क्या है…?
मेरे अंदर छिपाने का
बाल्य काल से ही मैं नंगा था,
पुस्तकों में मस्तक लगाके ढ़ूँढ़ता था,
मैं अपने आपको, आंतरिक दुनिया में,
कौन हूँ मैं आखिर…? विचार कई थे मेरे,
चक्कर काटने लगे, पागल था मैं,
पुस्तकालय मेरा प्रिय आलय रहा,
पढ़ते – पढ़ते मन भारी होता था,
विचारों के बोझ में सिर झुक जाता था,
समझ में आता ही नहीं कि क्या मतलब है… …
मेरा इस दुनिया में आने का, कहाँ था मैं,
इस दुनिया में आने से पहले क्या करता था?
कई भ्रम थे, कर्म फल की धारणा थी,
आशाओं के अंगारे पर चलना,
निराशा में अपने को जलाते विह्वल होना,
शून्य में व्यतीत रहा बचा समय मेरा,
बरसात के दिन थे वे, भीग जाता था,
धर्म, दर्शन, साधना मेरे प्रिय विषय थे,
पीपल के नीचे ध्यान मग्न रहते देखकर
लोग मेरे चारों ओर चक्कर काटते थे।
अनेक आशाएँ थीं उनकी कैसे पूर्ति करूँ मैं,
मानव योनि का हूँ मैं भी उनके जैसे,
भूख – प्यास है, एक साधारण इंसान हूँ,
अकेला रहना ज्यादा पसंद करता था।
जो कुछ मन में आये उसी को,
खुले में सबके साथ बोल देता था,
परवाह नहीं थी , मुझे लोग क्या समझेंगे
कभी अतीत में रहता तो कभी भविष्य में।
विचारों के कारखाने में, श्रमिक था मैं,
माँ हमेशा टोकती थी मेरी हर बात का कि,
‘छठवाँ ज्ञान नहीं था, जिएगा कैसे?
मायावी दुनिया में, धोखा खाएगा जरूर…!