dil(2)

‘अजस्र’ किरपा गणेश की, सारों सगरे काम ।
वाणी, मात-पिता सहित, लियो राम का नाम॥

‘अजस्र’ शक्ति उस देवी से, सीता सत का नाम ।
कलम-मसी करते रहें, वीणापाणि प्रणाम ॥

‘अजस्र’ बली तुम पवन से, शंकर-सुवन प्रणाम ।
‘सवा-शतक’ सृजनन करूं, आगे तेरा काम ॥

धंवला-लक्ष्मी गतिक भी, ज्ञान-धनन असमान ।
इक जाती लागे भली, सूरत ‘अजस्र’ प्रणाम ॥

भरत-राम के प्रेम सा, जग में कहीं न पाय ।
माता बन क्यों बावली, ‘अजस्र’ द्वेष पनपाय ॥

राम यदि चाहो घर में, दशरथ बनकर देख ।
‘अजस्र’ राम बिन मर गए, पिता-पुत्र समरेख ॥

‘अजस्र’ साँचाइ राम है, झूठा जग का नाम ।
राम-राम सब जपत चले, बनते बिगड़े काम ॥

‘अजस्र’ माने त्रिदेव सम, तैतीस कोटि देव ।
अंश सभी में एक है, परम आत्मा सदैव ॥

‘अजस्र’ अवतारी गुम गए, काली-काली छाँह ।
गौर वर्ण भी डरा रहे, कलंक न लगे माँह ॥

‘अजस्र’ तिरंगा क्यों झुके, डेड अरब की शान ।
हिन्द-हिंदी सह अमर रहे, तेरे सभी निशान ॥

‘अजस्र’ आस्था इतनी रख, ईश कृपा बरसाय ।
माया मो फंद छूट क, भवसागर तर जाय ॥

‘अजस्र’ युग-युग बीतते, युग काला है आज ।
धर्म-अधर्म ,पुण्य-पाप में, काला कागा काज ॥

‘अजस्र’ काला कीचड् हुआ, मारे बड़ी सड़ांध ।
साफ तभी हो पायगा, कीचड़-कीचड़ माँज ॥

‘अजस्र’ कसौटी सत्य सभी, कलयुग पार न पाय ।
आटा फीका स्वाद् बिना, थोड़ा नमक मिलाय ॥

मिथ्या धुंध है फैल रही, छिप गया सत्यप्रकाश ।
‘अजस्र’ सूरज कल सत्य का, उदय होय आकाश ॥

‘अजस्र’ कंगुरा कब बने, चमचे लाख हजार ।
नींव दफन हो जायगा, कौन किसे दरकार ॥

‘अजस्र’ माया विज्ञापनो, मत ना तु भरमाय।
हरा-हरा सब दीखता, पाय , रेत ही पाय ॥

नो दिनों के नवरात्रे, ‘अजस्र’ शक्ति पनपाय।
दोहा इक्-इक मोती सा, सृजन तु करता जाय ॥

फ़ौज-रावणों देखकर, ‘अजस्र’ रह गया दंग ।
चलो राम पनपाय हम, सत्य-विजय करें जंग ॥

खा-पीकर भंडार् भरा, ‘अजस्र’ समृद्ध विकास ।
कदम-कदम चलता चले, उगता सूरज पास ॥

‘अजस्र’ सुधर तु बहुत गया, अब नवीन कुछ सीख ।
ऐड़े, पेड़े खा रहे, तू क्यों मांगे भीख ॥

‘अजस्र’ अन्न सब किसान का, धरती दाता नाम ।
इंसा तू क्यों लड़ रहा, भली करें अब राम ॥

‘अजस्र’ शरम को छोड़कर, जीवन आनंद कर ।
चार पल इस जीवन के, पल-पल रहा गुजर ॥

‘अजस्र’ दूध तो दूध है, काली गाय सफ़ेद।
पी ज्ञान उसी अमृत को, मेटे सारे भेद॥

‘अजस्र’ अकेला तू नहीं, साथ तेरे कइ संग ।
कदम-कदम बढ़ते चले, जमता रहे फिर रंग ॥

‘अजस्र’ खोना सीखे ले, खोना सब एक दिन ।
दुनियाँ है रोती रहे, बढ़े कारवाँ ‘जिन’ ॥

‘अजस्र’ जीवन दुख किसका, तेरा क्या जो लाय ।
हाथ खोल जीवन उड़ा, देख् तु उसकी सहाय ॥

सुंदर चोला ओढ़ कर, कागा बन् गया हंस ।
‘अजस्र’ आप घर देख लिय, शरमा जाए कंस ॥

पहिये, गाड़ी दंपती, परिवार भर सामान ।
‘अजस्र’ समान चलते रहें, जीवन सुख-मन मान ॥

‘अजस्र’ उधार की बान् गी, देख के मन् भरमाय ।
लेते, जी, जी ,जी हुजूर, देवत, मनन फटाय ॥

‘अजस्र’ गर्मी बहुतो लगे, ठंडा पानी पीय ।
दुनियाँ तपती रेत सी, तु मस्त मगन बस जीय ॥

‘अजस्र’ गैली दुनियाँ में, समझदारी तू रख ।
जोत जलाइ परमात्मा, उसके प्रेम को चख ॥

‘अजस्र’ खारी जुबान मत, मीठी बड़ी अनमोल ।
नमक् पानी जो मिल गया, कितनी हि शक्कर घोल ॥

‘अजस्र’ कहना क्या चाहे, न समझे , पाए जग ।
नीली दुनिया नील सी, नील सा दिखता नभ ॥

‘अजस्र ‘ दुखिया जग कोई, नाम विधाता लेव ।
जीवन सुख-दुख टोकरी, दुख-सुख एकवमेव ॥

‘अजस्र ‘ समझो बातों को, यह जग अजब दुकान ।
मीठा-मीठा बिक गया, बच गया कड्वा पान ॥

‘अजस्र’ स्वारथ-तुच्छ कारण, न मन मर्यादा रोल ।
पर दुख कातर जगत बन, देखो बजन्ता ढोल ॥

‘अजस्र ‘ माया-मानन में, मन को मत रोलाय ।
मान गया मन् कलप गया, माया गई रुलाय ॥

‘अजस्र’ दुनिया मतलब की, मतलब से ही काम ।
नमक, मिश्री सब जगत में, बाकि नाम ही नाम ॥

‘अजस्र’ मक्खी बन शहद की, कण-कण जोड़ती छत्त।
मानव बड़ा है स्वार्थी, अपना भी नहीं, धत्त ॥

‘अजस्र’ वनस्पति हरी है, लाल ढाक के पात ।
जिसका जैसा गुण रहा, वैसा उसका गात (शरीर) ॥

‘अजस्र’ जाति बीरादरी, ऊंच-नीच नहीं सम ।
जिसकी जहां गरज है, कोई नहीं है कम ॥

‘अजस्र’ खेल यह तेल का, चार पहिय दौड़ाय ।
तेल तेरा ज हुआ खत्म, चार कंधे फिर् पाय ॥

वो जाने उस भाग्य को, ‘अजस्र’ न जाने पाय ।
भूत गया, अब चल रहा, भावी भविष्य बताय ॥

‘अजस्र’ गीत तू रच रहा, दुनियाँ सुने इक दिन ।
याद तुझे कर रोयगी, बिछड़ेंगे जिस दिन ॥

‘अजस्र’ लक्ष्य संभाले रहा, घन-चक्र अभिमन्यु मीन ।
भवसागर जो तर गया, चमक उठे उस ‘ दीन ‘ ॥
‘अजस्र’ दोहा त तेज है, समझ ज समझे जान ।
काम सरे जो ले लिए, बाकी पड़े दुकान ॥

‘अजस्र’ आनंद गोविन् ज्यों, मन से भजता नाम ।
चुगली-जन चमचे बने, तेरा ना अब काम ॥

‘अजस्र’ निंदा से न बचे, न बच पाय भगवान ।
बस तु करम पर ध्यान दें, आगे भाग्यविधान ॥

‘अजस्र’ छोटे कदम् से ही, बालक चले संभल ।
लंबी-लंबी तू दौड़ता, पांव न जाए फिसल ॥

‘अजस्र’ गरीब भी जिय रह, जैसे जिए अमीर ।
एक ऐश* ही घुल रहा, एकन ऐश° करीर ॥
( ऐश*–राख , ऐश°–एशोआराम )

‘अजस्र’ सोच कर सोच लिय, साथ नहीं कुछ जाय ।
फिर भी मन मृगतृष्णा, मिटी ! कोई बताय ॥

‘अजस्र’ काम को बोझ् समझ, दुःखी बहुत है जन ।
काम संग आनंद किय, खुश हो तन् और मन ॥

‘अजस्र’ डर तो डर ही है, शेर, सांप या भूत ।
डर से उबर जो तु गया, लक्षित पहुंचे अकूत ॥

‘अजस्र’ दबी हुइ बात को, शब्दों से ना कुरेद ।
राज खुले दिल दूखता, बोले से मनभेद ॥

‘अजस्र’ सूखे पेड़ों की, माया बड़ी अजीब ।
घर-जरूरत सब सध् रही, फैशन नई करीब ॥

‘अजस्र’ चोरी ने रोक् लो, मोती है अनमोल।
कागा कइ जो चुग रहे, पहन हंस के खोल ॥

‘अजस्र’ बड़े समाजों में, नाम का मत ना रह ।
कड़वी भले पर बोल् दे, जनों पीड़ा ,कुछ कह ॥

‘अजस्र’ अंधेरा जगत में, मन के नैना खोल ।
आँखे हो, न् हीं सूझता, कानों में रस घोल ॥

प्रेम भरा परिवार है, ‘अजस्र’ सकल संसार ।
प्रेम की बेलि सींच ले, महिमा अपरंपार ॥

मन की खिड़की खोल ले, ‘अजस्र’ नजारा लेय।
रंग-बिरंगे जगत में, सब रंगों, तू स्नेय ॥

‘अजस्र’ लोग तो बूझते, अजस्र,अजस्र, यह कौन ?
डी कुमार मनो आस्था, आगे वो भी मौन ॥

‘अजस्र’ चलत संसार की, गति समझे ना कोय ।
जैसे पवन् है खेलती, जैसे बहता तोय ॥

‘अजस्र’ बैठ क्या सोचता, पल-पल बने उदास ।
खुश हो जीवन फूल से, जी, कुल मन उल्लास ॥

‘अजस्र’ अंधेरी रात में, नींद कभी खुल जाय।
उठा कलम लिख डाल तू , नए-इ-नए अध्याय ॥

‘अजस्र’ जीवन् के मार्ग में, चढ़ा-उतार सब साथ ।
उठा पांव, रख हौसला, मंजिल तेरे पास ॥

‘अजस्र’ आध मिलती रहे, पूरी भले न पाय।
रहे मन् संतोष तेरा, चार गुनी हो जाय ॥

‘अजस्र’ तमन में सूझता, मन के नैन हजार।
उसकी राह चलत चले, पाता जाए प्यार ॥

‘अजस्र’ सपन भी चल रहे, नींद भले हो अंग ।
कलम तेरी में जागृति, देख लोग हैं दंग ॥

‘अजस्र’ अंधड़ों राह से, खोज नया उजियास ।
जो भी तुझको सूझता, मेटे ज्ञान् की प्यास ॥

‘अजस्र’ साया चराग का, घर अंधेरा बाकि ।
घनी-काली रात बहुत, अभी सवेरा बाकि॥

‘अजस्र’ अजस्र सब ही करे, ‘अजस्र’ न समझे कोय ।
जो जग ह्रदयों में बसा, एक रूप वो होय ॥

छाया जो सुख स्वप्नों की, ‘अजस्र’ ना पाछे पड़ ।
भूत-अतीत के कारणे, वर्तमान ना लड़ ॥

‘अजस्र’ रजनियाँ चांदनी, गुजर गई बिसराय।
काली रात अमावस की, दीपक चलो जलाय ॥

‘अजस्र’ साबुन-शैंपू से, तन-सिर धोए जाय।
मन विवेक से रीत गया , तब बुद्धि रही बिल्माय ॥

‘अजस्र’ एक तू ही नहीं, दुनियाँ मंद हजार ।
मोती-मोती सृजन कर, बहे ज्ञान की धार ॥

तुझ से बर्बाद कई है, ‘अजस्र’ जगत के माय ।
मातम छोड़, तु लक्ष्य सजा, अर प्रयास दौड़ाय ॥

प्रेशर कहीं, कोई हो, लड़ना है बेकार ।
प्रेशर हटे ताकत् दिखा, ‘अजस्र’ बेड़ा फिर पार ॥

‘अजस्र’ कचरा मन् में भरा, मलमल तन को धोय ।
साबुन – तेल की महक में, मत ना जीवन खोय ॥

चाटू-चपल-चकोरों से, ‘अजस्र’ संभल कर चल।
पीठ-पीछे प्रहारते, तेरा बिगाड़े कल ॥

नौकर राज में कइ हैं, लघु कोइ, कोइ वृहद ।
‘अजस्र’ बड़ा जो बन गया, पार करता क्यों हद ॥

‘अजस्र’ राज त चला गया, राजतंत्र क्या काम ।
जनता सब है देखती, कर दे काम तमाम ॥

‘अजस्र’ रोना सीख लई, हँसी मना सभ्य राज ।
हंसे जो पागल बने, इन तंत्र क्या काज ॥

‘अजस्र’ गरज के कारणे, घर तेरे जो आय।
महल तेरा यूं इ खड़ा, बोलो क्या ले जाय ॥

‘अजस्र’ तु निजी स्वारथ में, क्यों अंधा है होय ।
चोरी इक या लाख की, फरक नहीं है कोय ॥

सेवक-सेवक सब करे, सेवा का ना भाव ।
‘अजस्र’ मौका ज मिल गया, बनते सब उमराव ॥

‘अजस्र’ मरन को छोड़ दिया, गइया-मइया पूज ।
भूख-लम्पी-लट्ठ पड़ रहे, मरने तक भी जूझ ॥

‘अजस्र’ आग-आतंक से, जलता रहा जो जग ।
कुछ नहीं बच पाएगा, आग बढ़े जो हद ॥

तुच्छ संकीर्ण इ प्रेम में, ‘अजस्र ‘ प्रेम ना तोड़ ।
आत्मा कष्ट में रोयगी, जीवन दिय जो छोड़ ॥

‘अजस्र’ रिश्वत के खेल में, भृष्टों-माल-गोदाम ।
भांग कुए में घुल रही, करे नियामक ध्यान ॥

जय-भीम् ,भीम ‘अजस्र’ करे, ‘भीम’ समझ ना पाय ।
भीम् – वाद के कारण ही, भीम, भीम कहलाय ॥

‘अजस्र’ भीम आदर करे, लेकर भीम विचार ।
कोरे भीम के नाम पर, करे क्यों लोग प्रचार ॥

‘अजस्र’ हिंदु घर जन्म लियो, हिंदु कहे कहलाय ।
धरम सनातन एक ही, नाम है कइ बताय ॥

‘अजस्र’ रिश्ते सब अजब हैं, अपने-अपने नाम ।
गरज गए सब गूजरे, किसका क्या अब काम ॥

‘अजस्र’ सलोना तू बहुत, ‘काला’ ही पहचान ।
काला मन मत राखिजो, सारा जग अवमान ॥

‘अजस्र’ देखे सूरत को, सीरत देख न पाय ।
काले-गोरे फेर में, जग जाता भरमाय ॥

‘अजस्र’ अपनी तु सुन जरा, दूजों पर ना ध्यान ।
बोलें सभी खुद-अक्ल से, तु भी ज्ञानी सुजान ॥

‘अजस्र’ मुस्करा, जीवन जी, काहे मुँह लटकाय ।
स्वर्ग-नरक सब बाद में, आया है सो जाय ॥

‘अजस्र’ जमीर जगाय ले, ज्ञानों पट को खोल ।
मन में खुदइ प्रकाश कर, पीछे जिह्वा खोल ॥

‘अजस्र’ विचारों समुद में, गोता रोज लगाय ।
मोती-मोती सृजन करे, पनडुब्बा कहेलाय ॥

‘अजस्र’ सवाया ही भला, रहे बधिक ने ठौर ।
कमतर बस खुरचन करें, बढ़े जीव सिरमौर ॥

‘अजस्र’ देख जग नीतियां, मन-इ-मन उहापोह ।
नव-रंग नव-विचार से, करता वो सममोह ॥

प्रलोभनों दुनियाँ भरी, ‘अजस्र’ तु मन समझाय ।
बंधे जीव् सब पेट से, पेट सभी करवाय ॥

रोजी हराम्-हलाल की, सोच विचार तू कर ।
‘अजस्र’ प्रतिफल मिली रहे, मन काहे कोइ डर ॥

‘अजस्र’ राज के कारणे, सिल ले तु यह जुबान ।
कीचड़ छींटे जो पड़े, हो जाए बदनाम ॥

‘अजस्र’ तीखा उदरों में, गड़बड़ बड़ी मचाय।
पर भोजन तीखे बिना, स्वाद नहीं ला पाय ॥

‘अजस्र’ चुपके तु जो करे, जग सब देखे तोय ।
भल अंधेरा बहुत है, कभी उजाला होय ॥

‘अजस्र’ बूंदें गिर रही, प्रेमरस सराबोर ।
जाका तन-मन् भीग रहा, प्रेम् के गोताखोर ॥

‘अजस्र’ बत्तियां जलाय ले, अंधियारा घन् घोर ।
इक टमीका बस तेरा, बाकी ओर न छोर ॥

‘अजस्र’ काया खोखलयी, हाड-मास बस नाम।
तोड़ पिंज उड़ जाय तो, माटी का क्या काम ॥

‘अजस्र’ पदमा कारण से, नागमती बिसराय ।
जिसकी ऐसी धारणा, चैन कहाँ से पाय ॥

मूंग, मूंग से ना बड़ा, ‘अजस्र’ समझ ले बात ।
सबसे अलग् जो दीखता, दिखती फिर औकात ॥

‘अजस्र’ देग फिर पक गया, इक चावल के हाल ।
परखी सब है समझता, बानगी का ही कमाल ॥

‘अजस्र’ पंखा चलत रहा, तीन पंखुड़ी साथ ।
भावी ,भूत् बस नाम का, वर्तमान चले साख ॥

सुख के बीते चार पल, ‘अजस्र’ स्वप्न मत रोल ।
बस छाया ही रह गई, अब तो अखियां खोल ॥

‘अजस्र’ प्रेम क्या चीज है, मरने तक ले आय ।
जिनो प्रेम बहुवचन सा, उनको क्यों बिसराय ॥

‘अजस्र’ बेटी लाडकड़ी, माता का वह मान ।
जीवन यौवन पहुंचते, कौन पराया, जान ॥

‘अजस्र ‘ सोते जगत में, सपनों का संसार ।
नींद खुली सपने खत्म, कैसा, कौन का प्यार ॥

‘अजस्र’ रासा जगती का, वो ही समझे एक ।
नदियां क्षण भर, भर गई, चटख धूप अब देख ॥

‘अजस्र’ झिंगुर, मिल बोलते, अपनी टेर लगाय ।
अपनी दुनिया चल रही, कोय कितना चिल्लाय ॥

नमक, चीनी के खेल में, गौरा, गौरी झख्ख ।
‘अजस्र’ दोनों मिलन गए, सभी स्वाद तब फख्ख ॥

घर की बेटी लक्ष्मी, प्रेम अति वो पाय ।
‘अजस्र’ जो घर छोड़ दिया, बहु क्यों तड़पे जाय ॥

‘अजस्र’ राम के हेत में, तु जीवन जीय जाय ।
दुनियाँ में फल बहुत है, जो मन चाहे पाय ॥

‘अजस्र’ संत बन राम सा, राम् के रूप अनेक ।
मरा-मरा भी राम् बने, राम-राम रट देख ॥

‘अजस्र’ देव बस एक है, ‘ मालिक ‘ जिसका नाम ।
ब्रह्मा से ब्रह्मांड बना, करता-धरता राम ॥

छोड़ो शर्म को मुखर बनो तुम, बोलो हृदय के सब उद्गार ।
आसमान भी लगेगा छोटा, उन्मुक्त उड़ोगे जब पंख पसार ॥

पनडुब्बे से तुम बन जाओ, अथाह सागर में गोत लगाओ ।
मोती ज्ञान के अतुल खजाना, सृजन करो ‘अजस्र ‘ शृंगार ॥

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