कविता : जनता सड़क पर

तन-लोहा मन गलता है, सड़कों पर मजदूर पलता है। मीलों का सफर हैं नंगे पाँव, लौट चलें आ अपने गाँव बहुत हो गया धूप-छांव लौट चलें आ अपने गाँव! छोड़ अरे यह तेरा-तेरी शहरों की यह हेरा-फेरी सड़क किनारे मेरी… Read More

कविता : पगडंडी पर चलकर

घने-गहरे जंगल से गुजरती है पगडंडी कुछ बिखरे पत्तों की सरसराहट पहिये की गति भारी है तरुशिखा पर सुनहरी-आभा-सी डोलती घने जंगलों की छिद्रित परछाइयाॅ-सी मुसकुराकर बोलती रंग-बिरंगे पंखों की फड़फड़ाहट कुछ घरौंदों से उभरती चहचहाहट मृदंग-सी कलकल करती चंचल-अल्हड़… Read More

कविता : महायुद्ध के दौरान

इतिहास के पन्नों से टूटा अतीत के कुरुक्षेत्र का यथार्थ की वैकल्पिक जमीन पर अश्वत्थामा का ब्रह्मस्त्र-सा मानवता का अवकाश विषाणुओं का वीभत्स कालखंड-सा अदृश्य भयावह क्षत-विक्षत चेहरों-सा यम-नगरी की खौफनाक मृदंगों-सी काल-रात्रि और बिना रणभेरी के गर्जना श्वासों की… Read More

कविता : गाँव की ओर

सर पर गठरी तेज धुपहरी  रक्त निकलता, फूटा छाला मन घबराये कदम बढ़ाये कहां मिलेगी छांव कैसे रखें कदम धरा पर जलते मेरे पाॅव… हाय!जलते मेरे पाॅव ! मैं भारत की सच्ची तस्वीर फूट गई मेरी तकदीर ए. सी. में… Read More

कविता : ऐ उम्र

ऐ उम्र! तुम इतनी निश्चित जितनी मृत्यु अनिश्चित मैं रहा धरा पर विभ्रांत समर-सा पर कर न सका यह सुनिश्चित। मेरा अंश बहती गंगा-सा मिल न सका सु-परिचित जल-जल कर मैं राख बन गई जब तीव्र अग्नि हो प्रज्वलित नेत्र-भ्रुकुटी… Read More

sumitranandan pant

जन्मदिन विशेष : कविवर सुमित्रानंदन पंत

“वियोगी होगा पहिला कवि  आह से उपजा होगा गान  उमड़ कर ऑखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान।” प्रकृति की महासभा का कुशल वक्ता– कवि जिस मनोदशा में लिख रहा होता है वह गुणात्मक शब्द-शैली के साथ-साथ मन के भीतर… Read More

माँ की शिक्षा : बचपन Vs 2019

Happy Children’s Day to All … क्योंकि हम सब अपनी माँ के लिए बच्चे ही तो हैं और हमेशा बच्चे ही रहेंगे। तो आइए आज बचपन की ओर लौटते हैं और देखते हैं कि …. बचपन के खेल निराले थे…… Read More

भाषा, साहित्य और समाज

साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास है। साहित्य एक ऐसा दर्पण है जो वक्त के सापेक्ष अपनी छवि को परिवर्तित करता रहता है। एक लेखक या साहित्यकार अपनी कलम की तूलिका से श्वेत पत्रों पर जीवन के रंग बिखेर देता… Read More