19 सितंबर 2008 में दिल्ली के ओखला इलाके में बाटला हाउस मकान नंबर L-18 में हुए एनकाउंटर की घटना की अनकही अनछुई स्टोरी से रूबरू कराती है ये फिल्म। जहां एक ओर दिल्ली पुलिस की अपनी सच्चाई है तो वहीं दूसरी ओर मासूम से दिखने वाले छात्रों के रूप में छिपे आतंकवादी संगठन इंडियन मुज़ाहिद्दीन के गुर्गों की झूठी कहानी। दिल्ली पुलिस की स्पेशल टीम को जब पता चलता है कि बाटला हाउस में इंडियन मुज़ाहिद्दीन के पाँच आतंकवादी छिपे हैं, जिनके तार 13 सितंबर 2008 में दिल्ली में हुए सीरियल बॉम्ब ब्लास्ट से जुड़े हैं तो उन्हें पकड़ने के लिए वे निकल पड़ते हैं। जहां उनका मकसद केवल उन्हें जिंदा पकड़ना था। जिससे वे और भी अधिक जानकारी उनके संगठन की गतिविधियों की ले सकें। किंतु वहां पर जाने के बाद स्थितियाँ कुछ और ही हो जाती हैं। आतंकवादियों को इस घटना की भनक लग जाती है और वे ताबड़तोड़ फ़ायरिंग शुरू कर देते हैं। जवाब में दिल्ली पुलिस को भी अपने सेल्फ डिफेंस में गोलियां चलानी पड़ जाती है। इस घटना में दो आतंकवादी पकड़े जाते है, दो मारे जाते हैं और एक भागने में कामयाब हो जाता है। इसी दौरान ही दिल्ली पुलिस के एक इंस्पेक्टर की भी मौत हो जाती है। बात यहीं खत्म नहीं होती बल्कि यहीं से शुरू होती है। राजनीति चमकाने के चक्कर में कुछ राजनेता इसे फर्जी इनकाउंटर करार देते हैं तो वहीं मीडिया का एक वर्ग अपने टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में पकड़े व मारे गए आतंकियों को मासूम छात्र बताकर उनके साथ हो रही नाइंसाफ़ी का राग अलापने लगते हैं। इससे समाज में बड़ी उहापोह की स्थिति बनने लगती है। राजनीतिक दबाव और गलत तरीके से पेश की जा रही कुछ मीडिया रिपोर्टों से पुलिस की छवि नकारात्मक होती जा रही थी। जिससे सबसे बड़ा नुकसान डीसीपी संजय कुमार यानि की जॉन अब्राहम को होता है। असलियत में उनका यह किरदार तात्कालीन डीसीपी संजीव कुमार यादव से प्रेरित है। ड्यूटी पर अपने काम को बड़े ही तल्लीनता से करने व अपनी जान जोखिम में डालने के बावजूद उन्हें हर तरफ से मानसिक यातना ही मिलती है। जिससे उनके मन में अंतर्द्वंद की स्थिति बन जाती है। बात यहाँ तक पहुँच जाती है कि वे खुद को गोली मारना चाहते हैं। पुलिस वालों की लाईफ कितनी कठिन और विषम स्थितियों से होकर गुजरती है, इसका बेहतरीन उदाहरण हमें यहाँ देखने को मिलता है। शुरुआती क्षण से लेकर फ़िल्म के अंत तक यह फ़िल्म दर्शकों को बांधकर रखती है। दर्शक फ़िल्म की घटनाओं में कब, क्यों और कैसे की तलाश में खोया रहता है। पूरे फ़िल्म का सार कोर्ट में जॉन अब्राहम का बेहतरीन संवाद है। जहां फ़िल्म का अंत होता है। जो इस्लाम धर्म के सही मायनों को समझाने के साथ बड़ा संदेश देती है। किस तरह से युवा ज़िहाद के नाम पर भटकाये जाते है, इसका जिक्र है। इसमें कहीं भी मुसलमानों की छवि खराब करने की कोशिश नहीं की गई है। बल्कि फ़िल्म के माध्यम से क़ुरान के आयतों का सही व सटीक मतलब बड़े ही खूबसूरती के साथ बतलाया गया है। फ़िल्म के निर्देशक निखिल आडवाणी ने अपनी पिछली हिट फिल्म ‘डी डे’ की तरह ही इस फ़िल्म में अपनी विशेष छाप छोड़ी है। विवादित मुद्दे की इस फ़िल्म को बेहद संजीदगी से फिल्माया है। रील को रियल लाइफ से जोड़ने के लिए तात्कालीन नेताओं दिग्विजय सिंह, अरविंद केजरीवाल, अमर सिंह, सलमान खुर्शीद और लालकृष्ण आडवाणी के बयानों को दर्शाया गया है। लोकेशन के लिए बाटला हाउस के घटना स्थल जैसी तंग गलियों को वास्तविक दिखाने की पूरी कोशिश की गई है। गीत-संगीत तो कामचलाऊ है। मगर लटके झटके पसंद करने वालों के लिए ‘दिलबर दिलबर’ सांग से फेमस हुई ‘नोरा फतेही’ का ‘ओ साकी साकी’ आयटम सांग है। जो फ़िल्म के बाकी अन्य गानों की भरपाई करता नजर आता है। फ़िल्म के संवाद तो नहीं मगर उसकी अदायगी और सिचुएशन कमाल की है। डीसीपी संजय कुमार की पत्नी के रूप में मृणाल ठाकुर और मारे गए पुलिस ऑफिसर की भूमिका में रवि किशन का रोल मुख्य है। अन्य भूमिकाओं में नोरा फतेही, क्रांति प्रकाश झा, राजेश शर्मा, आलोक पांडे आदि हैं। सबने अपने-अपने रोल को अच्छे तरीके से निभाया है। इन सबमें तुफ़ैल का किरदार दमदार है। जिसे आलोक पांडे ने बखूबी निभाया है। जॉन अब्राहम के साथ उनके संवाद फिल्म की जान है। आलोक इस दृश्य में अपनी अलग छाप छोडते नज़र आते हैं। सच्ची घटनाओं पर जॉन अब्राहम इन दिनों काफी फिल्में बना रहे हैं। ‘मद्रास कैफे’, ‘परमाणु’, ‘रोमियो अकबर वाल्टर’ की सीरीज में ये उनकी अगली पेशकश है। कुल मिलाकर कहा जाय तो एक्शन, थ्रिलर, सस्पेंस और रोमांच से भरी इस फ़िल्म में एनकाउंटर के बाद पुलिसवाले और उनके घरवालों की क्या मनः स्थिति होती है, उससे हमें जोड़ने का सफल प्रयास किया है। मेरी ओर से इस फ़िल्म को 5 में से 4 स्टार मिलेंगे और हां फ़िल्म ज़रूर देखें क्योंकि सभी पुलिस वाले एक जैसे नहीं होते।
इतनी बेहतर समीक्षा के लिए धन्यवाद। फिल्म को देखने की उत्सुकता बढ़ गई है। गुड जॉब।
शुक्रिया ऋतु …
सच्ची घटना पर आधारित फ़िल्म बाटला हाउस के विभिन्न पक्षों की चर्चा करते हुए इसकी बारिकियों को भी उजागर किया है। इस बेहतरीन समीक्षा के लिए धन्यवाद।
शुक्रिया भाई…