आतंकवाद पर बातचीत

पुस्तक – आतंकवाद पर बातचीत
सम्पादक द्वय – डॉ० पुनीत बिसारिया , रोनी ईनोफाइल
प्रकाशक – यश पब्लिकेशंस, दिल्ली
ISBN नंबर – 978-93-85689-80-2
प्रथम संस्करण – 2018
मूल्य – 695/-
समीक्षक – तेजस पूनिया

हाल ही में एक फिल्म रिलीज हुई अनुभव सिन्हा की मुल्क । जिसके अनुसार आप और हम कह सकते हैं कि हर मुस्लिम आतंकवादी नहीं होता । यह बात जायज है और इसमें तर्कशीलता भी लेकिन फिर अगली जिज्ञासा इस फिल्म के माध्यम से ही यह भी उठती है कि फिर अधिकाँश आतंकवादी मुस्लिम ही क्यों होते हैं ? दरअसल आतंकवाद की जो बनी बनाई परिभाषा है कि – निर्दोष और मासूम जनता के साथ कुछ भी सामाजिक तौर पर अप्रिय घटना को अंजाम दे, उन्हें मौत के घाट उतारना । तो यह भी कह दूँ कि आतंकवाद केवल वहीं तक सीमित नहीं है । यह भी मुल्क फिल्म हमें समझाती है । अब आप सोचेंगे पुस्तक समीक्षा करते हुए फिल्म की समीक्षा करने क्यों बैठ गया हूँ तो जनाब फिल्म भी आतंकवाद और उससे कहीं ज्यादा मुस्लिम आतंकवाद पर चर्चा छेड़ती है । अब बात करूँ पुस्तक की तो आतंकवाद पर बातचीत पुस्तक के लेखक हैं देश के जाने- माने लेखक एवं सम्पादक डॉ० पुनीत बिसारिया । पुनीत बिसारिया अध्यापन के साथ साथ लेखन में भी सक्रिय हैं और भारतीय सिनेमा के इतर अनेक विषयों पर खुलकर तर्कशील विचार पाठकों के समक्ष अपनी रचनाओं के माध्यम से रखते हैं । जिन्ना का सच, भारतीय सिनेमा का सफरनामा, शोध कैसे करें के साथ- साथ आम्बेडकर की अंतर्वेदना, वेदबुक से फेसबुक तक स्त्री इत्यादि जैसी दर्जनों पुस्तकें वे लिख चुके हैं । जो शोधार्थियों के लिए शोध दृष्टि से भी काफी सहायक रही है ।

समीक्ष्य पुस्तक आतंकवाद पर बातचीत भी शोध की दृष्टि से सहायक एवं महत्वपूर्ण पुस्तक कही जा सकती है । हालांकि यह एक सम्पादित पुस्तक है और इसमें विद्वान लेखकों के 40 से अधिक शोध पत्र शामिल हैं । एक कहानी, उपन्यास, कविता, नाटक या इनके संग्रहों पर समीक्षा करने के स्थान पर सम्पादित पुस्तक की समीक्षा करना बेहद कठिन एवं दुष्कर कार्य है । हालांकि इसमें मेरा स्वयं का भी एक लेख ‘भारत और विश्व के परिदृश्य में आतंकवाद’ शामिल है । जिस बात की मुझे ख़ुशी है और बतौर लेखक डॉ० पुनीत बिसारिया से जुड़ना गर्व की बात भी । यह पुस्तक आतंकवाद के विभिन्न पहलुओं से हमें रूबरू कराती है । जिसमें सर्वप्रथम इसमें संकलित आलेख हमें आतंकवाद की सैद्धांतिक समझ देते हैं तो वहीं आतंकवाद के कारणों की जांच पड़ताल करने का मौका भी । समीक्ष्य पुस्तक में एक ओर आतंकवाद और धर्म का घालमेल है तो दूसरी ओर आतंकवाद का वैश्विक परिदृश्य और साहित्यिक दृष्टि आतंकवाद का परिप्रेक्ष्य भी समझाती है ।

21 वीं सदी के उत्तर आधुनिक समाज में जहाँ एक ओर लोग शांति, प्रेम सद्भाव अहिंसा को महत्व देते हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ ये आतंकी समूह गोया कि अलकायदा, तालिबान, लश्करे तैयबा आदि इसके एकदम विपरीत हवा में रुख करते हैं । समीक्ष्य पुस्तक के आलेखों से इस बात को और अधिक पुष्टता प्राप्त होती है । आतंकवाद पर बातचीत पुस्तक की सम्पादकीय भूमिका में पुनीत बिसारिया आतंकवाद के चेहरे को तीन रूपों में विभाजित करते हुए लिखते हैं कि भारत में आतंकवाद के प्रमुखत: तीन चेहरे देखे जा सकते हैं । पहले चेहरे में धर्म या जेहाद कनाम पर फैलाया जाने वाला प्रायोजित चेहरा । दूसरा प्रादेशिक सम्प्रभुता के नाम पर फैलाया जाने वाला आतंकवाद और तीसरा कुछ संगठनों द्वारा सामाजिक, आर्थिक शोषण के नाम पर अंजाम दिए जाने वाला आतंकवाद । इन तीन प्रकार के आतंकवाद को फैलाने वाले सरगनाओं का नाम भूमिका में दिया गया है । क्रमश: प्रथम प्रकार में आइसिस, अलकायदा, हिजबुल मुजाहिदीन, सिमी आदि हैं तो दूसरे प्रकार में बोडो, उल्फा, ए० टी० टी० एफ०, पी० एल० ए आदि । इसी क्रम में तीसरा प्रकार है माले लिबरेशन, पी०डब्ल्यू०जी०, एम०सी०सी० आदि हैं ।

लेखक द्वय सम्पादित इस पुस्तक के दूसरे सम्पादक सम्पादकीय दुनिया के माध्यम से पुस्तक लेखन में पहली बार कदम रख रहे हैं । एक जरूरी विषय के साथ लेखकीय दुनिया में उनके कदम काफ़ी सधे हुए एवं निष्पक्ष दिखाई पड़ते हैं । पुस्तक के दूसरे सम्पादक हैं रोनी ईनोफाइल, जो एक गीतकार और एक कवि भी है तथा हिंदी अकादमी, दिल्ली की तरफ़ से दो बार पुरुस्कृत भी किए गए हैं । जिनमें नवोदित लेखक पुरस्कार 2007 तथा छात्र प्रतिभा पुरस्कार 2004 शामिल है । इसके अलावा इनके देश विदेश की विभिन्न किताबों एवं पत्रिकाओं में हिंदी एवं अंग्रेजी भाषा में पचास से अधिक लेख प्रकाशित हैं । सम्पादकीय भूमिका में रोनी आतंकवाद के बीज फ़्रांस में साल 1789 में हुई क्रांति में ही ढूंढ निकालते हैं । फ़्रांस की इस क्रांति में जो जनक्षति हुई वह भी आतंकवाद का ही प्रतिरूप है । इस भूमिका में आई एस जिन खतरनाक हथियारों का इस्तेमाल करता है उसकी भी एक लंबी सी लिस्ट मौजूद है, जिसे पढकर सहृदय पाठक का मन अवश्य विचलित होता है । आतंकवाद पर बातचीत पुस्तक में आतंकवाद के विभिन्न पक्षों से विचार करते हुए आलेखों में आतंकवाद की परिभाषा उसके शब्द रूप एवं विभिन्न पहलुओं की जाँच-पड़ताल देखने को मिलती है । आखिर इस भयानक बीमारी की जड़ क्या है, को भी पाठक भली प्रकार समझ सकेंगे । सामान्यत: आतंक का अर्थ भय का माहौल पैदा करने वाली हिंसात्मक कार्यवाही है । यह हिंसात्मक कार्यवाही हम अपने घर-परिवार में भी आए दिन देख सकते हैं । इस पारिवारिक भय की पड़ताल करते हुए पुस्तक के आलेखीय क्रम में पंकज बिहारी लिखते हैं – “आतंकवाद को बढावा देने में हम स्वयं दोषी हैं क्योंकि चाहे दुनिया का कोई भी देश हो, वहाँ की सरकार ‘हम’ अर्थात् वहाँ की जनता चुनती है ।” इस आलेख में आतंकवाद को बढ़ावा देने में छ: जिम्मेदार पहलू गिनाए गए हैं ।

राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर के आतंकी संगठनों द्वारा अब तक न जाने कितने हजारों लाखों निर्दोष लोग अपने अंतिम अंजाम को पहुँच चुके हैं । इन आतंकियों की पनाहगाह माने जाने वाले देश पाकिस्तान का आर्थिक और शैक्षिक स्तर इस कदर पस्त है कि वहाँ आतंकी गतिविधियों को बढ़ावा मिलना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं । जैसा कि पूर्व में मैंने फिल्म का उदाहरण देते हुए कहा कि हर मुस्लिम आतंकी नहीं होता किन्तु अधिकाँश आतंकियों का धर्म मुस्लिम ही होता है । यह बात पाकिस्तान जैसे देश के लिए शत-प्रतिशत सत्य साबित होती है । पाकिस्तान ने हाल ही में आम चुनावों में अपना मुखिया प्रसिद्ध क्रिकेटर इमरान खान को चुना और इन्हीं चुनावों में हाफिज सईद जैसे खूंखार एवं ईनामी आतंकियों ने भी मुखिया बनने के लिए चुनाव में हिस्सा लिया । भले ही उन्होंने एक भी सीट न जीती हो । उस देश के बारे में कुछ कहना नहीं बनता और उससे भी अधिक उस पर खुलकर लिखना भी नहीं बनता । आज वर्ल्ड ट्रेड सेंटर से लेकर यात्री विमान हमले तक आतंकवाद के सबसे बड़े दुस्वप्नों के रूप में हमारे इतिहास में दर्ज हो चुके हैं । यह इतिहास एक ऐसा कलंकित इतिहास है जिसे कोई भी याद करके अपने जख्मों पर नमक नहीं छिड़कना चाहेगा ।

समीक्ष्य पुस्तक में यूँ तो सभी आलेख अपने अपने स्तर पर महत्वपूर्ण हैं ही और उन सभी में विभिन्न परिप्रेक्ष्यों से आतंक तथा आतंकवाद को समझने का हर एक पहलू पूर्ण शोध परकता के साथ उकेरा गया है । इसी तरह एक आलेख में आतंक के इतिहास पर विस्तृत चर्चा करते हुए आंकड़े प्रस्तुत किए गए हैं तथा अब तक हुए एक लाख चालीस हजार से अधिक आतंकी घटनाओं पर आधारित रिपोर्ट भी इसमें प्रस्तुत है । “गौरतलब बात यह है कि इक्कीसवीं शताब्दी के शुरुआत से 2014 तक आतंकवाद से मरने वालों की संख्या 3329 से लगभग नौ गुणा बढ़कर 32685 हो गई है । वर्ष 2014 में आतंकवाद से मरने वालों की 78 प्रतिशत संख्या पाँच देशों में सीमित रही है । इराक, नाइजीरिया, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और सीरिया ।” (इसी पुस्तक) उक्त आंकड़े हमें दर्शाते हैं कि आतंकियों के हाथ अब कितने खुल चुके हैं और वे धड़ल्ले से, बिना हिचक किसी को भी हलाल करने में नहीं घबराते उल्टा आम जन इससे अवश्य त्रस्त है और यह त्रस्तता एक नासूर को जन्म दे चुकी है और इसके पीछे कारण है बेरोजगारी, अपराध, संघर्ष, गृह युद्ध, भ्रष्टाचार आदि । आतंकवाद से प्रभावित देशों की सूची में हम आज छठे स्थान पर काबिज हैं जबकि आतंक की पनाहगाह पाकिस्तान चौथे नंबर पर ।

करोड़ों, अरबों डॉलर इससे निपटने के लिए पानी की तरह बहा दिए जाते हैं किन्तु फिर भी इससे पीछा नहीं छुड़ा पाए हैं यूँ अगर देखा जाए तो फ्रांस की क्रांति से पूर्व हमारे भारतीय शास्त्र एवं धर्मग्रन्थ भी युद्धों की कहानियों से अटे पड़े हैं । उन्हें यदि मिथक न जानकर एक क्षण के लिए सत्य घटना अथवा सत्य इतिहास मान लिया जाए तो वे युद्ध भी इस श्रेणी में शामिल किए जा सकते हैं इस संबंध एक आलेख में लिखा है – “पुरातन काल से ही आतंकवाद संसार में फैला हुआ है । जिसका साक्षी प्राचीन साहित्य है । राजा और उसके साथियों को मारकर राजगद्दी हथिया लेना जैसे कृत्य सदैव ही से होते आए हैं । इस समस्या से हम हर युग में जूझते आ रहे हैं । सतयुग और त्रेतायुग में रावण, हिरण्यकश्यप सरीखे राक्षसों का आतंक था तो द्वापर युग में जरासंध एवं कंस जैसे आतंकवादियों का ।” (इसी पुस्तक से) आतंकवाद पूरे विश्व के लिए ज्वलंत समस्या है और इस ज्वलंत समस्या की जाँच करते हुए एक लेख में आतंकी संगठन ‘नागा नेशनल कौंसिल’ से करते हुए वर्तमान में स्लीपर सेल्स जैसे आधुनिक आतंकियों तक सटीक शब्दों में चर्चा करती नजर आती है । वहीं मुठ्ठी भर छाँव की तलाश में भटकते आम जन पर भी लिखा गया है कि किस तरह वे एक अदद शांति, सम्पन्नता एवं खुशहाली की कामना करते हैं । उसे लेख में कविता के माध्यम से स्पष्ट किया गया है

सारा आकाश तुम्हारा है
सारी जमीं भी तुम्हारी है
तपिश से बचने को कहीं
क्या मुठ्ठी भर छाँव हमारी है ?

इसके अलावा भी एक अन्य आलेख में भारत के भीतर पूरी तरह एक भयानक जहरीले सांप की भांति डंसते आतंकवाद के विभिन्न पहलुओं की पड़ताल करती नजर आती है । वहीं दूसरी ओर आतंकवाद के कारणों को स्पष्ट करते हुए विनोद पासी हंसकमल अपने लेख में अभी-अभी जवानी की दहलीज पर कदम रखते युवाओं की इस ओर भटकन के प्रति चिंता जाहिर करते हैं तथा इसके पीछे अशिक्षा एवं अल्प शिक्षा को जिम्मेदार ठहराते हैं । रवि कुमार गोंड लिखते हैं – “आतंकवाद के शिकंजें में सभी देश इस कदर कैद हो गए हैं – जैसे पिंजड़े में तोता ।” (इसी पुस्तक से) विभिन्न विद्वानों की परिभाषा देते हुए वे अपनी बात को पुख्ता भी बनाते हैं साथ ही आतंकवाद में लिप्त मुस्लिम बाहुल्य समुदाय के लिए लिखते हैं – “अल्जीरिया का कुख्यात सलाफी इस्लामो संगठन जो अलकायदा से जुड़ा हुआ है, इसने सन् 1999 में आतंकी संगठन के रूप में कार्य करना शुरू किया । इसका नेता नबील सहरावी उर्फ़ अबू इब्राहिम मुस्तफ़ा था जो एक कट्टर मुसलमान था …. उसने कहा कि “यह दुनिया दो भागों में बंटी है – एक ओर मुस्लिम है, दूसरी ओर काफ़िर व कोई तीसरा हिस्सा नहीं है । दुनिया में सभी लड़ाई अल्लाह में विश्वास और अविश्वास के बीच है …. जिहाद सभी मुसलमानों का सबसे बड़ा व्यक्तिगत कर्तव्य है । इस्लामी राज्य भाषणों, प्रदर्शनों, राजनीतिक दलों और चुनावों से नहीं बनेगा बल्कि केवल खून और शरीर के टुकड़ों से बनेगा ।” आतंकवाद आज इस कदर भयानक राक्षस तथा ला-इलाज बीमारी का रूप धारण कर चला है कि इसके सफाए के लिए कड़े फैसलों के साथ-साथ कड़े मनोबल की भी आवश्यकता है । आतंकवाद से बिखरते संसार को जब एक लेख में कविता के रूप में प्रकट किया जाता है तब यह और भयावह, दुःखदायी, कष्टप्रद प्रतीत होने लगता है ।

कल रूस को बिखरते देखा था
आज ‘भारत’ को टूटते देखेंगे ।
बर्फ-ए-जेहाद के शोलों में
‘अमरीका’ को जलते देखेंगे ।।

इसी तरह इस पुस्तक में आतंकवाद से जूझते देश का वर्तमान परिवेश, आतंकवाद एक ज्वलंत समस्या, भारत में आतंकवाद, जाने कब लग जाए मरहूम आदि आलेखों में आतंकवाद की विभीषिकाओं आदि के साथ-साथ इसकी वजह से हुए आर्थिक, शारीरिक, मानसिक नुकसान की भी विस्तुत चर्चा इस पुस्तक में मिलती है । इसके अलावा आतंक तथा धर्म के घालमेल संबंधी आलेखों में ‘आतंकवाद का इस्लामिक मुखौटा’ भारत में आतंकवादी गतिविधियों के प्रति भारतीय मुस्लिम समुदाय का दृष्टिकोण आदि आलेखों में आतंकवाद जिस तरह वैश्विक चुनौती बनकर उभरा है उसके चलते हृदय विदारक दृश्यों का चित्रात्मक एवं बिम्बात्मक वर्णन इन आलेखों में मिलता है । इसके अलावा इन कट्टरपंथी ताकतों के जन्म से लेकर, सत्ता हस्तांतरण एवं सत्ता के लिए जद्दोजहद के अंश भी इन आलेखों में स्पष्टत: देखे जा सकते हैं । इन सब आलेखों के पश्चात् आतंकवाद का वैश्विक परिदृश्य प्रस्तुत करते हुए आलेखों में पूरे विश्व के भिन्न-भिन्न हिस्सों में होने वाली आतंकी घटनाओं एवं उनकी भयावहता के अलावा राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा पर चर्चा करते हुए आलेख हैं । इस सुरक्षा के घेरे में सेंध लगाते इन आतंकियों के हौसले किस कदर बढ़ चले हैं, पर भी विस्तृत चर्चा इन आलेखों में संकलित है ।

फिर इस्लामिक स्टेट का आतंकवाद, इन आलेखों में आतंकवादी घटनाओं संबंधी ब्यौरे, जानकारी आदि दी गई है । दरअसल इस्लाम वास्तव में दहशत का नहीं रहमत का जरिया है इस बात को पुष्ट करते हुए इसी नाम से संकलित आलेख में जहीर ललितपुरी ने लिखा है – “जो लोग इस्लाम धर्म और जेहाद के नाम पर आतंकवाद का खूनी खेल-खेल रहे हैं, वे बहुत बड़ी गलतफहमी में हैं । इस्लाम धर्म में हिंसा और आतंकवाद का कोई स्थान नहीं है । यह रहमान और रहीम, कुरआने करीम और रहमतुल्लल्लिआलमीन का मजहब है ।” (इसी पुस्तक से) आतंकवाद को हर किसी ने अपने-अपने हिसाब से व्याख्यायित किया है । जिसमें साहित्य भी अछूता नहीं रहा है । हिंदी के मूर्धन्य लेखक प्रेमचन्द की सुप्रसिद्ध पंक्ति है – “साहित्य समाज का दर्पण होता है और यही दर्पण साहित्य में आतंकवाद को भी दिखाया गया है । इस दर्पण को व्याख्यायित करते हुए कविता के उदाहरणों के माध्यम से आतंकवाद के प्रतिरोध को शैलेन्द्र कुमार शर्मा सुनियोजित एवं सुव्यवस्थित तरीके के पाठकों के समक्ष रखते हैं ।

इसी तरह एक अन्य आलेख में धूमिल, सरीखे साहित्यकारों की कविताओं का उदाहरण भी दृष्टव्य है। जिसमें आतंकवाद के भाई नक्सलवाद पर टिप्पणी करती हुई कविताएँ हैं । उदाहरण के लिए एक ही संविधान के नीचे, भूख से रियाती हुई फैली हथेली का नाम, दया है और भूख से तनी हुई मुठ्ठी का नाम नक्सलवाड़ी है । आतंकवाद पर बातचीत पुस्तक का मूल केंद्र भले आतंकवाद हो, किन्तु इसमें संकलित आलेखों के क्रम में आतंकवाद और स्त्री पक्ष इसका सबसे मजबूत पक्ष है । इस भाग के अंतर्गत संकलित आलेखों में यह समझाने और समझने का क्रम लगातार बना रहता है कि स्त्री भले ही दयालु और ममतामयी हो किन्तु सिक्के के दो पहलुओं के समान उसके भी दो धड़े हैं – जिसमें एक आतंकवाद भी है । स्त्री आदि काल तथा वैदिक काल से ही एक जिज्ञासा का प्रश्न सदैव पुरुष जाति के लिए रही है उसी जिज्ञासा के शमन का एक तरीका आतंकी उनमें भी खोजते हैं तथा स्लीपर सेल्स ही नहीं अपितु अपनी रखैल एवं दासियों की भांति भी उनका इस्तेमाल करते हैं ।

भारतीय संस्कृति में इसलिए ‘सर्वेभवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया’ की कामना की गई है और यह पुस्तक भी आतंक तथा आतंकवाद के एक-एक पक्ष को उधेड़ते-बुनते हुए जाँच पड़ताल करती चलती है तथा पाठकों को संतुष्टि के साथ-साथ एक दुःखजन्य भाव भी परोसती चलती है । दुःखजन्य भाव तो इसके नामकरण से ही उपजता है किन्तु संतुष्टि का भाव इसे पढ़ने के पश्चात जिज्ञासाओं के शमन से होता है ।

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