हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श के अंतर्गत समय–समय पर स्त्री जीवन की नई समस्याओं और नए मुद्दों पर तार्किक ढंग से चर्चा की जा रही है। साहित्य की अन्य विधाओं में जहाँ लेखक इन परिवर्तनों को आत्मसात कर प्रवक्ता के रूप में व्यक्त करता है वहीं आत्मकथा साहित्य की एक ऐसी विधा है जिसमें लेखक अपने अनुभवों को यथार्थ रूप में व्यक्त किया जाता है। महिला आत्मकथाकारों द्वारा लिखी गई आत्मकथाओं में पितृसत्ता का दमनकारी स्वरुप विभिन्न स्तरों पर नज़र आता है।

आत्मकथा लिखने के लिए जो निर्भीकता, साहस व सच लिखने की हिम्मत चाहिए होती है वो, कुछ अपवादों को छोड़ कर, पुरुष आत्मकथाओं में कम ही मिलती है। महिला रचनाकारों ने आत्मकथाओं में जीवन कथा के साथ अपने मानसिक द्वंद्वों, समाज के कुरूप चेहरों, स्त्री की सामाजिक स्थिति, उसके लिए समाज के दोहरे मानदंडों, परिवार का विरोध व उनके द्वारा दिए कष्टों तथा पितृसत्तात्मक व्यवस्था में ‘बोल्ड नेस’ होने पर उसके चरित्र के प्रति नकारात्मक सोच को उजागर किया है। महिला आत्मकथाकार अपने परिवेश से ज़्यादा संवेदनशील रूप में जुड़ी रही हैं।

साहित्य में स्त्री की छवि लम्बे समय तक ‘नायिका’ या ‘देवी’ के रूप में रही है। कवियों द्वारा स्त्री के नख–शिख वर्णन तथा उसकी भाव-भंगिमाओं का रसपूर्ण वर्णन काफी समय तक काव्यरस का केंद्र रहा। प्रेम आख्यानकों  में भी नायिका के सौन्दर्य व यौवन तथा देह व अंगों-उपंगों का वर्णन होता रहा। धार्मिक रचनाओं में स्त्री के देवी स्वरूप को पूजा गया। उसे सीता की तरह त्याग, गरिमा, ममता आदि की मूर्ति माना गया। कहीं–कहीं उसके स्त्रीत्व को दुत्कारा भी गया। किन्तु यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है कि इस समय तक कोई महिला साहित्यकार सामने नहीं आई। काव्यों में स्त्री के इन स्वरूपों की रचना पुरुषों की मानसिकता के अनुरूप की गई। उन्नीसवीं सदी के बाद जब सुधारवादी आन्दोलन चलाए गए तब धीरे–धीरे लेखकों ने स्त्री उत्थान के नाम पर स्त्रियों के लिए उपदेशात्मक लेखन कार्य किया। महिला लेखिकाओं ने उपन्यास और आत्मकथा के माध्यम से स्त्री की समर्पण से भरी, दया, ममतामयी और त्याग करने वाली छवि को तोड़ा। उन्होनें अपना ‘भोगा हुआ यथार्थ’ व्यक्त करके समाज को उसका कुरूप चेहरा दिखाया।

महिला आत्मकथाकारों ने निर्भीक होकर साहसिकता का परिचय देते हुए अपने जीवनानुभवों के साथ अपने जीवन के उन पक्षों पर भी प्रकाश डाला जो पहले केवल पुरुष दृष्टि से पुरुषों द्वारा लिखे गए थे। महिला लेखिकाओं ने सच्चाई बयान करते हुए अपने विवाहेत्तर संबंधों, सामाजिक शोषण की परिस्थितियों, से इतर यौन संबंधो पर खुलकर लिखा है। कई आत्मकथा लेखिकाओं कमला दास, अमृता प्रीतम, मैत्रयी पुष्पा, रमणिका गुप्ता तथा तसलीमा नसरीन आदि ने अपनी आत्मकथाओं में जीवन का सत्य लिखने में पारदर्शिता बरती। किन्तु समाज ने इन्हें अश्लील व असाहित्यिक कहकर ख़ारिज करने का प्रयास किया।

महिला आत्मकथाकारों की आत्मकथाओं में अभिव्यक्ति के विभिन्न रूप मिलते हैं। कुछ महिला आत्मकथाकार पुरानी परम्पराओं, संस्कारों से बंधी हुई अपने शोषण के खिलाफ कोई आवाज़ नहीं उठाती जैसे– कुसुम अंसल, कौशल्या बैसंती आदि। मैत्रेयी पुष्पा संस्कारों से अलग अपनी राह स्वयं बनाने वाली स्त्री हैं। उन्होंने अपने मन की उधेड़बुन की अवस्थाओं व समाज से टकराव की स्थितियों का चित्रण किया है। कुछ आत्मकथाकार पति-पत्नी और वो के त्रिकोण में फँसकर जीवन व्यतीत कर देती हैं जैसे मन्नू भण्डारी। किसी ने सिर्फ अपनी और अपने इर्द-गिर्द जीवंत पात्रों से प्राप्त अनुभव को निजी दुःख को ही शब्द दिये हैं जैसे कुसुम अंसल और कृष्ण अग्निहोत्री।

रमणिका गुप्ता जी की आत्मकथा ‘हादसे’ उस समय की स्त्री की कथा है जब समाज में स्त्री स्वतंत्रत नया भाव बोध था। समाज में केवल उच्च और शिक्षित घरों की स्त्रियों को घर के बाहर निर्णय की आज़ादी होती थी। स्वतंत्रता के बाद पचास से अस्सी के दशक में स्त्री की पुरुष के बराबर आज़ादी जोखिम या उच्श्रृंख्लता की श्रेणी में रखी जाती थी। उस समय स्त्रियों के लिए जिस तरह के उपदेशात्मक साहित्य की रचना हो रही थी (हिंदी साहित्य का दिवेदी युग) उससे तो यही पता चलता है कि स्त्री को समाज में कुछ सीमाओं के साथ ही छूट दी गई थी। अब प्रश्न यह है कि क्या स्त्री अपने भीतर पीढ़ियों से चली आ रही पितृसत्तात्मक सोच से ग्रसित खुद इस सशर्त छूट को पाना चाहती थी। ऐसी बेहद कम ही स्त्रियाँ रही होंगी। वास्तव में उन दशकों में समाज स्त्री मुक्ति के विचारों से परिचित तो हो गया किन्तु उसे व्यावहारिक रूप में ग्रहण नहीं कर पाया। यह केवल बौद्धिक स्तरों पर चेतना और कल्पना तक सीमित रह गया।

अपनी आत्मकथा ‘हादसे’ में रमणिका गुप्ता ने केवल निजी यथार्थ को ही नहीं प्रस्तुत किया है अपितु वर्तमान युग के सच को भी प्रकट किया है। स्पष्ट है कि स्त्री के जीवन में ‘हादसे’ उसके समाज के परम्परागत स्त्री व्यक्तित्व से हटकर चलने के कारण समाज द्वारा ही उत्पन्न की गई कठिनाइयां  ही हैं। स्त्री का समष्टि रूप अर्थात् नेत्री या नायक रूप पुरुष को स्वाभाविक रूप से सहनीय नहीं होता। ज़ाहिर है पुरुष सत्तात्मक मानसिकता इसे स्वीकार नहीं कर पाती कि एक स्त्री द्वारा धीरोदात्त, पराक्रमी और वीर गुणों का वरण कर उसके पुरुषत्व को चुनौती दी जाये। रमणिका स्वतंत्रता, समानता और वैयक्तिक संप्रभुता को स्त्री–पुरुष के खेमे में न बांटकर मानव मात्र के लिए आवश्यक मानती हैं। यह स्त्री के पारंपरिक क्षेत्र से हटकर स्त्री विमर्श को उन क्षेत्रों में खोजने का प्रयास है जहाँ अधिकतर पुरुषों का आधिपत्य रहा है। भारत में 70 से लेकर 90 दशक तक स्त्रियों की दशा जानने के लिए भी हादसे को पढ़ा जाना चाहिए। ट्रेड यूनियन तथा राजनीति में स्त्रियों के प्रवेश और फिर वहां स्थिर रहने के लिए सामने आई समस्याओं और उनसे संघर्ष को स्त्री मुक्ति के परिप्रेक्ष्य में खोजने में उनकी आत्मकथा सहायक है।

‘हादसे’ को जब एक साधारण पाठक पढ़ता है तो उसमें उसे एक ऐसी जुझारू स्त्री की छवि नज़र आती है जो अन्याय के विरुद्ध संघर्ष के लिए हमेशा तैयार रहती है। उसमें आन्दोलन करके दूसरों के लिए न्याय मांगने, जोखिम उठाने, जान की बाजी लगाने, दबे–कुचले गरीब आदिवासियों के हक़ के लिए निः स्वार्थ होकर सरकार, पूंजीपति अथवा पहलवानों तक से लड़ने का साहस है। रमणिका गुप्ता ऐसा अनूठा व्यक्तित्व है जो आज के इक्कीसवीं सदी के भारत की स्त्रियों को मिली मुक्ति को साठवें दशक से जीती आई है। पुरुषों और स्त्रियों के लिए एक इन्सान के स्तर पर समान अधिकार व निर्णय की स्वतंत्रता की सोच रखने और उसे अपने जीवन में जीने वाली महिला के रूप में हम उन्हें देखते हैं।

किसी स्त्री का तत्कालीन संयुक्त बिहार की कोयला खदानों में यूनियन के क्षेत्र में नेतृत्त्व करना या कार्य करना ‘असंभव’ माना जाता था। रमणिका जानती थी कि यूनियन बनाने का अर्थ है – ठेकेदारों और सरकार की संगठित हिंसा का सीधे रूप से टकराव।कोयला खदानों में सरकार की मिलीभगत से माफिया का राज चलता है। उनकी नीतियों नियमों का विरोध करने वाले व्यक्ति के लिए वे साम–दाम –दंड–भेद की नीति अपनाते थे। उन्हें सरकारी नियमों के अनुसार चलने के लिए कहने वालों को वे उस क्षेत्र से डरा कर भगा देते थे या कई बार जान से मार देते थे। रमणिका इन जोखिमों से कभी भयभीत नहीं हुई। उन्होंने कोल माफिया की सभी रणनीतियों को सीखकर यूनियन के साथ उनसे लड़ने की तैयारी की। उन्होंने मजदूरों को अहिंसापूर्वक प्रदर्शन और हड़तालें करना सिखाया।

रमणिका ने किसी राजनैतिक पृष्ठभूमि से या किसी रिश्ते के गठजोड़ से राजनीति में प्रवेश नहीं किया था। उन्होंने सबसे निचली इकाई से शुरू कर अनेक हादसों को पार करते हुए विधान सभा के नेता स्तर तक का सफ़र तय किया था। जब एक स्त्री पितृसतात्मक व्यवस्था वाली राजनीति में प्रवेश करती है , तब रमणिका जी अपना अनुभव बताते हुए कहती हैं – “पुरुष के मुकाबले में कोई पुरुष हो तो उन्हें अपनी क्षमता व इससे का फर्क उन्नीस या बीस ही नजर आता है लेकिन अगर औरत, तो चाहे बिना चाहे वह हीन-भावना से दब जाती है और उसे अपनी तुलना में वह औरत बीस लगने लगती है”।

अपनी आत्मकथा के माध्यम से उन्होंने बिहार-झारखण्ड क्षेत्र की कोयला खदानों में कार्यरत आदिवासी किसानों, मजदूरों के जीवन, संस्कृति, मनोविज्ञान, शक्ति तथा समस्याओं को उजागर किया है। समाज की मुख्य धारा से अलग रहने वाले इन लोगों के सामाजिक– सांस्कृतिक परिवेश को उन्होंने करीब से देखा। जंगल और कृषि पर पड़ने वाले औद्योगिक विकास के असर की समीक्षा भी उन्होंने इस रचना में की है। पूंजीपतियों की सरकार के सहयोग से चले वाली पर्यावरणीय और मानवीय दोहन की नीतियों पर उन्होंने दृष्टिपात किया है। रमणिका अपने अस्तित्व को आदिवासियों, मजदूरों को अस्मिता बोध करवाने और संघर्षशील बनाने से जोड़कर देखती हैं।

एक स्त्री के रूप में उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में कार्य किए और अपनी शर्तों पर जीने का संघर्ष किया। यह संघर्ष पारिवारिक, कोयला खदानों की ट्रेड यूनियन और राजनीतिक स्तरों  पर सर्वत्र व्याप्त है। ये ही समस्याएं उत्पन्न करते हैं और एक स्त्री के विकास के मार्ग में बाधा पहुंचाते हैं। पुरुषों के समान अधिकार पाने और निर्णय का अधिकार अपने पास रखने की उनकी जिद्द उन्हें जुझारू बनाती है ।

परिवार में उन्होंने ‘अपने होने या न होने’ को लेकर किए गए विद्रोह, हीन भावना की ग्रंथि तथा अपने निजी रिश्तों के कई खुलासे किए हैं जिसे एक स्त्री का पुरुष सत्ता के प्रति दुस्साहस कहा जा सकता है। अपने निजी जीवन के साथ वे समाज में विद्यमान सामाजिक, जातिगत, राजनैतिक तथा आर्थिक समस्याओं पर भी दृष्टिपात करती हैं। यह उनके व्यक्तित्व की संवेदनशीलता और जागरूकता की ओर संकेत करता है।यह अपनी भगौलिकता और समय के अनुसार भी महत्वपूर्ण कृति है। स्त्री विमर्श से जुड़े मसलों को अपनी आत्मकथा में अपनी सूक्ष्म दृष्टि से उन्होंने व्यक्त किया है।

इस आत्मकथा ‘हादसे’ में वैयक्तिक विवरण कम सामाजिक, राजनीतिक विवरण अधिक है। इसकी शैली संस्मरण और डायरी का मिला-जुला रूप है। एक कल्पनाशील कवियित्री, लेखिका होने के कारण इस आत्मकथा को और अधिक रचनात्मक बनाया जा सकता था। साहित्यिक स्तर पर भाषा में प्रौढ़ता की कमी का आभास होता है। फिर भी उनके जीवन के समान इसकी भाषा विषम है जो उनकी स्पष्टवादिता का पर्याय कही जा सकती है। यह उनकी अपनी शैली है। अपने भाषणों में जहाँ वे गंभीर हैं वहीं धमकाने वाले ठेकेदारों से व्यंग्य भरी भाषा में संवाद करती हैं। अन्य स्त्री आत्मकथाओं में निरंतर अनुरोध की भाषा पाई जाती है जिसकी तुलना में इस आत्मकथा में चुनौती की भाषा अधिक है।ऐसी अहम् केन्द्रित भाषा पुरुषों की आत्मकथाओं में अधिक पढ़ने को मिलती है।

निष्कर्ष रूप में यह आत्मकथा स्त्री विमर्श के अंतर्गत स्त्री सशक्तिकरण को मुख्य रूप से प्रस्तुत करती है। पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था में स्त्री का अपनी अस्मिता के प्रति जागरूक होने तथा अपना ही निर्णय का अधिकार अपने पास रखने का प्रयास एक विद्रोही कदम माना जाता है। सत्तर के दशक से लेकर वर्तमान समय तक स्त्रियों की स्थिति कमोबेश वही है। स्त्रियाँ परम्पराओं रूढ़ियों के साथ बंधी हैं। अपनी अस्मिता का बोध उन्हें नहीं है अथवा वे संघर्ष करने के लिए थेथर नहीं बन पातीं। आधुनिक समय में स्त्री सशक्तिकरण की वे एक जीवंत मिसाल हैं।

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