Review Book 'Panchayat'

गाँव, गरीबी, किसान, खेतीबाड़ी और ग्रामीण जीवन की दुश्वारियाँ, स्त्रियों की विडंबनाएँ, उनके पहाड़ों से दर्द, सामंती सोच के प्रेतों की क्रूरताएँ व करगुजारियों आदि विसंगतियों – विद्रूपताओं को ध्वस्त करने की अदम्य जिजीविषा लेकर आई है युवा लेखक कुशराज की “पंचायत”।

सामाजिक सरोकारों, किसानों, अभावग्रस्तों, वंचितों, स्त्रियों, अशिक्षा, गरीबी, दिव्यांगों तथा मानवीय मूल्यों के संरक्षण जैसे आधारभूत विषयों को युवा लेखक कुशराज ने अपने कहानी संग्रह “पंचायत” में आधार बनाया है। “पंचायत” की कहानियाँ नाइंसाफियों के खिलाफ मुखर विद्रोह करतीं हैं। इन कहानियों में अशिक्षा, रुढिवादिता, पाखण्डवाद, अँधविश्वास, ऊँच-नीच और सामंती सोच को दरकिनार करते हुए समतामूलक समाज की स्थापना के स्वरों का शंखनाद गुंजायमान है।

छात्र, अधिवक्ता, किसान, सामाजिक सरोकारी और युवा लेखक गिरजाशंकर कुशवाहा ‘कुशराज झाँसी’ ने “पंचायत” में अपने युवा अनुभवों को गंभीरता की स्याही में डुबोकर परिपक्वता के साथ प्रस्तुत करने में सफलता प्राप्त की है।

वस्तुतः कहानियाँ हमारे समाज-जीवन का ऐसा विलक्षण पक्ष होतीं हैं, जिन्हें न अनदेखा किया जा सकता है, न अनसुना और न अनगुना। समकालीन कहानी- विमर्श की जो वर्तमान धारा प्रवाहित है, उस दृष्टिकोण से कुशराज के कहानी संग्रह “पंचायत” की कहानियाँ अपनी मौलिक और बेलाग अभिव्यक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करतीं हैं।

कुशराज की किताब “पंचायत” के कहानी-खण्ड में कुल सात कहानियों के अतिरिक्त चौबीस कविताएँ भी काव्य-खंड में संकलित हैं, जो बदलाव की नुमाइंदगी करतीं हैं –

“मत रुकना तूँ कभी मत रुकना तूँ
समाज बदलना है तुझे
देश बदलना है तुझे
विश्व कल्याण करना है तुझे
दुनिया में शाँति लाना है तुझे
मत रुकना तूँ कभी मत रुकना तूँ
जानता हूँ तो अकेला बढ़ रहा है
समाज-देश की समस्याओं पर
विचार रहा है
तूँ ऐसा परिवर्तन लाना चाह रहा है
जहाँ स्त्री-पुरुष सब समान हों
मत रुकना तूँ कभी मत रुकना तूँ।”

सच में, कविता हो या कहानी अथवा अन्य कोई विधा, यदि उसमें मानवमूल्यों की प्रतिष्ठा नहीं है, विसंगतियों, वर्जनाओं, विद्रूपताओं आदि के निवारण की प्रतिबद्धता न हो, असंगतियों के प्रति आक्रोश-विद्रोह न हो, तो फिर वह सस्ते मनोरंजन तक ही सीमित रहती है।

कुशराज ने “पंचायत” कहानी संग्रह के प्लेफ पृष्ठ पर जो कुछ लिखा है, उससे उनकी अभीप्सा, आकांक्षा और अभिलाषा को भलीभाँति जाना जा सकता है। कुशराज लिखते हैं –

“चाहे हों दिव्यांगजन
चाहे हों अछूत
कोई न रहे वंचित
सबको मिले शिक्षा
कोई न माँगे भिक्षा
दुनिया की भूख मिटानेवाला
किसान कभी न करे आत्महत्या
किसी पर कर्ज का न बोझ हो
सबके चेहरे पर नई
उमंग और ओज हो
न कोई ऊंचा
न कोई नीचा
सब जीव समान हों
हम सब भी समान हों।”

प्रिय कुशराज की उपर्युक्त चौदह पंक्तियों में भारतीय दर्शन और संस्कृति के मूलाधार स्पंदित हो रहे हैं। आज के प्रमुख विमर्शों, किसान, दलित, स्त्री, विकलांग आदि विमर्शों की उद्भावना उपर्युक्त कविता में परिलक्षित होती दिखाई देती है। कुशराज की यह रचना उनकी उद्भावना का प्रतीक है। उनके व्यक्तित्व-कृतित्व की बानगी है। लोकमंगल की आकाँक्षिणी है।

अस्तु, साहित्य के अध्येताओं, विद्वानों, समीक्षकों, छात्रों, सुधी पाठकों और सामाजिक सरोकारों से संबद्ध जनों के मध्य कुशराज की किताब “पंचायत” प्रतिष्ठित व प्रशंसित हो, ऐसी मेरी शुभाकाँक्षा है।

प्रिय शिष्य कुशराज को उत्तरोत्तर प्रगति के लिए अशेष शुभाशीष।

किताब : पंचायत
विधा : कहानी – कविता
लेखक : कुशराज
प्रकाशक : अनामिका प्रकाशन, प्रयागराज
प्रकाशन वर्ष : सन 2022, प्रथम संस्करण
मूल्य : ₹450

समीक्षक – ©️ डॉ० रामशंकर भारती
(पूर्व प्राचार्य – विद्या भारती, साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी )

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