poem ab to samjh ja

बहुत छेड़ा करते थे,
प्रकृति के संसाधनो को।
ये सब देखते रहे,
श्रृष्टि के वो निर्माता।
और हंसते रहे भाग्यविधाता,

जिसने लिखा है भाग्य तेरा।
अब तो तू संभल जा,
और समय को समझ जा।
क्योंकि समय की मार ने,
देखो सब कुछ बदल दिया।

अपने पराये के भेद को,
देखो कैसे मिटा दिया।
इंसानों की इंसानियत को,
मानो अब भूला दिया।

एकांत में रहने का हमको,
मानो सबाक सिखा दिया।
अकेले आने जाने का भी,
एहसास यही पर करा दिया।

क्या लेकर तू आया था,
और क्या लेकर तू जाएगा।
जितना तूने कमाया धामाया,
यही छोड़कर चला जायेगा।

फिर क्यों कोई दोस्त,
और दुश्मन तू बना रहा।
और किस के लिए अब,
ये जंग तू लड़ रहा।

और कर्मो का बंधन,
खुद के लिए बड़ा रहा।
इसलिए कहता है संजय,
अपनी आत्मा शुध्द करो।

छोड़ो बैरभाव अंदर से और,
मोक्ष प्राप्ति के लिए जीओ।
अच्छे सच्चे इंसान बनकर,
खुदका कल्याण करो।

धर्म साधना में लीन होकर,
मुक्ति के पथ पर चलो।
और खुदका कल्याण करो।
खुदका कल्याण करो।।

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