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दलित स्त्री केंद्रित कहानियाँ : स्वप्न, संघर्ष और यथार्थ का ताना-बाना
साहित्य लेखन की आरम्भिक विधा कविता रही। कविता हो या कथा, पाश्चात्य हो या भारतीय, पुरुष लेखकों की रचनाओं में चित्रित ‘स्त्री छवि’ पर सहानुभूति और स्वानुभूति के आलोक में अनेक प्रश्न स्वतःस्फूर्त उठते रहे हैं। उदाहरणार्थ, लियो टाल्सटाय ने जब ‘अन्ना केरेनिना’ में प्रतिभाशाली अन्ना को प्रेम में धोखा खा आत्महत्या करते दिखाया तो भी सवाल उठे, यदि ‘किसी स्त्री ने ‘अन्ना केरेनिना’ की रचना की होती तो क्या वह उसे आत्महत्या करती दिखाती?’ इसी प्रकार प्रेमचंद की ‘कफन’ कहानी पर भी अनेक लेखक एवं लेखिकाओं ने प्रेमचंद से भिन्न दलित पात्रा- बुधिया की स्थिति एवं उसके मानसिक अवगुंठन या मनोछंद की सम्भावनाओं की गणना करवायी!
हिन्दी साहित्य के इतिहास पर विहंगम दृष्टि डाली जाए तो ज्ञात होता है- आदिकाल में स्त्रियां केवल युद्ध की प्रेरक एवं हृदय में पम्प करने की वस्तु बनकर रह गयीं। भक्तिकाल की मीरा जैसी विद्रोही स्त्री को भी पुरुष इतिहासकारों ने फुटकल खाता दिया। सम्पूर्ण रीतिकाल में स्त्रियां ‘पिकबैनी’, ‘मृगनैनी’ एवं आधुनिक काल में ‘तपस्विनी’, ‘चिरवियोगिनी’ और ‘समाजसेविका’ के रूप में ही चित्रित होती रहीं । पुरुष लेखन में स्त्री का माँ, बहन, पत्नी, बेटी और प्रेमिका से भिन्न एक स्वतंत्र मानवी रूप में चित्रण का अभाव ही दिखता है। अपवादों को छोड़ दिया जाए तो ज्ञात होता है अधिकांशतः पुरुष रचनाकारों ने स्त्री के मानवीय रूप की उपेक्षा ही की। ज्यादातर पुरुष रचनाकारों ने स्त्रियों के मानसिक अवगुंठन और भाषिक मनोछंद को समझने का प्रयास किया ही नहीं। इन्हीं कारणों ने स्त्रियों को कलम उठाने को विवश किया। लंबे समय तक पुरुष, स्त्रियों की भाषा में ही हलराते दुलराते रहे, किन्तु अब स्त्रियों ने स्वयं कलम उठा ली! फलतः स्त्री के अनुभव के आलोक में ‘सहानुभूति बनाम स्वानुभूति’ की वास्तविकता स्पष्ट हुई। महादेवी वर्मा ने तो ‘श्रृंखला की कड़ियां’ में बहुत पहले ही स्पष्ट किया था, ‘‘पुरुष के द्वारा नारी का चरित्र अधिक आदर्श बन सकता है, परंतु अधिक सत्य नहीं, विकृति के अधिक निकट पहुंच सकता है, परंतु यथार्थ के अधिक समीप नहीं। पुरुष के लिये नारीत्व अनुमान है, परंतु नारी के लिए अनुभव। अतः अपने जीवन का जैसा सजीव चित्र वह हमें दे सकेगी वैसा पुरुष बहुत साधन के उपरांत भी शायद ही दे सके।’’
आज दलित हो या गैरदलित स्त्री, यथार्थ की अभिव्यक्ति पूरी प्रखरता से कर रही हैं। ऐसे में रजत रानी मीनू एवं वंदना द्वारा संपादित- ‘दलित स्त्री केन्द्रित कहानियां’ (पुस्तक) से गुजरना अधिक समीचीन इसलिए भी हो जाता है, क्योंकि दलित लेखन पर आरंभिक दौर से ही अनेकानेक सवाल उठाए जाते रहे हैं। गैरदलितों द्वारा उनकी मान्यताओं को निरस्त किया जाता रहा है। ये कहानियां उन सभी सवालों के न केवल प्रत्युत्तर गढ़ती हैं बल्कि दलित लेखन पर लगाए जा रहे आरापों-प्रत्यारोपों का भी स्पष्टीकरण करती हैं। मसलन, ‘दलित स्त्री को गैरदलित स्त्री से भिन्न अपनी मुक्ति का रास्ता क्यों अख्तियार करना पड़ा?’, ‘प्रगतिशीलता बनाम अम्बेडकरवाद?’। दलित कहानियों पर एकरसता, एकरूपता और कलात्मकता के अभाव के साथ अनवरत सौन्दर्यशास्त्र पर भी सवाल उठाए जाते रहे हैं । जबकि दलित आलोचक इनसे भिन्न राय रखते हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि दलित साहित्य के सौन्दर्यशास्त्र में सम्बन्ध में लिखते हैं, ‘‘दलित साहित्य आत्मानुभूति की अभिव्यक्ति करता है इसलिए उसकी श्रेष्ठता शब्दजीवी नहीं है। न शाब्दिक चमत्कारों तक ही सीमित है। अर्थ-गाम्भीर्य दलितों का स्वीकृत जीवन-मूल्य है, जिस पर दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र टिका है।’’(दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र/ओमप्रकाश वाल्मीकि/पृ.सं.-50)
ये कहानियां इन सभी प्रश्नों के उत्तर देती, ‘इण्डिया बनाम बहिष्कृत भारत’ के विविध आयामों को उद्घाटित करती हैं। वर्तमान में शोषण के बदलते रूपों के साथ दलित स्त्री के चिंतन और वैचारिकी में आए तमाम परिवर्तनों को भी रेखांकित करती हैं।
‘दलित स्त्री केन्द्रित कहानियां’ पुस्तक में एक साथ दलित रचनाकारों की तीन पीढियों की कुल 23 कहानियां संकलित हैं। सभी कहानियां नायिका प्रधान हैं। जिनमें विषय की विविधता के साथ अन्तर्वस्तु और शिल्प की विशिष्टता भी लक्ष्य की जा सकती है। उदाहरणार्थ, प्रहलाद चंद दास की ‘कजली’ कहानी परितप्त और परेशानहाल धरती की मां होने का जज्बा रखती है। अपने दुखों का निवारण उसे दूसरों के दुखों को दूर करना लगता है। हरिराम मीणा की ‘अमली’ कहानी की अमली अपने अदम्य साहस से तिमनगढ़ के राजा को चुनौती देती है।(हालांकि रानी द्वारा किए गए छल से मारी जाती है। किन्तु कहानी की बड़ी विशेषता है कि अमली ‘हारी बाजी की जीत’ को मरते-मरते भी सिद्ध कर जाती है।) श्यौराज सिंह बेचैन की ‘हाथ तो उग ही आते हैं’ कहानी की ‘रुक्खो’ दलित समाज की अनपढ़ किन्तु संघर्षवान दलित मजदूर स्त्री का प्रतिनिधित्व करती है। जो युद्ध और दंगे में अपना सर्वस्व गवां बैठी है। अंततः मालकिन के बेटे की लापरवाही के कारण- रुक्खो अपने बेटे के हाथ भी गंवा बैठती है। ये कहानी न केवल दलित समाज की शैक्षणिक, सामाजिक और राजनीतिक विडंबनाओं और विसंगतियों को उजागर करती है बल्कि सवर्णवादी मानसिकता से भी साक्षात्कार करवाती है। अनिता भारती की ‘नई धार’ कहानी की ‘रमा’ ‘अप्प दीपो भव’ का संदेश देती हुई, ‘अभिव्यक्ति’(गैरदलित पात्रा) का दलितों के प्रति दोहरे चरित्र को उजागर करती है। जयप्रकाश कर्दम की ‘पगड़ी’ कहानी परंपरा से विलग- एक स्त्री- ‘सरबतिया’ के पगड़ी बांधने की कथा है। ऐसे समाज में जहां पुरुषों का वर्चस्व है। ये कहानी समाज में आए बदलाव की भी सूचक बनती है। रजनी तिलक की ‘बेस्ट और करवाचैथ’ एक स्त्री के ‘स्व’ की कहानी है जो आतताई पुरुष के एक आगे घुटनों नहीं टेकती। उससे समझौता नहीं करती बल्कि करवाचैथ के दिन ही अपने आततायी पति से न केवल विवाह-विच्छेद करती है, बल्कि उस दिन को अपनी बेटी के साथ सेलिब्रेट भी करती है। टेकचंद की ‘ए.टी.एम.’ कहानी में नई स्त्री (शिक्षित और स्वावलंबी स्त्री) की विडंबनाओं को उजागर किया गया है। हम आज भी ऐसे विडंबनाग्रस्त समाज में जी रहे हैं जहां परिवार हो या पुरुष यह तो चाहता है कि स्त्री कमाए किन्तु ‘वह अपने कमाए धन का अपने हाथों से निवेश करे।’ ये बात पुरुष या परिवार को नागवार लगती है। उक्त कहानी की नायिका ‘घर-बाहर’ के अंतद्र्वन्द्व को झेलती अंततः बिना किसी की परवाह किए अपने कमाए धन पर अख्तियार की घोषणा करती अपना एटीएम देने से इनकार करती है, ‘‘किस नै मेरा चाल-चलण अच्छा नहीं लगता…किसे नै मेरा ओढणा-पहरणा…किसे ने बोलचाल ना भावती…पर ये बात नहीं है…अगर मैं भी गांव की और बहुओं की तरह चुपचाप नौकरी करती रहूं और अपणा ए.टी.एम …सौंप दूं तो किसी तरह का रोणा नहीं है।’’ आखिर कब तक स्त्री लदनी घोड़ी बनकर रहेगी? (लदा हुआ हिस्सा भी उसका नहीं। उसके हिस्से तो चाभुक आता है।) यहां ‘फर्क नहीं पड़ता’ का भाव ही नई स्त्री को और भी नई बना देता है।
नई पीढ़ी के रचनाकारों में वन्दना और दीपा का नाम लिया जा सकता है। दोनों ही कहानियां- क्रमशः ‘नालियाँ’ और ‘जीत’ दलित समाज के स्वप्न, संघर्ष और सफलता की बेमिशाल कही जा सकती हैं। दीपा की कहानी शिक्षासम्बलित स्त्री के जज्बे और जुनून से हासिल की गई सफलता की कहानी है। वहीं वन्दना की ‘नालियां’ दलित पात्रा- नविता की सफलता के बावजूद उसके स्वप्न- (पुश्तैनी गाँव में पक्का मकान बनवाने का) के अधूरे रह जाने की कहानी है! कहानी के अंत में एक मौन पसर जाता है जो वर्चस्ववादी व्ययस्था के प्रति अनेक सवाल खड़े करता है।
सुशीला टाकभौरे की ‘कड़वा सच’ की शशि, सूरजपाल चैहान की ‘चोट’ की रज्जो, सुशीला महरौल की ‘प्रतिकार’ की मीता, नामदेव की ‘नमिता’ की नमिता, अजय नावरिया की ‘इज्जत’ की उषा जैसी कहानियों में अनेक स्त्री पात्र हैं जो सुख-दुख की पोटली उठाए अपने-अपने संघर्षों के साथ- जीवन की डोर खींची चली जा रही हैं। पूरी जीवटता के साथ। पूरे साहस के साथ। इन्हें उम्मीद है ‘वह सुबह कभी तो आएगी।’
रजनी दिसोदिया और कौशल पंवार की कहानियां ग्रामीण समाज के स्त्री पात्रों के बहाने ‘इण्डिया बनाम बहिष्कृत भारत’ के यथार्थ को उद्घाटित करते हैं! यहां अस्तित्व और अस्मिता का संघर्ष है, पीड़ा और सत्रांस है, मान है अपमान है, अधिकार और कर्तव्य है, सपने हैं, घर-बाहर का अंतद्र्वन्द्व और आकांक्षाएं हैं। जो बात बहुत जरूरी है- वह है, नई स्त्री का ‘स्वत्व’! स्त्री के पारम्परिक रूप- जैसे, मां-पत्नी-बेटी-बहू और प्रेमिका से विलग ये स्त्रियां मानवीय रूप को स्वीकारने पर बल देती हैं। उदाहरण स्वरूप- प्रहलाद चंद की ‘कजली’ कहानी की पात्रा- कजरी न केवल खल पात्र- छोटे से सीता की अस्मिता की रक्षा करती है- बल्कि सीता के विवाह में होने वाले खर्च को उठाने का जिम्मा भी लेती है। ऐसे में सीता के रिश्तेदार- छतर के मुख से कजरी के लिए अनायास ‘दीदी’ शब्द निकलता है जिसका प्रतिकार करती कजली कहती है, ‘‘मैं किसी की दीदी नहीं, किसी की कुछ नहीं। सिर्फ कजली हूं, कजली!’’ ‘नेकी कर दरिया में डाल’ की यह भावना ही कजरी को उच्चतर मानवीयता प्रदान करती है। जो असाधारण है! हर परित्यक्त स्त्री के लिए कजली का घर उसका मायका बनता है। हालांकि कहानी में कजली की विवशता उसे नैतिक कमजोरियां भी प्रदान करती हैं। किन्तु इन्हीं कमजोरियों को वह अपने और अपने पीड़ित-शोसित समाज के दुखों से उबारने की ढाल बना लेती है! कहानी मार्मिक होने के साथ करुणासम्बलित न्यायदृष्टि को दिखाती है।
‘अमली’ हरिराम मीणा की आदिवासी समुदाय की नटिनी ‘अमली’ की वीरता और कौशल की कहानी है। यह इतिहास में दलित और आदिवासी समाज के नायक और नायिकाओं के साथ हुए छल-प्रपंच को दिखाती है। स्पष्ट करती है कि दलितों और आदिवासियों के यहां वीर और साहसी नायक-नायिकाओं की कमी नहीं रही। वह हर चुनौती का पूरी दिलेरी से स्वागत करते, अपनी सफलता का परचम लहराने का जज्बा रखते हैं। हां, आरम्भ से ही उनके साथ छल-प्रपंच कर उनके नाम, उनके निशां इतिहास से अवश्य मिटाए जाते रहे हैं।
‘पगड़ी’ कहानी की सरबतियां, पति- रामसिंह की उपेक्षा और निकम्मेपन से परेशान घर-बाहर के अंतद्र्वन्द्व को झेलती अपने बच्चे को पालती-बढ़ाती है। सरबतियां के बेटे का विवाह तय हुआ है। घर में पंच और रिश्तेदारों का जमावड़ा हुआ है। ऐसे में घर के प्रधान को ‘पगड़ी’ पहननेध्पहनाने का रिवाज है। परम्परा कहती है- घर का प्रधान ‘पुरुष’ होता है किन्तु यह कहानी समाज में आए वैचारिक परिर्वतन को भी दिखाती है। सरबतियां- ही घर-बाहर सारे दायित्वों का निर्वाह करती है। ऐसे में घर का प्रधान- उसका निकम्मा पति- रामसिंह कैसे हो सकता है? अंततः सरबतिया को ही पगड़ी बांधने का सर्वसम्मति से निर्णय लिया जाता है।
‘शशि, सुशीला टाकभौरे की ‘कड़वा सच’ कहानी की मुख्य पात्रा हैं। पूरी कहानी में एक दलित स्त्री रचनाकार के अंतद्र्वन्द्व को दिखाया गया है। वह चाहकर भी अपने परिवेश से बाहर की रचनाएं नहीं कर पाती। हजारों कोशिशों के बाद भी उसका अंतद्र्वन्द्व समाप्त नहीं होता, ‘‘कैसे करे… कल्पना और कहां से लाये… यथार्थ की अनुभूति! कैसे लाये…अपनी लेखनी में विविधता…?’’ अंततोगत्वा कहानी स्पष्ट करती है, दलितों की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक पृष्ठभूमि गैरदलितों से भिन्न होती है। ऐसे में दलित साहित्य के सौन्दर्यशास्त्र की उत्कृष्टता के पैमाने या निकष भी दलितों की ही पृष्ठभूमि से लाने होंगे।
अनिता भारती की ‘नयी धार’ कहानी बड़ी ही सूक्ष्मता से रेखांकित करती है कि क्यों दलितों को अपनी मुक्ति का रास्ता गैरदलितों की मुक्ति से अलग अख्तियार करना पड़ा! कहानी गैरदलित एक्टिविस्ट ‘अभिव्यक्ति’ के दोहरे चरित्र को बड़ी ही सूक्ष्मता से दिखाती हुई- रमा(दलित पात्र) में ‘अप्प दीपो भव’ का स्फूरण करती है, ‘‘हमें किसी के रहमोकरम की जरूरत नहीं, हम अपनी लड़ाई खुद लड़ सकते हैं।’’ कहानी जीवन का यथार्थ उद्घाटित करती है, ‘‘जब कोई दलित ग्रुप दलित मुद्दों पर अपनी बात रखता है तो ये तथाकथित प्रगतिशील लोग उसे जातिवादी फासिस्ट घोषित कर देते हैं और यही प्रगतिशील लोग दलित और उनके मंचों की उपेक्षा कर अपने मंचों से दलितों के बारे में बोलते हैं तो प्रगतिशील, डेमोक्रेटिक और मानवाधिकारवादी कहलाते हैं।’’
दलित स्त्री की पीड़ा और उसका संघर्ष गैदरलित स्त्रियों से दुगना-तिगुना होता है। इसका सहज ही अंदाजा तमिल कवयित्री सरूपा रानी की निम्न पंक्तियों से लगाया जा सकता है-
‘पुरुष अहंकार एक गाल पर थप्पड़ मारता है
तो गली में जातीय अहंकार दूसरे गाल पर।’
आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व- थेरी मुक्ता ने लिखा था- ‘अहो मैं मुक्त नारी/मेरी मुक्ति कितनी धन्य है।’ किन्तु दलित स्त्री आज भी ‘मुक्त’ नहीं हो पाई- भूख, अभाव, अपमान, और पूर्वग्रह का शिकार एवं अवसर और समानता के अभाव की राजनीति का सिलसिला अनवरत आज भी जारी है। सुमित्रा महरौल की ‘प्रतिकार’ कहानी, स्पष्ट करती है, पढ़े-लिखे लोग भी जातिवादी मानसिकता का परित्याग नहीं कर पाते। कहानी की सार्थकता तब स्पष्ट होती है जब दलित पात्रा- संवैधानिक तरीके से न्याय के लिए लड़ती है और अंततः जीत हासिल करती है। ‘दलित’ शब्द का लम्बे समय तक अर्थ, ‘दबाया’ या ‘मर्दित किया हुआ’ लगाया जाता रहा है, किन्तु आज दलित का अर्थ ‘प्रतिकार’ या ‘विद्रोह’ के रूप में भी देखा जा रहा है। सुमित्रा महरौल की ‘प्रतिकार’ और सूरजपाल चैहान कि ‘चोट’ कहानी में इसका ध्वन्यार्थ लक्ष्य किया जा सकता है।
साहित्य ही नहीं सिनेमा में भी अनेक ऐसे उदाहरण दृष्टिगोचर होते रहे हैं जिनमें स्त्रियां पति और परिवार को ही अपना वजूद और अपनी पहचान मानती हैं। गौरतलब हो- ‘अर्थ’ फिल्म की नायिका- स्मिता पाटिल जो स्वावलंबी है किन्तु पति द्वारा परित्याग करने का सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाती, फलतः आत्महत्या कर लेती है। ‘बेस्ट ऑफ करवाचैथ’ उत्तराधुनिकता में आए बदलाव का सूचक है। जहां स्त्रियां निर्णय ले रही हैं- ‘फर्क नहीं पड़ता’ वाले भाव से, एकल अभिभावक की भूमिका भी बखूबी निभा रही हैं। उनके लिए ‘स्वत्व’ पहले है, और इनका यह स्वत्व परिवार से अलग नहीं है। कहानी में नायिका करवाचैथ के दिन न केवल विवाह-विच्छेद करती है, बल्कि नायिका अपनी बेटी के साथ कामरेड पति- के स्वामित्व से आजादी के पल को सेलिब्रेट भी करती है!
रजत रानी मीनू की ‘सरोगेट मदर’, बिलकुल नए विषय को केन्द्र में रखकर लिखी गयी कहानी है। जो स्त्रियां किसी कारण मां नहीं बन पातीं, वे सरोगेट मदर के द्वारा मां बनने की अपनी आकांक्षा पूरी करती हैं। कहानी में दलित पात्रा- फूलमती है जो कई बार मां बनी और कई बार सरोगेट मदर (दूसरों की भलाई करने के भाव से)। बदले में उसे क्या मिला, खाने-पीने को कुछ रुपये, बस! किन्तु जब उसकी बेटी के बच्चा नहीं हुआ और उसके ससुराल से उसे छोड़ देने की धमकी मिली, तो फूलमती बहुत परेशान हो जाती है। उसे किसी भी स्थिति में यह स्वीकार्य नहीं किन्तु अनेक प्रयास (जादू टोना, डॉक्टरी उपचार) करने के बाद भी जब वह असफल रहती है तब वे स्वयं अपनी बेटी- चन्दो की सरोगेट मदर बनने को राजी होती है। किन्तु फूलमती की कोख पहले ही कई बार बच्चे जनने के कारण और सरोगेट मदर बनने के कारण छल्ली हो चुकी होती है। अंततः हताश, निराश फूलमती व्यवस्था को कोसती कहती है, ‘‘जो औरत दुनिया की औरतों को खुशी दै सकत है। आज वह अपनी औलाद को खुशी नांय दै पा रही है। लानत है ऐसी मशीनों पर, ऐसे डॉक्टरों पर? ऐसी व्यवस्था पर जो सबके लिए एक जैसी नांय बनी हैं। ये भी बामन की बनाई जात की तरियों पक्षपात करे हैं।’’
वर्चस्ववादी व्यवस्था के साथ पितृसत्ता और बाजारवाद की दोहरी-तिहरी मार झेलती दलित स्त्री का प्रतिनिधत्व आज भी विचारणीय है, ‘शिक्षा, साहित्य, संस्कृति, ज्ञान, विज्ञान, व्यापार, राजनीति, निजी संस्थाओं, शासन-प्रशासन’ में दलित स्त्री का प्रतिनिधित्व नगण्य है। आजादी के लम्बे अरसे बाद भी दलित स्त्री की पीड़ा और उसका सत्रांस कम नहीं हुआ। वे आज भी दलित, शोषित पीड़ित श्रमिक हैं और उनके श्रम का उचित मूल्यांकन न उन्हें घर में मिल रहा है न बाहर ही!
कहना न होगा रजत रानी मीनू द्वारा संपादित ‘दलित स्त्री केन्द्रित कहानियाँ’ नई सदी की एक नवीन उपलब्धि की तरह पढ़ी जानी चाहिए। क्योंकि सारे आरोपों-प्रत्यारोपों का खण्डन-मण्डन करती यह कृति दलित कहानियों की लम्बी विकास यात्रा तय करती है। निराला के शब्दों में कहूं तो ‘नव गति, नव लय, ताल छंद नव’ के साथ दलित स्त्री के स्वप्न, संघर्ष और यथार्थ का ताना-बाना बुनती एक नया सौदर्यशास्त्र रचती!
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समीक्ष्य कृति : दलित स्त्री केंद्रित कहानियाँ
संपादक : रजत रानी मीनू एवं सह संपादक : वंदना
प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
प्रथम संस्करण 2024
मूल्य : 399

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