ऐ उम्र! तुम इतनी निश्चित
जितनी मृत्यु अनिश्चित
मैं रहा धरा पर विभ्रांत समर-सा
पर कर न सका यह सुनिश्चित।
मेरा अंश बहती गंगा-सा
मिल न सका सु-परिचित
जल-जल कर मैं राख बन गई
जब तीव्र अग्नि हो प्रज्वलित
नेत्र-भ्रुकुटी की अक्षु-पल्लियां
मन रोदन तन कंपित
छोड़ गए शमसानों में रखकर
जीवन भर के कुंठित
यात्रा यह विश्राम समर ही
तन वैभव मन किंचित
जितना दौड़ा धरा लोक में
पथ-अंजान अपरिमित
उम्र-परिधि की फिर पाता तो
मृत्यु सदा अनिश्चित
जीवन-पथ विभ्रांत महासमर-सा
पथ- कर न सका सुनिश्चित!!

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