लेखकीय दृष्टि यदि अपने युगीन सामाजिक ,राजनीतिक ,धार्मिक,आर्थिक ,सांस्कृतिक दबावों ,घात –प्रतिघातों ,सम्बंधों में आती जटिलताओं के बीच मनुष्य की संपूर्णता में आत्मसात करते हुए जनाभिमुख और जनहित में अभिव्यक्त होती है तो वह सदैव प्रासांगिक बनी रहती है और इस नजरिये से प्रेमचंद —कल ,आज और कल भी प्रासांगिक हैं| प्रेमचंद को जहां एक ओर इन सभी पक्षों के विगत और वर्तमान भूमिका ज्ञात थी ,वहीं इनसे जुड़े तमाम कारणों की भी समझ थी| वे इनके दूरगामी परिणामों से भी अवगत थे | वे दूरदर्शी थे | उनका एकमात्र ध्येय था –“समतामूलक समाज का निर्माण’’ (जहां जाति ,धर्म, अर्थ,भाषा ,लिंग ,वर्ग ,वर्ण ,रंग किसी भी स्तर पर विभेद न हो )

       प्रेमचंद हिंदी के सर्वाधिक लोकप्रिय और लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यकार हैं|इतिहास के जिस दौर में उन्होंने लिखना शुरू किया था, उनके सम्मुख दो महत्वपूर्ण चुनौतियां थीं —देश की स्वाधीनता और कथा-साहित्य के माध्यम से सामन्तवाद ,पूंजीवाद ,जमींदारी-प्रथा ,जाति-प्रथा और आर्थिक असमानता से जुड़े मुद्दों को उठाना ही नहीं ,वरन पाठक वर्ग के बीच एक वैचारिक समझ भी पैदा करना |

       “मेरे ख्याल में दुनिया में ऐसे कोई भी विचार नहीं हैं ,जिनका अस्तित्व मनुष्य की सीमाओं से बाहर हो |मैं यह मानता हूँ कि केवल मनुष्य ही सब वस्तुओं और सब विचारों का रचयिता है |चमत्कारों को पैदा करने वाला और सभी प्राकृतिक शक्तियों का भावी स्वामी भी वही है” ‘(निबन्ध –मैंने लिखना कैसे सीखा ?-मैक्सिक गोर्की ,ऑन आर्ट एंड लिटरेचर )—गोर्की से प्रभावित प्रेमचंद ९ अप्रैल १९३६ को प्रगतिशील लेखक संघ के माध्यम से कहते हैं “साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है ,उसका दर्जा इतना न गिराइए |वह देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं ,बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुयी चलने वाली सच्चाई है”

      प्रेमचंद साहित्य को सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन का सशक्त माध्यम मानते थे |अपने अंतिम अपूर्ण उपन्यास ‘मंगलसूत्र ‘में सशस्त्र क्रान्ति का पक्ष लेते हुए लिखते हैं –“दरिंदों के बीच उनसे लड़ने के लिए हथियार बांधना पड़ेगा |उनके पंजों का शिकार बनना देवतापन नहीं जड़ता है” ‘(मंगलसूत्र-प्रेमचंद ,पृष्ठ -१४६ )

        सन् १९३० में ‘विशाल भारत ‘में प्रकाशित अपने वक्तव्य में कहते हैं “मेरी अभिलाषाएं बहुत सीमित हैं |इस समय सबसे बड़ी अभिलाषा यही है कि हम अपने स्वतंत्रता संग्राम में सफल हों — —-  —हाँ ,यह जरुर चाहता हूँ की दो –चार उच्च कोटि की रचनाएं छोड़ जाऊं ,लेकिन उनका उद्देश्य भी स्वतंत्रता प्राप्ति ही है” __यह सोच और समझ किसी काल विशेष ,देश विशेष या परिस्थिति विशेष तक सीमित नहीं थी ,बल्कि ऐसी कोई रूढिगत परम्पराएं और बेड़ियाँ —चाहें वह व्यक्तिक ,सामाजिक ,मानसिक ,राजनीतिक ,आर्थिक ,धार्मिक हों —यदि विकास में बाधक हैं तो उनके विरुद्ध सतत संघर्ष करना ___और यह वर्तमान में हो भी रहा है |तभी तो जनपक्षधर दृष्टि से जुड़े तमाम साहित्यकार भविष्य की नई संभावनाओं के साथ निरंतर श्रमरत हैं |वर्तमान में उठ रहे चाहें जिन विमर्शों की बात हम कर रहे हैं,उनके बीज प्रेमचंद के साहित्य में देखने को हमें मिल जायेंगे |

       प्रेमचंद ने प्रगितिशील लेखक संघ के मंच से कहा था कि  —“सौंदर्य की परम्परागत मान्यताओं को बदलना होगा” ____और यह दिखता है,वर्तमान के जनपक्षधर  कथाकार संजीव में ,उनकी कहानी ‘दुनिया की सबसे हसीन औरत’ रूप ,रंग ,वर्ण ,उम्र ,यौवन ,इन सबसे अलग सौन्दर्य का प्रतिमान स्थापित करता है लेखक कि —जिस स्त्री में संघर्ष करने की क्षमता है ,वह है दुनिया की सबसे हसीन औरत |यह केवल संजीव में है ,ऐसा नहीं बल्कि तमाम जनपक्षधर साहित्यकारों की समझ है |

       प्रेमचंद की लेखकीय दृष्टि के संदर्भ में नौबतराय ने लिखा है “प्रेमचंद ने सोशल रिफोर्म को विशेष महत्व दिया है| प्रेमचंद के लिए ‘समस्या का चित्रण’ प्रधान है न कि  उसे प्राप्त करने के लिए प्रयुक्त विधा |” हिंदी कथा-साहित्य में जनवादी दृष्टि प्रेमचंद से शुरू होकर आठवें –नवें दशक तक आते-आते जनांदोलन और जनसंघर्ष के साथ एकात्म हो जाती है |चूँकि पाश्चात्य संस्कृति अर्थकेंद्रित रही है ,जो मनुष्य को प्रकृति से दूर कृत्रिमता और भोग –विलास की ओर ले जाती है ,इसलिए प्रेमचंद ने इस विचारधारा का विरोध तो किया है ,तथापि पाश्चात्य ज्ञान –विज्ञान की उपलब्धियों को सहज स्वीकार भी किया है |अंततोगत्वा प्रेमचंद तद्युगीन समाज के अंधेरों से आजीवन लड़ते रहे क्योंकि वे भारतीय समाज के ऊर्जाघरों से वाकिफ थे| आज जनप्रतिबद्ध प्रत्येक साहित्यकार के लिए प्रेमचंद प्रेरणास्त्रोत हैं| साहित्यकार ,पाठक वर्ग ,और यह समाज उनके दाय को कदापि भूल नहीं सकता |

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