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प्रश्न – हिंदी साहित्य के वर्तमान परिवेश में मठ और मठाधीशों की क्या स्थिति है ?
उत्तर- हिंदी साहित्य इस समय मठ और मठाधीशों के कम्रिक रूपांतरण की प्रक्रिया से गुजर रहा है । कोरोना काल
में यात्रा करने की बंदिशों के मद्देनजर कई मठ खाद पानी (परनिंदा ) के अभाव में ध्वस्त हो चुके हैं लेकिन उनके
भग्नावेष यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। इन मठों से निकले हुए चेले -चपाटे (सखियां -सहेलियां ) अभी भी इन मठों को
महत्वपूर्ण ,समीचीन और किले की भांति मजबूत मानते हैं ,तथापि नए किलेदार ने सबसे मजबूत और मठों के
प्रकाश स्तंभ माने जाने वाले मठ को प्राइवेट लिमिटेड घोषित कर दिया है और भारत के कम्पनी ला कानून के
मुताबिक सौ -सौ रुपये के मानदेय पर लिखी गई रचनाओं को मठ की बौद्धिक सम्पत्ति मान लिया गया है । मठ
के टीम लेखक (जिन्हें लोग गिरोह लेखक कहते हैं) इस प्राइवेट लिमिटेड को इसलिये अपनी सेवाएं देते हैं और खुद
को “साहित्य का सेक्युलर जीव “ और “ बौद्धिकता का लाइट हाउस” मानते हैं। ये लोग अपने मठ से बाहर
लिखने वाले लेखकों को “कम्यूनल, संघी-कंघी लेखक” कहकर खारिज करते हैं। इसी तर्ज पर आबाद किये गए
बनारस,इलाहाबाद, भोपाल जैसे लघु मठ केंद्रों पर अतीत में “लाइट हाउस मठ” से प्रेरित गतिविधियों का संचालन
होता रहा था, परन्तु प्रमुख मठाधीशों के काल -कवलित और बीमार होने के कारण इस मठ की गतिविधियां मंद
पड़ गयी थीं। फिर कोरोना काल की दुश्वारियों ने मठ को ना सिर्फ खंडहर बना दिया ,बल्कि मठ को पदस्थापना भी
अन्यत्र करनी पड़ी।
सो कुछ वर्षों पूर्व तक सुरा-सुंदरी की चर्चा से शुरू होकर चरित्र हनन का केंद बन जाने वाले अधिकांश मठों में
वर्तमान में सिर्फ पढ़ाई -लिखाई और व्यापारिक कोलैबोरेशन की बातें होते हैं कि क्रांति के नाम पर इक्ट्ठा की गयी
बौद्धिक सम्पति को इनकैश कैसे कराया जा सके। ध्यातव्य है कि लेखन की इस बौद्धिक संपदा के मानदेय का
भुगतान साम्प्रदायिकता से लड़ने के नाम पर चंदा प्राप्त करके किया गया परन्तु अब ये बाजार में बिकने को रखे
हैं स्वर,आडियो,वीडियो से लेकर प्रिंट तक, ये उस बकरे की तरह हैं जिसमें मांस,हड्डी तक बिक जाने के बाद
उसकी खाल तक बेच दी जाती है । अतः विमर्श और मुक्ति के नाम पर संग्रहित समग्र सामग्री जो क्रांति करने के
लिये इकट्ठा थी अब वैल्यू अनलाकिंग की प्रक्रिया में है, क्रांतिकारी लेखकों के तरकश के उधार में मिले तीर अब
उनकी सन्तानों के बचत खाते में जाकर उनका भला कर रहे हैं।

प्रश्न – मठों की उपादेयता की विवेचना करें और विधाओं के प्रकाश में सन्दर्भ व्याख्या करें।
उत्तर – मठ आवश्यक हैं और मठाधीश भी ,विधाएं बदलती रहती हैं। पहले अतुकांत कविता से क्रांति के प्रयास हुए
,प्रयास सफल रहे कविता सभी से कट गयी ,जो लिखते हैं वो भी नहीं बता सकते कि उनकी कविता का मन्तव्य
क्या है। कविता के बाद पाठकों की बारी कहानीकारों से त्रस्त होने की थी ,इसमें सुबह से शाम तक क्या बीता
टाइप के लेखन और सॉफ्ट पोर्न की लिपिबद्धता को देखा -भोगा यथार्थ मानकर कहानी का मुलम्मा पहनाया गया
,ऐसे लेखक -लेखिकाओं की बहुत बड़ी कतार है ,जिनसे पाठक न सिर्फ त्रस्त बल्कि पढ़ने को अभिशप्त हैं,अकहानी,
नई कहानी जैसे पड़ावों से गुजरती अब ये तेरी मेरी कहानी बन गया है , सुरा -सुंदरी के इर्द -गिर्द बिताए गए
समय को लिखकर मठों की जड़ों को मजबूत किया जाता है , होड़ है कि कौन किसकी पोल खोलेगा और कितनी
छीछालेदर करेगा या करवाएगा।

प्रश्न -साहित्य में व्यंग्य और रूपकों से अपनी बात कही जाती है, वर्तमान में व्यंग्य की क्या स्थिति है ।
उत्तर – व्यंग्य अब पिट्ठू बैग की तरह हो गया है ,जिसे हर कोई हर जगह लेकर जा सकता है । व्यंग्य खालिस
साहित्य की पीठ पर बैठकर चल रहा है ,ये “ हरफ़नमौला और हर फन अधूरा” टाइप की स्थिति है।सब
कुछ लिख लेने वाले लोग भी व्यंग्य लिख रहे हैं और कुछ भी साहित्य ना लिख पाने वाले लोग भी
व्यंग्य लिख रहे हैं। यानी व्यंग्य हर कोई लिख सकता है , भले ही वो कविता का शीर्ष साहित्यकार हो
या नौसिखिया। व्यंग्य को बहुतेरे लोग विधा नहीं मानते इसलिये व्यंग्य साहित्य के शिल्प, व्याकरण
आदि अधिकांश नए लेखक लिहाज नहीं करते ,उनके लिये व्यंग्य हिंगलिश में रेस्टोरेंट में दिए आर्डर
सरीखा है । ज्यादातर पत्रिकाएँ व्यंग्य नहीं प्रकाशित नहीं करतीं ,तो अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने के
शौकीन विधा के लोग सीधे इंटरनेट के जरिये व्यंग्य लेखन में पदार्पण करते हैं। इंटरनेट पर न्यूज़ पोर्टल,
साहित्यिक पोर्टल जैसे तमाम छोटे -छोटे साहित्य के प्याऊ हैं जहां इन व्यंग्य पीड़ितों की छपास की प्यास
बुझती है । चूंकि व्यंग्य लेखन में धन नहीं है और ऐसे लेखन की कीर्ति में अमरता का दिवास्वप्न नहीं है
इसलिये इसमें स्थायी कमीशन्ड लेखक कम ही हैं। दो चार लोग अपने निजी संसाधनों से व्यंग्य की मशाल
को आगे बढ़ा रहे हैं लेकिन व्यंग्य के उन मशालचियों के पीछे बड़ी कतार गैर व्यंग्यकारों की है।एक बड़ा
व्यंग्यकार दुसरे बड़े व्यंग्यकार की मशाल की रोशनी में रचनात्मक योगदान नहीं दे सकता। इसके उलट वो
अपनी मशाल लेकर निकल पड़ेगा जिसके पीछे गैर व्यंग्यकारों की पूरी फौज होगी , ये फौज पहली फौज
के समतुल्य और अनुवर्ती होगी, इसका नतीजा ये होगा कि संकलन पर संकलन निकलते जाएंगे , मूलतः
इसमें भला उन गैर व्यंग्यकारों का हो जाता है जो अपने सेनापति बदलते रहते हैं संकलन में स्थान पाने
के लिये ,बाराती घूम -फिर कर वही व्यंग्यकार रहते हैं ,बस संकलन का मशालची दूल्हा बदल जाता है।
व्यंग्य पहले व्यवस्था पर शालीन थप्पड़ हुआ करता था ,समाज को जगाने के लिये साहित्य के जरिये एक
मिशन हुआ करता था,फिर एक दूसरे को चिकोटी काटने का प्रोफेशन हुआ और अब एक दूसरे पर कीचड़
उछालने का धंधा बनता जा रहा है।
इसके अलावा कूल डूड और कूल डूडनियों की एक ऐसी प्रजाति व्यंग्य में विकसित हुई है जो सोशल मीडिया के
एक तमाम प्लेटफॉर्म्स से व्यंग्य की थीम चोरी करती रहती है ,इस पीढ़ी की खासियत ये है कि चुराए हुई
व्यंग्य को जब इंस्टाग्राम पर पोस्ट करते हैं तो उसे मीम कहते हैं और जब उसी व्यंग्य को फेसबुक पर पोस्ट
करते हैं तो उसे व्यंग कहते हैं।
व्यंग्य के वैसे तो कोई स्थायी मठ या गॉडफादर टाइप के मठाधीश नहीं हैं , क्योंकि व्यंग्यकारों को धीर -गंभीर
टाइप के साहित्यकार , अपनी कोटि का साहित्यकार नहीं मानते,इसलिये व्यंग्य में शाल,मानदेय, काफी कम
हैं,इसीलिये बहुत से प्रतिभाशाली व्यंग्यकार ,मुंबइया फिल्मों के शार्पशूटर की भांति अपनी सेवाएं फ्रीलांस तौर
पर देते हैं , यानी सभी मठों को अपनी सुविधानुसार और इच्छानुसार सेवाएं देते हैं प्रोजेक्ट की गुणवत्ता के
अनुसार समयबध्द सेवा ,और प्रोजेक्ट खत्म होते ही फिर फ्री हो जाते हैं और बतौर फ्रीलांसर नया प्रोजेक्ट में
जुड़ने का जुगाड़ खोजने लगते हैं । ये सभी के हैं और किसी के भी नहीं ।

प्रश्न – लघुकथा में मठों और मठाधीशों की स्थिति पर प्रकाश डालिये?
उत्तर-“वन्स ए काप,ऑलवेज ए काप” यानी एक बार जो पुलिस में भर्ती हो गया वो जीवन भर मन से
पुलिसवाला ही रहता है । इस मशहूर फिल्मी डायलॉग की तरह एक बार जो व्यक्ति आभासी संसार के
लघुकथा समूहों से जुड़ कर लघुकथा लिखने लगा फिर वो लघुकथा में ही जियेगा और मरेगा । लघुकथा के
ये आधुनिक मठ फेसबुक पर जन्म लेते हैं और व्हाट्सप्प ग्रुपों पर इन मठों की सिर फुटौव्वल चलती
रहती है। मजे की बात ये है कि ऐसे लघुकथा लेखकों का आधा जीवन ये समझने में लग जाता है कि
“लघुकथा क्या है “ और फिर आधा जीवन इनका येएक दूसरे को बताने में बीत जाता है कि “लघुकथा ये
है “। ये किसी भी विधा में जाकर लिख आएं लेकिन शाम होते होतव ये आभासी संसार के अपने प्रिय
लघुकथा के मठ में लौट आते हैं।

सात लाइन की लघुकथा को जानने -समझने के लिये ये लोग पचास लोगों का सम्मेलन करते हैं।ये बड़े ही
निष्काम साहित्य सेवी होते हैं ,ये चाहे दुबई-इंग्लैंड में रहते हों या बेगूसराय अथवा जबलपुर में ये बेहद
संगठित और अनुशासित रहते हैं। ये सिर फुटौव्वळ से लेकर मान मनोव्वल का खेल आपस में ही खेलते
हैं, कितना भी लड़ -झगड़ लें लेकिन आगामी लघुकथा संकलन की घोषणा होते ही सब एक हो जाते हैं।

इन मठों की खासियत ये है कि “या तो आप हमारे साथ हैं या खिलाफ “ के सिद्धांत पर कार्य करते हैं।
व्यंग्य विधा की भांति यहां पर स्वंत्रत लेखन की अनुमति नहीं है ,या तो आप एक निश्चित मठ के बैनर
तले लिखेंगे और विरोधी मठों के लोगों से बोलचाल तक नहीँ रखेंगे।अगर मठ से बाहर किसी व्यक्ति की
लिखी लघुकथा की पोस्ट भी लाइक कर दी और उनके किसी साहित्यिक आयोजन में शामिल हो गए तो
मठ से गद्दारी मानी जायेगी और तुरन्त निकाल दिए जाएँगे।

जेंडर,जाति आधारित कई उपसमूह हैं जो इन मठों के लोकल आफिस की भांति कार्य करते हैं। फिर भी
स्वयं का धन,समय,ऊर्जा और पारिवारिक जीवन ताक पर लगा कर बने रहने वाला ये सबसे निष्काम सेवी
साहित्यिक मठ है जो कविता -कहानी के मठों की तरह पावरहाउस मठ बनने की प्रक्रिया में है।भविष्य में
लघुकथा के ये उप मठहॉउस कहलाये जाएंगे।

प्रश्न -मठों हेतु भविष्य की विधाएं क्या होंगी ,पहले हाइकू के मठ बनेंगे या तांका के।
उत्तर -फिलहाल तो लघुकथा के आभासी संसार से निकले मठों का भविष्य उज्ज्वल लग रहा है ,ये ही
भविष्य के शक्तिशाली और क्रियाशील मठ बनेंगे। हाइकु और तांका मठ बनने की प्रक्रिया के अंतिम
विकल्प होंगे। भारत में इनका विकास अभी शैशवास्था में है ,अलबतत्ता विदेशों में कुछ लोगों ने इसे हिंदी
का मठ हाउस बनाने के प्रयास शुरू कर दिए हैं। इनकी हालत मोहल्ले के उस चाचा की तरह है जो सर्दी
आते ही सूट प्रेस करवा लेते हैं कि
ना जाने किस बारात में बाराती कम पड़ रहे हों और उनका बुलावा आ जाये कोरम पूरा करने के लिये।
भारत मे हिंदी में ये विधाएं तब प्रकाशित होती हैं ,जब अख़बारों या पत्रिकाओं के पास सारी प्रकाशन योग्य
सामग्री का प्रयोग करने के बाद भी कुछ जगह या सामग्री बची रहती है तब वहाँ पर हायकू या तांका
प्रकाशित कर दिया जाता है । ऐसा साहित्य और ऐसे साहित्यकार एक दूसरे के प्रेम में पगे निष्काम योगी
की तरह होते हैं ।इनका सिद्धांत वाक्य होता है
“ना काहू से दोस्ती,ना काहू से बैर “
आगामी मठहाउसों पर निरंतर शोध चल रहे हैं।

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