श्रद्धेय गुरुवर व हिंदी के अनथक
योद्धा धनंजय जी को अंतिम प्रणाम!!!
श्रद्धेय गुरुवर प्रोफेसर धनंजय वर्मा की चिर विदाई ने साहित्य जगत को अपूरणीय क्षति पहुंचाई है। उनका जाना, एक युग का समाप्त हो जाना है।उनकी जिंदादिली मशहूर थी। सभा और संगोष्ठियों के शान थे। भाषा एवं साहित्य के जादूगर । बहुभाषाविद् थे। कथा आलोचना में उनकी पकड़ अद्वितीय रही है। वे दोस्तों के दोस्त और दुश्मनों के दुश्मन थे। उनका स्वभाव अत्यंत कोमल, विनम्र और जरूरत के अनुसार कठोरतम था। सज्जन के लिए सज्जन, दोस्तों के लिए दोस्त, विद्वानों के बीच में परम् विद्वान। विद्वत मंडली के सिरमौर। दोस्तों के बीच जिंदादिली के जीते जाते शख्सियत थे।
मेरे जैसे अदने व्यक्ति के निर्माण में उनकी अहम् भूमिका रही है। जब भी मेरे सामने कोई समस्या आती मैं गुरुवर के सामने रखता, उसका समाधान वे तुरंत हंसते हुए कर देते थे। कभी भी एक मिठाई भी उन्होंने नहीं खाई होगी। वह बहुत खुद्दार थे। कहते थे कि विद्यार्थियों से हम मिठाई नहीं खाते बल्कि उनको खिलाते हैं। भोपाल विश्वविद्यालय में हिंदी में मैंने विश्वविद्यालय में टॉप किया था, खुशी-खुशी उनको मीठा लेकर गया। उन्होंने प्यार से चपत लगाई और कहा यह मीठा अपने घर ले जाओ। मैं तुम्हारा मीठा खाऊंगा, इतने बुरे दिन भी मेरे नहीं आए हैं।
उनका असीम प्यार मुझे मिला है। जब भी उनके पास जाता नाम लेकर पत्नी और बेटे के बारे में पूछते। उनकी गजब की याददाश्त थी। वह कभी भी गलत बातों को स्वीकार नहीं करते थे। यानी वह समझौते और मौकापरस्ती को ग़लत मानते थे। यदि वे जीवन में समझौता करते तो अकादमिक दृष्टि से बहुत कुछ प्राप्त कर सकते थे लेकिन उन्होंने आजीवन अपनी शर्तों के साथ जीते रहे। कभी भी समझौता नहीं किया। जिस कुलपति पद के लिए लोग नाक रगड़ते हैं, चाटुकारिता करते हैं, उस पद को भी वह ठोकर मार कर अपने से दूर कर दिया था। लाख मनाने के बावजूद भी उन्होंने अपना इस्तीफा वापस नहीं लिया था।
छात्रों के सामने कभी भी किसी प्राध्यापक की वह बुराई नहीं करते थे और अपने छात्रों से गजब का स्नेह करते थे। बदले में उनकी कोई अपेक्षा नहीं रहती थी। जिसको पसंद करते थे, दिल से पसंद करते थे और जिसे पसंद नहीं करते थे उसे रत्ती भर कभी पसंद नहीं किया। जो बोलना था बेलाग बोला, जो कहना था डंके की चोट पर कहा और जो नहीं कहना था, वह कभी नहीं कहा।
जब वे डॉ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय के कुलपति थे, किसी कारण से विश्वविद्यालय के लोगों की कारगुजारी से उनकी नाराजगी थी। कुछ लोगों ने शरारत पूर्ण विश्वविद्यालय के कार्यों में हस्तक्षेप करने का षड्यंत्र रचा तब उन्होंने तत्काल इस्तीफा दे दिया। वह इस्तीफा 6 महीने तक स्वीकृत नहीं हुआ था। तत्कालीन शिक्षा मंत्री मुकेश नायक ने कहा कि आप किन परिस्थितियों में त्यागपत्र दे रहे हैं इसका खुलासा पत्रकार वार्ता में करें। उन्होंने यह कहते हुए इंकार कर दिया कि मैं अपनी मातृसंस्था को बदनाम नहीं कर सकता। आज जो कुछ भी बना हूं उसी के कारण बना। इस तरह के पद आते- जाते रहते हैं। मैं कभी इसकी परवाह नहीं करता। उल्लेखनीय है कि सागर के पूर्व जबलपुर और बिलासपुर के कुलपति बनने के लिए भी उनसे आग्रह किया गया था। उन्होंने विनम्रतापूर्वक इस आग्रह को अस्वीकार कर दिया कि इससे मेरे लेखन पर बुरा असर पड़ेगा।
मैं जब भोपाल से जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर आ गया तो मैंने उन्हें बताया, वह बहुत खुश हुए। जब-जब भी उन्हें याद किया तत्काल उन्होंने उसका न केवल प्रत्युत्तर दिया बल्कि कार्यक्रम को गरिमामय बनाया। यहां तक की कोरोना कल में मैं जब व्याख्यान माला की अनवरत सीरीज चलाई तब उन्होंने कृपा पूर्वक ऑनलाइन व्याख्यान भी दिया। जब मैं इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय नई दिल्ली आ गया तब भी उनसे सतत् संपर्क में रहा। जब भी उज्जैन जाता उनका आशीर्वाद जरूर प्राप्त करता था। लेकिन उनकी खुद्दारी, उनका रुतबा और उनका शानो शौकत कभी कम नहीं हुआ। वे सभी से जिंदादिली और गर्म जोशी से मिला करते थे।
प्रोफेसर धनंजय वर्मा हिंदी कहानी आलोचना के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वह जिस भी कार्यक्रम में जाते थे चार चांद लगा देते थे। किसी भी कार्यक्रम की सफलता की वह गारंटी थे। अपनी बात को बेलाग ढंग से, सप्रमाण रखने की उनकी आदत थी। कार्यक्रम को गरिमामय और वर्षों तक चर्चा में रहे इसके लिए उन्हें लोग हमेशा याद करते थे। उनकी कहीं हुई बातों का प्रभाव बहुत दिनों तक रहता था उनकी व्यंग्योक्ति ऐसी होती थी कि उससे लोग भावविभोर हो जाते थे और चटखारा भी लेते थे और दूसरे दिन उनके वक्तव्य अखबारों की सुर्खियां बनते थे। उन्होंने किसी भी साहित्यकार और आलोचक को अपने से बड़ा नहीं माना। उन पर स्वामी विवेकानंद के दर्शनों का और हिंदी के महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के व्यक्तित्व का अमिट प्रभाव था। वे कहते थे कि आलोचक तो वही है जो खरी खरी आलोचना करें किसी की चापलूसी न करे। जो सत्य है उस सत्य को उजागर करने में रत्ती भर संकोच न करे। आज के साहित्यकारों और आलोचकों की छपास के रोग को वे साहित्य की गरिमा के प्रतिकूल मानते थे और उनकी इस लालसा और अदम्य भूख की प्रवृत्ति को वे सभा संगोष्ठियों में तार तार कर देते थे। इसीलिए उन्हें जब लगा कि अमुक कहानीकार की कहानियों में कोई दम नहीं है, कहानीकार के बारंबार आग्रह पर भी उन्होंने अपनी कलम नहीं चलाई।
वे साहित्य में प्रतिमान गढ़ने व रचने के लिए जाने जाते थे। उन्होंने कहानी आलोचना के नए प्रतिमान गढ़े। जब वे एम ए हिंदी के विद्यार्थी थे तब वे लघु शोध के रूप में निराला के पुनर्मूल्यांकन पर अत्यंत उल्लेखनीय पुस्तक लिखी। कहानी पर उनकी दर्जनों अत्यंत चर्चित पुस्तक आईं । नाटकों पर भी उन्होंने बड़ी ईमानदारी से आलोचना लिखी। हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिका वसुधा का उन्होंने संपादन किया। आजीवन एक प्राध्यापक और एक ईमानदार साहित्यकार, आलोचक के रूप में वे अपने को स्थापित करने की ईमानदार कोशिश की। कभी भी किसी भी प्रकार की स्तरहीन टिप्पणी या कार्य उन्होंने न किया और न ही कभी पसंद किया। इसलिए कई तथाकथित साहित्यकारों खासतौर से नामवर सिंह ने प्रगतिशील लेखक संघ व विश्वविद्यालयों के मठाधीशों के माध्यम से एवं अशोक वाजपेई ने सत्ता प्रतिष्ठानों का नाजायज फायदा लेते हुए व जनवादी संगठनों का आड़ लेकर उनके साथ अपनी व्यक्तिगत दुश्मनी भी निभाई लेकिन वे आजीवन कतई किसी की परवाह नहीं की और उन लोगों के षड्यंत्रों व मठाधीश बनकर साहित्य में ‘गिरोहों’ के निर्माण की दुष्प्रवृत्ति की आलोचना करते रहे और अपनी आलोचकीय वक्तव्यों के माध्यम से सार्वजनिक रूप से उजागर भी किया करते थे। वह डंके की चोट पर सार्वजनिक रूप से ऐसे नकली और बनावटी साहित्यकारों पत्रकारों व आलोचकों की कलई खोल देते थे। कोई भी कार्य बगैर तैयारी के कभी नहीं करते थे। यदि उनसे सहमति जिस भूमिका के लिए ली गई है उससे यदि कोई कमतर या उनकी भूमिका में आगे पीछे करें तो तत्काल ही कार्यक्रम का बहिष्कार कर देते थे। आज की चाटुकारिता के युग में उनके जैसे स्वाभिमानी और विराट व्यक्तित्व का धनी व्यक्तित्व अट नहीं सकता और उन्होंने कभी जबरदस्ती अटने की कोशिश भी नहीं की। अकादमिक एवं साहित्यिक दुनिया में ऐसे विरले ही लोग मिलते हैं। इसीलिए हिंदी साहित्य का एक बड़ा पाठक वर्ग उनकी प्रतिबद्धता, स्पष्टता कोई भी बात कहने की अद्भुत कला का एवं उनके विशिष्ट अंदाज़े बयां का कायल रहा है। वह हमेशा जिस पद पर रहे वह पद ही सम्मानित हुआ है, वे नहीं। जहां भी जाते पूरे सम्मान के साथ जाते और अपनी शर्तों के साथ कार्य करते अन्यथा सिरे से नकार देते।
इस भौतिक संसार में नहीं है लेकिन उन्होंने बौद्धिक जगत में अपनी विशिष्ट छाप छोड़ी है और सैकड़ो महत्वपूर्ण आलोचना की पुस्तकों के माध्यम से एक विशाल पाठक वर्ग भी भारत में तैयार किया है। वह जिस तरह के भारत की कल्पना करते थे और उसके लिए लिखते थे ऐसे लोग आज भी हैं जो उन्हें बेहद पसंद करते हैं। वे हमेशा अपने कार्यों के लिए जाने जाते रहेंगे और एक साहित्यकार के रूप में सदा अमर रहेंगे।
श्रद्धेय गुरुवर को भावभीनी श्रद्धांजलि!!!