(01)
आन बान शान वाला, नोबेल वे साहित्य का,
पाने वाले एशिया के, प्रथम सपूत थे।
नाम था रवीन्द्रनाथ, गुरुदेव लोग जिन्हें,
कहा करते थे सभी, भारती के पूत थे।।
भारतीय सांस्कृतिक चेतना जगाने वाले,
रखते थे ज्ञान की वे संपत्ति अकूत थे।
एक बड़े दार्शनिक, दूरदृष्टा वे “अनन्त”,
धरा पर अमन के, लोगों अग्रदूत थे।।
(02)
बहुमुखी प्रतिभा के, धनी थे रवीन्द्रनाथ,
एक कवि चित्रकार, लेखक महान थे।
गलतियों से सबक सीखने की सीख देने,
वाले युग पुरुषों में भारत की शान थे।।
जन गण मन के थे, लासानी रचियता वे,
दिलोंकी जमीं पे बीज, बोते थे किसान थे।
आओ हम तम हरें, रोशनी “अनंत” ले लें,
गुरुदेव साहित्य के, एक दिनमान थे।।
(03)
बिना उतरे ये पार, सागर तो होगा नहीं,
किनारे पे घंटों जल, को भले निहारिये।
गलतियों के लिए जो, दरवाजे बंद किये,
सच्चाई को आप कैसे, पाओगे विचारिये।।
प्रार्थना मुसीबतों में,जी सकें ये कीजियेगा,
हिम्मत के बिना कैसे, जिंदगी संवारिये।
जिंदगी है सेवा एक, सेवा में आनंद छिपा,
जिंदगी में यूं “अनन्त” सेवा को उतारिये।।
(04)
कहने को दुनिया है, पूरी ही हमारी पर,
क्षमता हमारी होगी, जितनी है काम की।
जितना हो घड़ा बड़ा, उतना ही आये जल,
ज्यादा मय छलकी है,सदा लोगों जाम की।।
प्रेम तो सिखाता त्याग,अधिकार मांगे नहीं,
बदला जो चाहे यारी, फकत है नाम की।
वृद्धि नित दुनिया की, बताती है हमें यही,
मंजिलें हैं अभी दूर “अनंत” विश्राम की।।