जातिवादी विमर्श की शुरुआत आदिकाल से ही है, भक्तिकाल में इस पर जमकर प्रहार हुआ,रीतिकाल में जातिवादी विमर्श पर कुछ भी नहीं दिखलाई पड़ता है। आधुनिक काल तथा स्वतंत्रता आंदोलन के समय यह जातिवादी विमर्श, अंग्रेजों के लिए एक बहुत बड़ा हथियार था,साथ ही धार्मिक भेद भाव है।
अंबेडकर का आगमन से यह समनाधिकार की लड़ाई में बदला।समाज में वंचित,शोषित, हाशिए पर, दमित लोगों को अपने अधिकार के लिए लड़ने का, जागरुक होने का बल मिला। लेकिन बाद में यह विमर्श जातिवाद का प्रबल रक्षक ही नहीं संरक्षक भी बनता गया।
सरहपा,लुइपा,गोरगनाथ,मत्स्येन्द्रनाथ आदि के रचनाओं में जाति व्यवस्था पर प्रहार दिखलाई देती है।लेकिन वह समाज को मानसिक रुप से झकझोरने में सफलता नहीं प्राप्त कर सकी।जाति विमर्श पर बात करने से पहले यह जानना बहुत जरूरी है कि जाति की अवधारणा क्या है?खासकर जाति शब्द का प्रयोग नस्ल,कौम,बिरादरी या पेशेवर समुदाय के लिए होता है।हिंदी में जाति विमर्श का मतलब है वर्ण या बिरादरी व्यवस्था पर विचार करना।
‘वर्ण ‘ का सबसे पहला उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है।लेकिन वहाँ पर पहले तीन वर्णों का ही उल्लेख है-ब्राहम्ण,राजन्य और विश अर्थात वैश्य।ऋग्वेद के आखिरी हिस्से ‘पुरुष सुक्त’ के एक श्लोक में चार वर्णों का जिक्र है।
वर्ण शब्द का शाब्दिक अर्थ है रंग।तो क्या इसका आधार हम गोरे एवं काले के आधार पर या आर्य एवं अनार्य के आधार पर बहस करे।वर्ण पर माता पच्ची करने वालों में प्रो.रामशरण शर्मा,दामोदर तथा रामविलास शर्मा आदि का नाम प्रथम पंक्ती में आता है।
भक्तिकाल में संत कवियों ने सजगता से समाज का विश्लेषण करते हुए वर्ण-व्यवस्था पर प्रहार किया है,जो सामाजिक उत्थान के लिए महत्वपूर्ण है।कबीर ने इस पर सबसे अधिक प्रहार किया–
“जो तू बाभन बाभनी जाया,तौ आन बाट होइ काहे न आया।जे तू तुरुक तुरकिनी जाया,तौ भतरी खतनां क्यूं न कराया।”
कबीर वणिक वर्ग पर भी प्रहार करते हैं—
“मन बनिया बनिज न छोड़े।जनम जनम का मारा बनियां,अजहुं पूर न तौले।”
तो फिर गाली देते हुए लिखते हैं—
“मन बनियां बनिक न छौड़ेकुनबा वाके सकल हरामी,अमृत में विष घोले।”
कबीर मानव मानव के बीच सहज समानता के हिमायती है—“उंच नीच है मधिम बानि,एकै पवन एक है पानी।एकै मटिया एक कुंभारा,एक सभन्हि का सिजनहारा।”
कबीर के बाद जातिवाद पर प्रहार करने वाले रैदास है।ब्राह्मण के संदर्भ में रैदास लिखते हैं—
“उंचे कुल के कारणौ,ब्राह्मण कोय न होय।जोउ जानहि ब्रह्म आत्मा,रैदास कहि ब्राह्मण सोय।
क्षत्रिय के संदर्भ में लिखते हैं—“दीन दुखी के हेतु जउ वारे अपने प्रान।रैदास उह नर सूर को,सांचा छत्री जान।
वैश्य के संदर्भ में रैदास लिखते हैं–
“सांची हाटी बैठी करि,सौदा सांच देई।लकड़ी तौले सांच की,रैदास बैस है सोई।
शूद्र के संदर्भ में रैदास लिखते हैं—
“रैदास जउ अति अपवित्र,सोइ सूदर जान।जउ कुकरमी असुध जन,तिन्ही हीन सूदर मान।”
रैदास किसी को भी जन्म से श्रेष्ठ या हीन मानने के पक्षधर नहीं है।वे कबीर की तरह ही मानवता के समर्थक है।जन्म के आधार.पर प्रचलित व्यवस्था पर प्रहार करते हुए लिखते हैं—
“रैदास जन्म के कारणै,होत न कोइ नीच।नर को नीच करि डारि है ओछे करम की कीच।”
रैदास जात-पात पर प्रहार करते हुए कहते हैं—
“जात पात में जात है ज्यों केलन में पात।रविदास मानुष न जुड़ सकै जौं लो जात न जात।”
रैदास खुद को चमार कहते हुए कहीं भी अपने को अपमानित नहीं अनुभव करते।वे जाति व्यवस्था के मूल को समझकर उस पर चोट करते नजर आते हैं।ब्राहम्ण,क्षत्रिय,वैश्व व शूद्र को अपने ढंग से विवेचित करते है।
दादू भी जात -पात रहित समाज की स्थापना के पक्षधर थे।लेकिन कबीर तथा रैदास के तरह प्रहार करते नजर नहीं आते हैं।
“नीच उंच मधिम को नाहीं,देषो राम सबनि कै मांही।दादू साच सवनि मैं सोई,पेड़ पकड़ि जन नृभै होई।।
संत नामदेव,सुंदरदास,पलटू साहब,रज्जब,गुरु नानक,गुलाल साहब  आदि संत कवियों ने  जाति-पांति का खंडन किया है।
तुलसीदास  निरंजनी ने भी इस पर प्रहार किया है।
“जनम नीच कहीए नहीं,जो क्रम उत्तम होई।तुरसी नीच करम करे,नीच कहावै सोई।”
तुलसीदास वर्णाश्रम को सही मानते हैं। उनका विचार है—
“वरनाश्रम निज निज धरम निरत वेद पथ लोग।
चलहि सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग।”
लेकिन तुलसीदास  कलियुग के ब्राह्मणों से अपरिचित नहीं थे,वे लिखते हैं—
“द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन।कोउ नहिं मान निगम अनुसासन।मारग सोइ जा कहुं जोइ भावा।पंडित सोइ जो गाल बजावा।”
जाति व्यवस्था पूर्णतः अलोकतांत्रिक तथा सत्तावादी व्यवस्था है।यह समाज की प्रगति को अवरुद्ध करती है।संत कवियों ने इस कुप्रथा को समझा था।इसलिए वे बार-बार जाति-व्यवस्था का विरोध करते दिखे।
कबीर ने इसी कारण कहा था–
“जाति न पूछो साधु की।”
दादू ने भी जातिप्रथा को आधारहीन मानते हुए कहा था–
“दादू पाणी के बहु नांव धरि,नाना विधि की जाति।बोलनहारा कोण है,कहौ धौ कहा समाति।”
संत नामदेव तो पूरे तौर पर इस जाति प्रथा को अस्वीकार करते हैं—-
“कहा करउ जाती कहा करउ पाती।राम को नामु जपउ दिन राती।”
सुंदरदास  का मानना है कि अज्ञानवश लोग इस ‘जाति’ भ्रम में पड़ गये हैं—
“हौ अति उत्तम बडौ कुल,हौं अति नीच किया कुल हांनि।सुंदर चेतनता न संवारत,देह स्वरूप भयै अभिमानी।”
संत कवि रज्जब कहते हैं—
“हिन्दू तुरक उदै जलबूंदा।का सों कहिये ब्राहम्ण सूदा।रज्जब समिता ज्ञान बिचारा।पंचतंत्र का सकल पसारा।”
गुरु नानक देव ने भी जाति प्रथा का खण्डन करते हैं—
“एक ब्रह्म इक बरन इक एको है बोल निहार। एका जाति  सनाति  इक एको  हो उपचार।”
संत गुलाल साहब भी जाति-पांति का खंडन करते हुए कहते हैं—
“कहै गुलाल सतगुरु बलिहारी।जाति पांति अब छूटल हमारी।”
इस तरह हम देखते हैं कि सभी संत कवियों ने जाति -पांति का खंडन किया है।सबने मनुष्य-मनुष्य को समान माना है।वर्ण व्यवस्था का निर्माण श्रम-विभाजन के निर्धारण हेतु बना था।मानवीय विकास को अवरुद्ध करने के लिए नहीं। लेकिन वर्ण व्यवस्था को जब जन्मजात ,परंपरागत रुप में अपनाया गया,तभी से समाज में विकृत्ति पनपने लगी।
वर्तमान सात दसक से यह जाति -व्यवस्था कमजोर बनने की बजाय और अधिक मजबूत और राजनीति सत्ता प्राप्त करने का सहज माध्यम बनती दिख रही है।अब जात-पात पर आधारीत जनप्रतिनीधि चुनाव जीतकर समाज और देश का हीत न करके अहीत ही करते हैं। आरक्षण जाति-प्रथा को बढ़वा देता है।

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