बात तब की है जब मैं कक्षा सातवीं में अध्यनरत था। पिताजी को उपन्यास पढ़ने का शौक था और मुझे कॉमिक्स। कॉमिक्स की लत इतनी बुरी थी कि पाठ्यपुस्तकों के बीच में छुपा कर उन्हें पढ़ता था।मैंने कई बार कॉमिक्स  की लत के चक्कर में डाँट खाई।
एक बार उपन्यास पढ़ने का प्रयास किया पर घर  वालों ने डपटा की यह तुम्हारे लिए नही है, जाकर अपनी पढाई करो। 
अब बालपन का शैतानी दिमाग चलने लगा। आखिर ऐसा क्या है कि हम उपन्यास नही पढ़ सकते। चूंकि स्वभाव बचपन से ही जिद्दी रहा इसलिए मुंशी प्रेमचंद जी का उपन्यास “कर्मभूमि” मैंने पढ़ने की ठानी। उस वक़्त मैं अपनी अम्मा “दादी” के कमरे में सोया करता था। मैंने एक रात उस उपन्यास को अपने टी शर्ट में छुपा लिया और लेट गया। 
जैसे ही दादी सो गई। तब मैंने नाईट बल्ब की रौशनी में उस उपन्यास को पढ़ना शुरू किया। पढ़ना कठिन था क्योंकि नाईट बल्ब की रौशनी बहुत कम होती है। पर जो जिद्द थी उसे पूरा करना था। बालमन कहाँ आगे पीछे का कुछ सोचता है।
शुरुआत के पृष्ठों को पढ़कर अमरकांत और सलीम की गहरी मित्रता के बारे में पता चला। किस तरह एक मित्र ने दूसरे स्वाभिमानी मित्र की कालेज की फीस चुकाई। 
हां तब मैं बालक था पर यह मेरे लिए और रोचक होता गया। मैं जानना चाहता था कि यह कहानी कैसे आगे बढ़ती है। 
इस तरह मैंने 1 सप्ताह के अंदर ही वह उपन्यास खत्म किया, हालाँकि उपन्यास का अंत मुझे सही नही लगा। ऐसा प्रतीत हुआ कि मुंशी जी ने बहुत जल्दबाजी के चक्कर में उपन्यास का क्लाइमेक्स लिखा, अंत में सब मिल गए सब अच्छा हो गया। 
उसके 1 साल बाद मुझे एक और किताब ” कुत्ते की कहानी ” प्राप्त हुई । वह मुंशी जी का बाल साहित्य था। उसे पढ़कर मै बहुत अधिक प्रभावित हुआ। एक कुत्ते के जीवन का सारा तारतम्य बेहद गहराई और रोचकतापूर्ण तरीके से लिखा गया था। 
फिर मैंने टेलीविजन पर गुलज़ार साहब द्वारा निर्देशित “तहरीर” धारावाहिक में गोदान की प्रस्तुति देखी। 
यही वह धारावाहिक था जिसने मुझे पुनः प्रेमचंद जी के साहित्य की ओर पुनः मोड़ा। मेरे घर पर गोदान रखा हुआ था। पिता जी समय समय पर पढ़ते रहते थे। गर्मी की छुट्टियां जैसे ही प्रारम्भ हुई मैंने गोदान पढ़ना शुरू किया। घर वालो ने भी सोचा की चलो इसकी कॉमिक्स की लत तो खत्म हुई। इसे पढ़ने दिया जाए।
गोदान मैंने मुश्किल से 3 या 4 दिन में खत्म कर दिया। खाने के समय , खेलने के समय , सुबह,शाम हर वक़्त मैंने गोदान को पढ़ा । होरीराम और धनिया का किरदार मेरे मन मस्तिष्क में नृत्य करने लग गया। मुझे कभी गोबर का किरदार पसन्द आता कभी नफरत होती। मुझे होरीराम के किरदार पर भी रह रह कर गुस्सा आता तो कभी उसके प्रति अगाध प्रेम उमड़ पड़ता। धनिया का किरदार खूब पसंद आया। गोदान ने मेरे बालमन पर गहरा प्रभाव डाला जो आज तक मौजूद है। 
उसके बाद मैने पिताजी से कहकर प्रेमचंद जी की कहानियो की किताब खरीदी और साथ ही जयशंकर प्रसाद जी की भी कहानीयों की किताब खरीदी। प्रसाद जी को इसलिए क्योंकि “छोटा जादूगर” कहानी मुझे बहुत अच्छी लगी थी।
पर प्रसाद जी उस वक़्त मुझे समझ ही नही आये उनका लेखन समझ पाना मेरे लिए कठिन था। धीरे धीरे उनकी कहानियां अब समझ पा रहा हूँ।
प्रेमचंद जी मेरे बचपन के लेखक है। आज भी जब पंकज त्रिपाठी जी को देखता हूँ तो मुझे होरीराम याद आते हैं। गोदान ने ही मुझे मेरे घर गांव से जोड़े रखा। मैंने छुआछूत को नही माना जबकि हमारा पूरा परिवार इसे मानता था। मैंने किसी को छोटा नही समझा, सबके साथ उठता बैठता। मुझे मेरे आस पास ही कई होरीराम दिखे। कई धनिया और गोबर दिखे, मातादीन भी दिखे। गोदान के किरदार समाज में आज भी जीवित है किसी न किसी रूप में। 
मुंशी जी को मेरा नमन। उन्हें पढ़कर ही परिवर्तन आया। जो तकलीफें होरी और उसके परिवार ने भोगी उसका एहसास हुआ। लोग कहते है की मुंशी जी ने  सिर्फ समस्या और तकलीफें ही बताई, पर उनको पढ़कर ही निदान मिल जाता है। जब उस भयावह मंजर की तस्वीरों के बारे में हम सोचते है तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इंसान को इंसान समझा जाए और सामाजिक बुराइयों का अंत हो तभी मुंशी प्रेमचंद जी को सच्ची श्रद्धाजंलि मिल सकेगी।

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