labour working on manrega

गाँव में मजदूरों को बारह महीने प्रतिदिन काम नहीं मिलता है। गर्मी के दिनों में कुआँ का पानी सूख जाने के बाद किसान नरेगा में मजदूरी करने जाते हैं। अधिकांश मजदूर गर्मी के दिनों में काम नहीं मिलने पर चैक चैराहे पर ताश खेलते हैं। इनमें से बहुत ऐसे हैं, जिनके पिता की जमीन बहुत ज्यादा है। खेत की सिंचाई के लिए पानी की व्यवस्था नहीं। भगवान भरोसे बरसात में धान की खेती करते हैं।

प्रदीप कुमार अगहन-पूस माह में नदी के पानी से खेत की सिंचाई कर फसल तैयार करता। उस समय बाजार में सब्जी खुदरा दस-पाँच रुपये प्रतिकिलो बिकता। मुश्किल से अगहन-पूस माह की खेती से पाँच-दस हजार रुपये मुनाफा होता। बरसात होने पर धान की पैदावार अच्छी होती है। तब आवश्यक कामों को पूरा करने में कुछ हद तक कठिनाई नहीं होती। पर बरसात नहीं होने पर धान की पैदावार नहीं होती। तब समस्याओं का पहाड़ टूट पड़ता है। एक वर्ष अकाल पड़ने पर प्रदीप साल भर मिस्त्री के साथ लेबर का काम करके दो वक्त की रोटी का जुगाड़ किया था। पिता गाय-बैल और बकरी चराने जाते। माँ घर में खाना बनाती। माँ बरसात के समय मजदूरों को खाना बनाकर खिलाने में असमर्थ महसूस करने लगी। तब शादी कर लिया।

आषाढ़-सावन में जेठ माह की तरह सूरज तपता रहा। खेत में धान की रोपाई नहीं हो पाई। किसी तरह पूस-माघ तक नदी किनारे खेती करके और दो-चार बकरा बिककर परिवार चला लिया। नदी का पानी सूख जाते ही प्रदीप बेसहारा हो गया। नदी-नाला के अलावे खेती करने का कोई स्थायी प्रबंध नहीं है। सरकारी कुआँ मंजूर कराने के लिए रिश्वत के दस हजार रुपये नहीं है। प्रदीप काम खोजने लगा। गाँव के किसान रंजन का पुत्र चंद्रप्रकाश कुमार दस साल से बम्बई में काम करता है। साल-दो-साल में एक बार घर आ जाता है। वह घर आया हुआ था। किराना दुकान में दोनों की मुलाकात हो गई। दोनों बचपन के दोस्त और रिष्ते में भाई-भाई लगते हैं। चंद्रप्रकाश छोटा है। चंद्रप्रकाश प्रदीप से पूछता है, “आजकल खेती-बाड़ी में मुनाफा अच्छा हो रहा है न दादा!”

“अरे भाई! मुनाफा की बात ही मत करो, पेट चलाना मुश्किल हो गया है। बरसात नहीं होने की वजह से धान की खेती भी नहीं हुई। और नदी-नाला भी जल्द ही सूख गया। अब तेरा जैसा बाहर जाकर काम करना चाह रहा हूँ। लेकिन यही सोचकर घबरा जाता हूँ कि शहर जाने के बाद मुझे कहाँ काम मिलेगा? कौन काम देगा?”

“अरे दादा! शहर में हजार काम है। तुम काम मिलने या नहीं मिलने की चिंता छोड़। तुम केवल इतना बता कि पहले कुछ दिनों तक लेबर का काम कर पाओगे न! बाद में तुम्हे मिस्त्री बना दूँगा। पहले मैं भी छह महीने से साल भर तक लेबर का काम किया था। फिर धीरे-धीरे मिस्त्री का। अब मैं वहाँ राजमिस्त्री कहलाता हूँ।”
“मुझे केवल काम मिल जाए भाई! कोई भी काम कर लूँगा!”
“अच्छा ठीक है दादा! तुम केवल जाने की तैयारी करो! दो दिन के बाद ही जाना है। मेरे साथ इस बार साठ-सत्तर लड़का जाने को तैयार हैं। लगभग सभी ने रेल का टिकट भी बुकिंग करवा लिया है। तुम भी कल तक करवा लेना।”
“अच्छा भाई, तुम मुझे ये बताओ कि साठ-सत्तर लड़के को कहाँ काम दे पाओगे?”
“दादा! मैं कह रहा हँू न! काम की चिंता मत करो! फिर भी भेद जाने बिना तुमको विश्वास ही नहीं होता है तो लो! तुमको मैं, सच बता ही देता हूँ। मेरे ठेकेदार ने एक सौ आदमी को साथ में लेकर आने का आदेश दिया है। वह दस मंजिला भवन का निर्माण एक साथ ही बारह भवन का काम हाथ में लिये हुये हैं। जहाँ अनेक प्रकार के मिस्त्री और बहुत सारे लेबर की आवश्यकता है।”
“चंद्रप्रकाश मेरे साथ और एक समस्या है।”
“अब क्या समस्या आ गया दादा?”
“मेरी शादी को एक वर्ष भी नहीं हुई है। बीबी के बिना रह पाना बहुत कठिन होगा।”
“अच्छा! इस समस्या का भी मैं समाधान कर देता हूँ।”
“कैसे?”
“मैं भी साथ में मुन्ना और बीबी को ले जा रहा हूँ। तुम भी साथ में लेकर चलो!”
“तुम तो कमरा ले लिया है। लेकिन हम दोनों जाकर कहाँ रहेगें?”
“अरे दादा! तुम केवल मेरे से दो माह ही बड़ा है। डरता मेरे से बहुत ज्यादा है। जब साथ में भाभी को लेकर चलने को कह रहा हूँ तो क्या? मैं बिना सोच-समझकर ही बोला। जब तक अच्छा रूम नहीं मिल जाता। तब तक मेरे रूम में रूक जाना। ऐसे भी दो कमरे हंै। तुमको अच्छा लगे तो एक कमरे में रह जाओगे! अब खुश! या और भी कोई दिक्कत है तो बोल!”
“ठीक है, तुम दो टिकट बुकिंग करा देना। मैं शाम को घर पैसा पहुँचा दूँगा।”

चंद्रप्रकाश मुन्ना-बीबी, प्रदीप, प्रदीप की बीबी और अन्य सत्तर लड़कों को साथ में लेकर चला जाता है। सत्तर नवयुवकों में से तीस किसान के पुत्र हैं। जिसमें बीस युवक के पिता के पास भगवान भरोसे खेती करने के अलावे अन्य कोई साधन नहीं है। दस युवकों के पिता दिन-रात मेहनत करके खेती करते हैं। लेकिन मुनाफा के नाम पर जीरो! जैसे-तैसे दो वक्त की रोटी और तन ढकने का कपड़ा खरीद पाते। बाकी चालीस युवकों में से पन्द्रह युवक लोहार के पुत्र हैं। वे अब पिता के काम से परिवार चलाने में असमर्थ हैं। पहले किसान के अलावे सभी लोग लोहे का सामान लोहार से ही बनवाया करते थे। पर किसान भी अब फाल, कुदाल और कुल्हाड़ी आदि बाजार से खरीद लेते हैं। उन्हें लोहार के वहाँ बनवाने से कम दाम में अच्छा सामान मिल जाता है। पन्द्रह युवक मछुवारे के पुत्र हैं। जिनके पिता मछली पकड़ने और लकड़ी चिरने का काम करते हैं। नदी-नाला के नहीं भरने की वजह से मछलियाँ नहीं मिलती। तालाब में मछली पकड़कर परिवार चलाना संभव नहीं। तालाब मालिक प्रतिकिलो दो सौ रुपये में से डेढ़ सौ रुपये ले लेते हैं। यदि बिका तो प्रतिकिलो पचास रुपया इनकम होगा और यदि दो-चार किलो भी मछली बच गई। तब मूलधन निकालना मुश्किल हो जाता है। लकड़ी चिरने में कुछ मुनाफा कर लेते थे। पर टिम्बर में इनसे कम दाम और लकड़ी की बर्बादी किये बिना चिर देते हंै। अब उन्हें पूर्वज के काम से पेट चलाना नामुमकिन हो गया है। शेष दस लड़कों में से पाँच नाई और धोबी के लड़के हैं। और पाँच बड़े घर के लड़के हैं, जो काम करने के बहाने घूमने जा रहे हैं।

बम्बई में सबको काम मिल गया। पहले सब लेबर करने लगें। और धीरे-धीरे लेबर से मिस्त्री बन गए। दो-पाँच साल के बाद गाँव आकर शादी करके साथ में बीबी को भी लेकर चले गए। सबकी बीबी क्षमता के अनुरूप काम करने लगीं। कोई कपड़ा, कोई दवा और कोई सिंगार आदि दुकान में तो कोई नौकरानी और कोई हाॅस्पिटल में दाई का काम करने लगीं। चंद्रप्रकाश और उनके साथी की जिन्दगी की गाड़ी बिना रूकावट के चलने लगी। कम इनकम कर पाने वालों के बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ने जाते। ये बच्चे सुबह-शाम मकान मालिक के फूल में पाइप से सिंचाई का काम करते। उन्हें महीने का काॅपी, कलम और बिस्कुट-टाॅपी खरीदने भर का पैसा मिल जाता है।

देश में महामारी ने दस्तक दे दिया। कोरोना वायरस नामक महामारी के चपेट से देशवासियों का जीवन सुरक्षित रखने के लिए देश के प्रधानमंत्री राज्य सरकारों के सहयोग से लाॅकडाउन की घोषणा कर देते हैं। लाॅकडाउन में पूँजीपति, व्यापारी और आॅफिसर को छोड़ किसान, मजदूर और प्रतिदिन कामाने खाने वालों की जिन्दगी बेहाल हो गई। इनमें से सबसे बेहाल प्रवासी मजदूरों की हुई। लाॅकडाउन से लेबर और मिस्त्री का काम बंद हो गया। साथ-ही नौकरानी का काम करने वालों को भी काम पर आने के लिए माना कर दिया गया। सब बीबी-बच्चों के साथ रूम में जैसे-तैसे करके महीना चला रहे। प्रवासी मजदूरों को मकान मालिक रूम का किराया महीने के तीन तारीख तक अदा करने का आदेश दिये। ऐसे समय में लेबर और मिस्त्री ठेकेदार बाकी पैसा और लाॅकडाउन का कुछ पैसा मांगने का निर्णय लिया। और लाॅकडाउन समाप्त होते ही लाॅकडाउन का पैसा कम-कम करके हर महीने अदा करते जायेंगे। यह प्रस्ताव चंद्रप्रकाश अपने ठेकेदार से रखा। ठेकेदार साफ कहता है, “मैं, बाकी पैसा भी लाॅकडाउन के समाप्त होने के बाद ही दे पाऊँगा। और ध्यान से सुनो! लाॅकडाउन का पैसा तो मैं तुम सबके वापस करने का लाख वादा कर लो! फिर भी नहीं दूँगा। मुझे क्या पता कि तुम सब पैसा लेने के बाद आगे काम करोगे भी या नहीं? आज के बाद दुबारा मुझे फोन मत करना। अन्यथा लाॅकडाउन के बाद मैं काम पर दोबारा बुलाऊँगा भी नहीं।”

ठेकेदार की बातें सुन चंद्रप्रकाश की बीबी दुविधा में पड़ गई। “साला! जब महीने में दस-बीस लाख का इनकम ठेकेदार को हुआ। तब किसी को अधिक वेतन नहीं दिया। आज हम सब मजबूरी में फंसे हैं। तब भी उसे दया नहीं आ रही है। ठेकेदार को एक दिन पैसा ही मार डाले। उन्हें नरक में भी जगह न मिले।” चंद्रप्रकाश की बीबी ठेकेदार को गाली देकर मन की सारी भड़ास निकाल ली।

सभी औरत एकजुट होकर अपने-अपने साहब से पैसा उधार में लेने का निर्णय लिया। नौकरानी का काम करने वाली चंद्रप्रकाश की बीबी सबसे पहले फोन की। जवाब निराशाजनक ही मिली। मालिक की मैडम ने पैसा देने से इंकार कर दी। साथ-ही साल भर तक काम में नहीं आने का आदेश भी। दुकान में काम करने वाली को भी पैसा नहीं मिली।
मकान मालिक के आदेशानुसार किराया अदा नहीं कर पाये। मकान मालिक चार तारीख को सुबह आकर रूम से सामान निकाल फेंकते हैं। चंद्रप्रकाश मालिक का पैर पकड़कर कहता है, “मालिक, मुझ जैसे गरीब पर दया कीजिए। बाल-बच्चा को लेकर ऐसे समय में मैं कहाँ जाऊँगा? लाॅकडाउन के समाप्त होते ही काम करके एक-एक रुपया चुका दूँगा। चाहे तो आप सूद ही ले लेना, फिर भी रूम से सामान मत निकाल दीजिए।”

मालिक पैर झाड़ते हुए सामान फेंकने लगते हैं। और आगे कहता है, “आज-के-आज रूम खाली करके चले जाओ!”
सामने रह रहे प्रदीप का भी सामान रूम से फेंककर निकाल दिये। दोनों साइकिल में कुछ आवश्यक सामान को बाँध लिये। और बच्चे-बीबी को बैठाकर मातृभूमि की ओर चल पड़े। अन्य साथी को रास्ते में फोन किये तो पता चला कि वे कल ही निकल गये हैं। सब साइकिल में सामान बाँध लिये हैं। और सामान के ऊपर बच्चों को बैठाकर पैदल ही मातृभूमि की ओर चल पड़े हैं।

बैशाख-जेठ की प्रचंड गर्मी में चैथे तीन चंद्रप्रकाश का छोटा लड़का को लू लग गई। सड़क किनारे लगे पेड़ से कच्चा आम तोड़ा और शरबत बनाकर पिला लिया। चेकपोस्ट में मौजूद पुलिस से मदद की गुहार लगायी। पुलिस यह कहते हुए इंकार कर दी, “चेकपोस्ट में केवल एक राज्य से दूसरे राज्य में जाने वालों की हिस्ट्री रजिस्टर में लिखकर रखना मेरा काम है। प्रवासी मजदूरों की मदद के लिए सरकार काम कर रही है। जिसके लिए अलग टीम है। तुम सब पहले अपनी राज्य सरकार के प्रवासी मजदूरों की लिस्ट में नाम दर्ज करा लो। आगे का काम यहाँ की सरकार की टीम करेगी।”

विवश चंद्रप्रकाश मौन धारण किये, साइकिल चला रहा। बीबी बीमार पुत्र को गोदी में लिये, साइकिल के पीछे बैठी ईश्वर का नाम ले रही। साथ में प्रदीप भी भूखे-प्यासे साइकिल मंजिल की ओर दौड़ा रहा। चंद्रप्रकाश का छोटा लड़का सातवें दिन प्राण त्याग देता है। नदी किनारे खेत की सिंचाई कर रहे, किसान भाई से कुल्हाड़ी मांग कर दोनों पेड़ की डाली काट बालक का अंतिम संस्कार किये। और पुनः मातृभूमि की ओर चल पड़ते हैं। साथ में ला रहे मुड़ी और चिवड़ा भी खत्म होने को है। सड़क किनारे लगे आम के पेड़ से अध-पक्का आम तोड़कर पेट की क्षुधा शांत किये। प्रदीप बीबी-बच्चे के साथ पेड़ से सड़क की तरफ और चंद्रप्रकाश बीबी-बच्चा के साथ पेड़ की दूसरी तरफ सो गया। प्रदीप रात के करीब दो बजे आम का पेड़ उठकर सुबह के लिए आम तोड़ रहा। एक माल गाड़ी बवंडर की तरह आयी और बीबी-बच्चों को कुचलती हुई चली गयी। बच्चों के मुँह से आवाज तक नहीं निकली। पेड़ से उतरकर देखा, दोनों बच्चे का शरीर दो हिस्से में बँट गया है। छाती और पेट का आधा से अधिक मांस-हड्डी जमीन में मिल गया है। और कुछ गाड़ी के चक्का में फंसकर चला गया। बीबी के दोनों पैर टूटकर चूर-चूर। बीबी बेहोश पड़ी हुई है। प्रदीप रो-रोकर छाती पिटता है। क्षणभर में बेहोश होकर जमीन में गिर जाता है। होश में आते ही चंद्रप्रकाश से कहता है, “देख भाई, मेरे बच्चों को क्या हो गया? कुछ बोलते ही नहीं।

चंद्रप्रकाश पत्थर की मूर्ति की भाँति खड़े होकर निहार रहा। प्रदीप की घायल बीबी और बच्चों की लाश देख, चंद्रप्रकाश हक्का-बक्का रह गया। मुँह से कुछ बोल ही नहीं पाता है। दस मिनट के बाद चंद्रप्रकाश प्रदीप को संभालने लगा।

सुबह करीब दस बजे प्रशासन की गाड़ी आई। मृतों को ट्रक में लाद ली। प्रशासन प्रदीप की घायल बीबी का पैर में पट्टी करा दी। लाश के ट्रक में ही प्रदीप, प्रदीप की घायल बीबी और साथ में चंद्रप्रकाश, चंद्रप्रकाश की बीबी-बच्चा को भी बैठाकर घर भेज देती है। मातृभूूमि पहुँचने से पहले ही लाश से गंध आने लगी। ट्रक में बैठे चंद्रप्रकाश, उनकी बीबी-बच्चा मुँह में कपड़ा बाँध लिया। तीसरे दिन उल्टी करने लगे। प्रदीप और उनकी बीबी होश में आते ही लाश के सामाने जाकर रोने लगते। दस मिनट के अंदर पुनः बेहोश हो जाते। चंद्रप्रकाश होश में लाने की कोशिश करता। होश में आते ही समझाने की कोशिश करता। पर चंद्रप्रकाश का सारा प्रयास बेकार हो जाता है। गंध असहनीय होने पर ट्रक ड्राइवर ने दया दिखाकर आगे बैठा लिया। फिर भी लाश के बास से उल्टी रोक नहीं पाते। ट्रक ड्राइवर के मुँह से भी पानी आने लगा। वह किसी प्रकार ट्रक को मातृभूमि पहुँचा दिया।

गाँव पहले ही शोक में डूबा हुआ था। पैदल निकले प्रवासी मजदूरों को रात के करीब बारह बजे पीछे से गाड़ी कुचलती हुई चली गयी थी। घटना स्थल में ही सोलह मजदूरों की मौत हो गई थी। बाकी साठ मजदूरों में से लगभग सभी घायल। प्रशासन जैसे-तैसे घायल का इलाज करा के बस से घर भेज दी। और मृतों को ट्रक में। चंद्रप्रकाश के छोटे लड़के की मौत होने के बाद से अपने साथी मजदूर को फोन नहीं किया था। साथी के साथ हुए हादसे की खबर सुनकर क्षण भर के लिए बेहोश हो गया। ट्रक से सबको एक-एक करके उतारा गया। लाश को खटिया में रख दिया जाता है। प्रदीप अपना होश खो चुका था। पागल की भाँति बड़बड़ा रहा है। चंद्रप्रकाश मातृभूमि की मिट्टी हाथ में उठा लिया और लाश के सामने जाकर कहता है, “मैं, चंद्रप्रकाश आज इन दोनों बच्चों की लाश के सामाने मातृभूमि की मिट्टी की सौगंध खाता हूँ। मैं, न कभी मजदूरी करने गाँव से शहर जाऊँगा! और न किसी को जाने की सलाह दूँगा! क्यों न? गाँव में दो वक्त की जगह एक वक्त ही सूखी रोटी खाकर रहना पड़े। फिर भी गाँव नहीं छोड़ूँगा!”

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