कला केवल यथार्थ की नक़ल का नाम नहीं है

कला दिखती तो यथार्थ है, पर यथार्थ होती नहीं

उसकी खूबी यही है की यथार्थ मालूम हो……मुंशी प्रेमचंद

            बीसवीं शती के संवेदनशील रचनाकार उर्दू से हिंदी भाषा में लिखने वाले महान और उपन्यास सम्राट प्रेमचंद (असली नाम धनपत राय श्रीवास्तव)  का जन्म 31 जुलाई 1880 में लमही नमक जगह पर हुआ था। 15 उपन्यास और 300 से अधिक कहानी लिखने वाले इस लेखक ने तिलिस्म और जादूगरी से बाहर निकाल कर आम आदमी की घुटन, चुभन और कशक जैसी भावनाओं को अपनी कहानियों के माध्यम से प्रतिबिंबित किया। इनकी रचनाओं में भारत के चिंतन और आदर्श का भी वर्णन मिलता है।

            आदर्शवाद से यथार्थवाद और यथार्थवाद भी ऐसा, जिसने सामाजिक परिस्थितियों पर सीधे ध्यान आकर्षित किया। और महसूस कराया की कर्तव्य ही ऐसा आदर्श है, जो कभी धोखा नहीं देता। समाज में व्याप्त बहुत-सी बुराइयों को अपनी लेखनी से हर वर्ग को अवगत कराया। बूढ़ी काकी, नमक का दारोगा, कफ़न, पूस की रात, ईदगाह, गोदान, गबन, सेवासदन, सद्गति और निर्मला इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं। जो हमेशा ही प्रासंगिक रहीं हैं। यह उनकी प्रगतिशील सोच का परिणाम है, जो सौ साल पहले ही मिस पद्मा द्वारा आजाद ख़यालों वाली महिला को अपने से ज्यादा उम्र के पुरुष के साथ लिव इन रिलेशन में दिखाया।  

            आज जमाने में इनकी पहचान बेशक धूमिल सी हो लेकिन जमाना पत्रिका में सोज़-ए-वतन नमक कहानी से इन्हें पहचान मिली। उस समय आजाद भारत के ख़्वाब लिए लिखी गयी इस रचना ने अंग्रेजों के होश उड़ा दिए और इस पत्रिका को जला दिया गया साथ इनके स्वतंत्र रूप से लिखने पर पाबंदी लगा दी गई। इस घटना के बाद ही  इन्हों ने अपना नाम प्रेमचंद रख लिया।  इसके बाद मर्यादा, माधुरी, सरस्वती आदि पत्रिकाओं के लिए खूब कहानियाँ लिखते रहे।

            प्रेमचंद की लगभग सभी पुस्तकों का उर्दू और अंग्रेजी के साथ-साथ कई भाषाओं में अनुवाद किया जा चुका है। इनकी तुलना चेखव, टोल्स्तोय जैसे महान लेखकों के साथ की जाती है। चीन और रूस जैसे देशों में भी प्रेमचंद लोकप्रिय हैं।

            1934 में प्रेमचंद हिंदी फिल्मों के लिए कहानियाँ लिखने मुंबई चले गए। यहाँ अजंता सिनेटोंन प्रॉडक्शन के लिए एक कहानी मजदूर कहानी लिखी, जिसमें शोषित मजदूरों की समस्याओं को प्रभावी रूप से उजागर किया। लेकिन कुछ लोगों ने इसे रिलीस होने ही नहीं दिया। अन्य दूसरे शहरों में भी इसे बंद कर दिया गया। इससे प्रेमचंद बहुत निराश हुए और वापस इलाहबाद चले आए। बाद में सत्यजित रे द्वारा निर्देशित फिल्म शतरंज के खिलाड़ी को पर्दे पर सफलता भी मिली। हिंदी में सहज उर्दू जुबान के कारण ही पिछले सो वर्षों में करोड़ो का कारोबार करने वाली इनकी कहानियों पर आधारित फिल्में बनती रहीं हैं। लेखक और निर्देशक गुलजार साहब ने भी प्रेमचंद की कहानियों का फिल्मीकरण किया। जिन्हें दूरदर्शन पर तहरीर नामक धारावाहिक के रूप में प्रदर्शित किया गया है।

            मुंशी प्रेमचंद के पास कहने को तो बहुत कुछ था पर वक्त नहीं था। 8 अक्तूबर 1936 को कुछ अधूरे काम या यूं कहें की प्रतिकूल परिस्थितियों या समय के अभाव में जो कार्य वह खुद पूरे नहीं कर पाए उनकी ज़िम्मेदारी आने वाली पीड़ी को सोंपते हुए दुनिया को आलविदा कह गए।

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