ हो कर नारी स्वर अपनी शक्ति का परिमार्जन करती हुयी अपनी पुकार का पुँज बिखेरती है वहाँ पुरुष वाणी उसी शक्ति के आसन पर स्वयं को समानान्तर में स्थापित कर तार सप्तक के उसी छोर का सिरा थाम कर जिसे नारी स्वर ने अपने आत्मिक ओज से सम्प्रेषित किया था, मन के भाव को उसकी समग्र चेतना एवं तीव्रता के साथ संयमित स्वर में आगे बढ़ाता है। नर-नारी की भक्ति-शक्ति का यह एक ऐसा अनूठा प्रयोग है जिसे काल के भाल पर अंकित अभी तक का एकमात्र अभिनव सृजन का गौरव प्राप्त है। शंकर-जयकिशन जैसे विलक्षण प्रतिभा के धनी तथा रचनात्मकता के विराट व्योम पर अलौकिक छटा का सहज सौन्दर्य स्थापित करने की कला में निपुण किसी कालजयी संगीतकार के मन-मस्तिष्क में ही यह विचार कौंधा होगा कि इस एकल गान में पुरुष की भावना प्रधान दृढ़ वाणी के संग नारी स्वर की समर्पित शक्ति के पुँज को जोड़ कर उससे भक्ति-शक्ति की संयुक्त धारा को उत्सर्जित कर परिणामी निष्कर्ष को अत्यधिक मारक एवं प्रभावी बनाया जाय। निःसन्देह गीत की रचना करते समय कवि शैलेन्द्र के मन में नारी स्वर का ‘उद् घोष’ ‘आ जा रे’ की कल्पना नहीं रही होगी पर इसके संगीत संयोजन की प्रक्रिया में शंकर-जयकिशन ने ही इसे गीत के मध्य संगीत में स्थापित किया होगा। यहाँ पर मैं यह स्पष्ट रूप से इंगित करना चाहूँगा कि यह अनूठी कल्पना किसी संगीत संयोजक (Music Arranger) द्वारा नहीं की गयी है। उन संगीतकारों के लिए निश्चय ही संगीत संयोजक महत्वपूर्ण कारक होते हैं जो संगीत की वर्ण माला एवं व्याकरण से अनभिज्ञ हैं। शंकर-जयकिशन की छत्र-छाया में रह कर कई संगीत संयोजक संगीतकार बन चुके हैं पर कल्पना की जिस उड़ान पर वो अपने सरगम का अश्व दसों दिशाओं में सरपट दौड़ाया करते थे वह कला तो उनके साथ ही अंतर्ध्यान हो चुकी है। कला अपनी समग्र कलात्मक विशेषताओं के संग किस प्रकार शंकर-जयकिशन के संगीत में रचती-बसती थी उसकी अनुपम छटा उनके ढेरों सृजन के साथ-साथ इस एक गीत में भी सहज रूप से अनुभूत की जा सकती है।
गायिका लता मँगेशकर को मात्र ‘आलाप’ के जिस प्रयोजन हेतु शंकर-जयकिशन ने इस एकल गान में समाहित किया है उसे वो अपने किसी वाद्य यन्त्र से भी पूर्ण कर सकते थे। ऐसे में लता को इस गीत में सम्मिलित करने के पार्श्व में शंकर-जयकिशन का उद्देश्य क्या था? कई अन्य गीतों में भी ऐसे ही ढेरों सूक्ष्म अव्यव हैं जिनका उत्तर यदि आप को मिल जाये तो उस गूढ़ पहेली का हल भी आप पा जायेंगे जो शंकर-जयकिशन को अपने पूर्ववर्ती, समकालीन तथा अब तक के समस्त संगीतकारों से पृथक सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के सिंघासन पर विराजमान किये हुये है। आइए, लता के स्वर को इस गीत के मध्य संगीत में निरूपित करने के पीछे के इस वैश्विक संगीतकार के मन्तव्य को मैं आपके समक्ष उद् घाटित किए देता हूँ। जिस प्रयोजन हेतु इस गीत की रचना की गयी है उसमें नारी शक्ति का समायोजन ही वह एकमात्र कारक था जो गीत को उसके कथ्य, तथ्य, भाव एवं परिणामी निष्कर्ष को स्थापित करने में एक महत्वपूर्ण अंश हो सकता था। इसी कारक के कारण भारतीय दर्शन का वह मूल मन्त्र भी इस गीत में समाहित हो सका है जो सदियों से नर-नारी के शाश्वत सम्मिलित ओज का पुँज ले कर मानव कल्याण का अलख जगाता आया है। स्मरण कीजिये शंकर-जयकिशन की फ़िल्म ‘अनाड़ी’ के उस एक गीत को जो एकल होते हुए भी अपनी एक पंक्ति के कारण युगल गीत के रूप में जाना जाता है। ‘न समझे वो अनाड़ी हैं’ पंक्ति को गायक मुकेश ने गीत के प्रारम्भ में मात्र एक ही बार गाया है परन्तु उनकी वाणी के ओज से यह स्वर गीत के शब्द-शब्द में मूक रह कर भी मुखर है। यही वह सूक्ष्म कारक है शंकर-जयकिशन के संगीत की विराटता का जो उन्हें कालजयी के सिंघासन पर सदा के लिए स्थापित करता है।
आइए, ‘आ अब लौट चलें’ के सन्दर्भ में अब गायक मुकेश के स्वर-सौन्दर्य के उस आयाम पर दृष्टिपात करते हैं जिसे शंकर-जयकिशन जैसे विलक्षण प्रतिभा से सम्पन्न महान संगीतकार ही सफलता पूर्वक साध सके हैं। इस गीत के मध्य संगीत (Interlude Music) में लता मँगेशकर अपने स्वर को समूह स्वरों (Chorus) के सानिध्य में उच्च सप्तक के जिस पड़ाव पर ला कर अंतर्ध्यान होती हैं वहीं से गायक मुकेश उच्च सप्तक के उसी तार का छोर पकड़ कर अपनी वाणी सहज रूप से अन्तरे के कथ्य एवं भाव के संग जिस प्रकार सहज रूप से आगे बढ़ाते हैं वह अचम्भित करने वाला है। अन्तरे में यह गीत उसी उच्च सप्तक में आगे बढ़ता है जिस पर लता आरूढ़ थीं। सिने संगीत में मन्ना डे, लता मँगेशकर और इन जैसे अन्य गायक-गायिका को मध्य अथवा तार सप्तक में गाते हुये हम सभी ने बारम्बार सुना है पर इस एक गीत में उसी उच्च सप्तक में गीत के सभी तीन अन्तरे को सहज रूप से गाते हुए पुनः अपने स्वर को मुखड़े के स्थायी भाव में ला कर गीत के स्वाभाविक प्रवाह में संयोजित करने का उपक्रम गायक मुकेश को भी उसी प्रकार श्रेष्ठ सिद्ध करता है जिस प्रकार शंकर-जयकिशन संगीत के क्षेत्र में स्वयंभू सर्वश्रेष्ठ हैं। मुकेश गायन का यह वह आयाम है जिस पर कई बार प्रश्न उठे हैं पर समय-समय पर अपने गायन के माध्यम से उन्होंने इसका उत्तर अपनी ऐसी ही विलक्षण प्रतिभा से दिया है फिर भी यत्नपूर्वक उनके इस कौशल को लोगों ने अनदेखा किया है। मुझे स्मरण नहीं आता कि कभी किसी संगीत समीक्षक ने गायक मुकेश की इस तथा ऐसी ही कई अन्य विशेषताओं पर प्रकाश डाला हो। शंकर-जयकिशन प्रस्तुत गीत की शास्त्रियता एवं इसके उच्च सप्तक की आवश्यकता को ध्यान में रख कर राज कपूर के लिये इसे वो मन्ना डे से भी गवा सकते थे। ऐसे में गायक मुकेश का स्वर लेना शंकर-जयकिशन ने क्यों आवश्यक समझा? गीत के भाव पक्ष को सुर के संग सहज रूप से प्रेक्षेपित करने का कौशल सिने संगीत में गायक मुकेश से बढ़ कर कोई भी नहीं कर सकता है, यह सत्य तो भली-भाँति सभी जानते हैं पर एक अन्य कारक भी है जिस पर अभी तक किसी की भी दृष्टि क्यों नहीं गयी, यह स्वयं मेरे लिए भी कौतुहल का विषय है। शंकर-जयकिशन की इस अद्भुत संगीत रचना के माध्यम से मैं गायक मुकेश के उस विशिष्ट कौशल का परिचय भी आप सभी संगीत मनीषियों से करवा दूँ जो अभी तक अबूझ रही है। आपने शारीरिक सौष्ठव के प्रतिमान विश्व के ढेरों बलिष्ट व्यक्तित्वों का चित्र देखा होगा। उनमें विशेष रूप से पश्चिम जगत के व्यायाम करते हुये कई पहलवान (Body Builder) को डेढ़ सौ – दो सौ किलोग्राम तक का भार उठाते हुए आपने साक्षात अथवा चित्र में देखा होगा। आपमें से कइयों ने इन्हें भार उठाते हुए जब देखा होगा तब यह भी ध्यान दिया होगा की भार की अधिकता से उनके हस्त, ग्रीवा एवं मुख की माँसपेशियाँ इस प्रकार खिंची हुयी दिखती हैं मानो अत्यधिक भार के कारण माँसपेशियों पर अतिरिक्त बल पड़ रहा है। यह दृश्य स्वाभाविक रूप से यह दर्शाता है कि भार उठाने वाला व्यक्ति विशेष अपनी सम्पूर्ण शक्ति का संचयन कर भार उठा लेता तो है पर उसे उस भार को स्थिर रखने के लिए अपना जो अतिरिक्त बल लगाना पड़ रहा है उससे वह किसी भी पल अस्थिर हो कर डगमगा सकता है। इसके विपरीत आप उन बलशाली व्यक्तियों को देखें जो बालपन से ही नित अखाड़े की माटी में लोट-लोट कर पहलवानी करते हुए दण्ड-बैठक कर अपना शारीरिक बल किसी गज के समान पुष्टता के विशाल वैभव से परिपूर्ण करते हैं। इन्हीं में से कई ऐसे भी शूर वीर होते हैं जो अपने इस शारीरिक सौष्ठव को योग एवं प्राणायाम के द्वारा आन्तरिक शक्ति से अत्यधिक पुष्ट कर सहज रूप से अपने बल को समायोजित कर लेने में सिद्ध हस्त हो जाते हैं। श्री कृष्ण को गोवर्धन पर्वत तथा श्री हनुमान को संजीवनी के लिए सम्पूर्ण पहाड़ उठाते हुए जो भी चित्र आप और हम देखते हैं उन सभी में वे सहज दिखते हैं। मुख पर सौम्यता है, तेज का अपूर्व पुँज है, भार की अधिकता से विचलन का कोई भाव मुख अथवा नयन में परिलक्षित नहीं होता। यही वो आदर्श स्थिति है जो किसी सिद्ध व्यक्ति को असाधारण रूप से सामर्थ्यवान बनाती है। शंकर-जयकिशन द्वय में से शंकर एक कुशल पहलवान भी थे। उनका अपूर्व आत्मिक बल उनके सांगितिक सौष्ठव में स्पष्ट रूप से झलकता है। अब पुनः ‘आ अब लौट चलें’ के मुकेश गायन के विमर्श पर लौट चलते हैं। इस गीत के सभी अन्तरे को उच्च सप्तक पर गाते हुए गायक मुकेश जिस सहजता से गीत के प्रवाह को उसकी स्वाभाविक गति के संग वेगमयी धारा के सापेक्ष गीत के भाव को उसी तीव्रता से प्रक्षेपित करते हुए आगे बढ़ते हैं वह किसी भी स्थान पर न तो बोझिल लगता है और न ही कहीं ऐसा प्रतीत होता है मानों उन्हें इन सब को एक साथ साधने में किसी अतिरिक्त श्रम अथवा बल का प्रयोग करना पड़ रहा हो। यह गायन की वह आदर्श स्थिति है जिसे सिने गीत-संगीत में गायक मुकेश के अतिरिक्त अब तक कोई भी अन्य गायक-गायिका नहीं साध सका है। ‘ओ दुनियाँ के रखवाले’ गीत में जब मु. रफ़ी अन्तरे को गाते हुए उच्च सप्तक में प्रवेश करते हैं तो उनके स्वर की तीव्रता स्पष्ट रूप से उनके द्वारा अतिरिक्त श्रम का प्रयोग करती हुयी दृष्टिगोचर होती है। शंकर-जयकिशन की ही संगीत रचना में फ़िल्म ‘जंगली’ में ‘चाहे कोई मुझे जंगली कहे’ गीत गाते हुये रफ़ी इसके अन्तरे की अन्तिम दो पंक्तियों में गाते हुये जब स्वर को साधते हैं तो एक साथ उन्हें दो-तीन स्तर पर श्रम करते हुए स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। उच्च सप्तक पर स्वयं को बाँध कर रखने का श्रम, गीत की गति के संग उसके वेग को नियंत्रित करने का श्रम, वाद्य यन्त्रों के सापेक्ष स्वयं की वाणी को पुष्ट रखने का श्रम तथा अपनी ध्वनि को व्यापक करने की प्रक्रिया में उसके सुरीलेपन को यथावत बनाये रखने में किया जाने वाला संघर्ष मु. रफ़ी को गायन की उस आदर्श स्थित में स्वयं को स्थिर रखने में किये जाने वाले अतिरिक्त बल प्रयोग को स्पष्ट रूप से परिलक्षित करता है। इस गीत में शंकर-जयकिशन ने अपने चिर-परिचित संगीत कौशल से अन्तरे की उन पंक्तियों के समानान्तर अतिरिक्त सूक्ष्म वाद्य यन्त्रों को इतनी चतुराई से प्रयोग में लिया है कि वह गायक के इस अतिरिक्त श्रम को ढकने का प्रयास करती सी प्रतीत होती है। मध्य, उच्च अथवा तार सप्तक में गाते हुए गायक महेन्द्र कपूर अपनी वाणी के खरज तत्व को सुर की गति के संग जिस प्रकार बनाये रखते थे वह अनूठा ही कहा जायेगा। उनके गाये ढेरों गीतों के साथ ही शंकर-जयकिशन की संगीत रचना फ़िल्म ‘हरियाली और रास्ता’ के गीत ‘खो गया है मेरा प्यार’ में भी महेन्द्र कपूर की इस अनूठी प्रतिभा को अनुभूत किया जा सकता है। उच्च सप्तक में गाते हुये गायक का स्वर अतिरिक्त बल प्रयोग से जब बिखरने लगता है तब उसमें से सुरीलापन लुप्त हो कर वाणी ‘चीखने-चिल्लाने’ का दृश्य उत्पन्न कर जाती है जो संगीत की प्रचलित आदर्श स्थिति के सर्वथा प्रतिकूल कही जायेगी। गायक मुकेश उच्च सप्तक में गाते हुए भी इतने सहज लगते हैं कि श्रोताओं में यह भ्रम रह जाता है जैसे वे मध्य सप्तक में गा रहे हैं। ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि अपने स्वर को ऊँचाई पर ले जाते हुए मुकेश इतनी सहज गति से अपनी वाणी को प्रक्षेपित कर लेते थे कि उसमें बिना किसी अतिरिक्त श्रम अथवा बल का प्रयोग किए वे उसे प्रयुक्त संगीत के वेग में स्वाभाविक रूप से विलीन कर दिया करते थे। इस प्रक्रिया में उनकी वाणी का प्राकृतिक खरज जस का तस बना रहता है जो निःसन्देह किसी को भी अचम्भित करने को पर्याप्त है। मुकेश गायन की यह एक ऐसी विलक्षण विशेषता है जो अन्य गायक-गायिकाओं में अनुपलब्ध है। शंकर-जयकिशन का वाद्य संयोजन (Orchestra) नीचे के प्रत्येक सप्तक से क्रमशः ऊपर की ओर गतिमान होने के क्रम में जिस तीव्रता को पुष्ट करता हुआ आगे बढ़ता है वह किसी भी गायक-गायिका के लिए एक ऐसी चुनौती है जिसे वो ही सहज रूप से स्वीकार कर पाने में सक्षम हुए हैं जिनकी वाणी का खरज उच्च सप्तक में भी पुष्ट रहता है। निःसन्देह इस श्रेणी में गायक मुकेश के कण्ठ से निकली वाणी ही सिने गीत-संगीत के समस्त गायक-गायिकाओं में सर्वश्रेष्ठ है। मुकेश की यही श्रेष्ठता प्रस्तुत गीत में स्पष्ट रूप से दृश्यमान है। शंकर-जयकिशन के इस गीत को अथवा गायक मुकेश के संग उनके किसी भी अन्य गीत को आप पुनः सुन कर देखिए तो आपको मेरे इस वक्तव्य का प्रमाण स्वतः प्राप्त हो जायेगा। सैकड़ों की सँख्या में जब वाद्य यन्त्रों का प्रयोग हो रहा हो तो स्वाभाविक रूप से उसकी तीव्रता किसी भी अन्य स्वर पर स्वतः ही आच्छादित (Dominate) हो जायेगी। ऐसे में शंकर-जयकिशन को अनिवार्य रूप से मुकेश के अतिरिक्त अन्य समस्त गायक-गायिका के स्वर को वाद्य यन्त्रों की ध्वनि के सापेक्ष सन्तुलित करने हेतु आधारभूत अतिरिक्त सूक्ष्म उपकरण का प्रयोग करना पड़ता था। इस कार्य को वो इतनी निपुणता से करते थे कि गायक-गायिका की वाणी आवश्यक पुष्टता के संग प्रयुक्त वाद्य यन्त्रों की ध्वनि के समकक्ष बनी रहती थी। शमशाद बेग़म जैसी तीव्र एवं पुष्ट वाणी के समकक्ष लता मँगेशकर के कोमल स्वर को एक ही फ़िल्म में एक-दूजे के समकक्ष लाने का चमत्कारी कार्य करने वाले शंकर-जयकिशन ही थे। स्वयं लता मँगेशकर तथा जो समीक्षक एवं संगीत मनीषी अब तक सिने संगीत में लता की प्रारम्भिक सफलता का श्रेय स्वयं उनकी प्रतिभा को देते रहे हैं वो ये भली-भाँति मेरे इस उद्धरण से अपने आँकलन एवं विवेचना में यह संशोधन कर लें कि इस अभूतपूर्व सफलता का श्रेय पूर्ण रूप से संगीतकार शंकर-जयकिशन के संगीत संयोजन तथा उनके आधारभूत सन्तुलित ध्वनि संयोजन प्रक्रिया को ही जाता है। आप किस विचार में निमग्न हो गए? मुस्कुराइए, क्योंकि आप शंकर-जयकिशन के संगीत साम्राज्य में हैं। 


पुनः लौटते हैं ‘आ अब लौट चलें’ के संगीत संयोजन पर। इस गीत की समाप्ति पर मुकेश गायन की एक और सहज क्रिया आपका मन मोह लेती है। गीत के प्रारम्भ में मुखड़े को गाते हुए मुकेश ‘तुझको पुकारे, देश तेरा’ जिस प्रकार गाते हैं उसे पुनः गीत के समापन में गाते हुए वे ‘तुझको पुकारे’ एवं ‘देश तेरा’ के मध्य जिस प्रकार अपने स्वर में लोच उत्पन्न करते हैं वह इतना स्वाभाविक बन पड़ा है कि सुनने वाला अभिभूत हो जाता है। संगीत की भाषा में इस लोच को ही ‘मुरकी’ की संज्ञा दी जाती है। इसके परिणामी (समापन) संगीत (Conclude Music) में शंकर-जयकिशन एक और अभिनव प्रयोग करते हैं। गीत समाप्त होने के बाद के संगीत में जिस प्रकार वो वाद्य यन्त्रों को गीत के मूल सन्देश को अत्यधिक प्रभावी रूप से प्रक्षेपित करने का उपक्रम करते हुए मुकेश के स्वर में ‘आ अब लौट चलें’ को दो बार कम्पित अनुनाद के संग प्रयोग में लाते हैं वह उनकी स्वयं की विलक्षण रचनात्मकता के साथ ही गायक मुकेश की स्वाभाविक कलात्मक प्रस्तुति का भी भान कराती है। समूह स्वरों के पार्श्व में प्रबल वाद्य संयोजन से उभरता तरंगित ध्वनि मण्डल संगीत के पूर्ण रूप से विराम ले लेने के पश्चात् भी वातावरण में गुँजायमान रहता है। प्रसंगवश आपको यह जान कर सुखद आश्चर्य होगा कि गायक मुकेश का यही वह गीत है जिसे बारम्बार सुन-सुन कर गायक किशोर कुमार अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में अपने पैत्रिक निवास ‘खण्डवा’ में सदा के लिए बस जाने को आतुर थे। 
फ़िल्म में इस कालजयी गीत के जो दो अन्तरे हैं वही जन सामान्य के मध्य अभी तक सुने गये हैं। इस गीत का एक अन्तरा ‘जिस मिट्टी ने जनम दिया है, गोद खिलाया प्यार किया है’ को आप नीचे दिए गए सूत्र पर अन्य दो प्रचलित अन्तरों के साथ सुन सकते हैं। सुप्रसिद्ध संगीत साधक, गीत संग्रहकर्ता, वरिष्ठ लेखक एवं शोधकर्ता मित्र भाई कमल बेरिवाला ने लोकप्रिय कालजयी सिने गीतों की लड़ी में इस बार संगीत रसिकों के लिए ‘आ अब लौट चलें’ का सम्पूर्ण वैभव उसके मूल कृतित्व के साथ परोसा है। इस गीत का सम्पादन भी भाई कमल ने उसी गुणवत्ता के साथ किया है जिसके लिए यह गीत जाना जाता है। आगे भी भाई कमल बेरिवाला ऐसे ही विशेष गीतों की लड़ियाँ हम सब के लिए पिरोते रहेंगे और हम सब उनके संग्रह से सिने गीत-संगीत के अनमोल रत्न का श्रवण करते रहेंगे।
प्रस्तुत गीत आप निम्न लिंक पर सुन कर अपनी सारगर्भित प्रतिक्रिया से हमें अवश्य अवगत कराएँ। 
https://www.youtube.com/watch?v=Rh4iH0ZR6CE
डॉ. राजीव श्रीवास्तव 
*
आ अब लौट चलें
नैन बिछाए, बाँहें पसारे
तुझको पुकारे देश तेरा
आ अब लौट चलें ….
आ जा रे रे रे ssss ….
.
जिस मिट्टी ने जनम दिया है,
गोद खिलाया प्यार किया है
तू जिस माँ को भूल गया था 
आज उसी ने याद किया है 
आ अब लौट चलें ….
आ जा रे रे रे ssss ….

सहज है सीधी राह पे चलना
देख के उलझन बच के निकलना
कोई ये चाहे माने न माने
बहुत है मुश्क़िल गिर के सम्भलना
आ अब लौट चलें ….
आ जा रे रे रे ssss ….
.
आँख हमारी मंज़िल पर है
दिल में ख़ुशी की मस्त लहर है
लाख लुभाएँ महल पराए
अपना घर फिर अपना घर है
आ अब लौट चलें ….
ओ ओ ओ आ आ ssss
आ अब लौट चलें ….
.
गीतकार: शैलेन्द्र, संगीतकार: शंकर-जयकिशन, गायक: मुकेश
https://www.youtube.com/watch?v=Rh4iH0ZR6CE

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One thought on “गीत ‘आ अब लौट चलें’ की शब्द-सुर-स्वर के सापेक्ष साहित्यिक विवेचना”

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