साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास है। साहित्य एक ऐसा दर्पण है जो वक्त के सापेक्ष अपनी छवि को परिवर्तित करता रहता है। एक लेखक या साहित्यकार अपनी कलम की तूलिका से श्वेत पत्रों पर जीवन के रंग बिखेर देता है और उन रंगों के समन्वय से कलाकार की कला जन्म लेती है। जब यह कला पुस्तक के आयताकार कमरे से निकलकर वर्गीकृत समाज का दृश्यांकन बनती है तो रंगमंच जन्म लेता है और जब रंगमंच आधुनिकता के साथ.साथ वैश्विकता का पारदर्शी रंगीन चश्मा लगा लेता है तो सिनेमा जन्म लेता है।                      

    सिनेमा साहित्य को जुबांन देता है। जिस साहित्य को पढ़ने से सहृदय आत्मानुभूति का अनुभव करता है उसी साहित्य को सिनेमा में देखने से आत्मानुभूति और अभिव्यंजना दोनों का आनंद लेते हुए रस की सृष्टि सहृदय अपने हृदय में  महसूस करता है। सिनेमा/चलचित्र को हृदय के भीतरी आवरण तक पहुॅचानें में नेत्र और श्रवण की क्रिया पात्रों के संवादों से तारतम्य करते हुए मस्तिष्क को तर्क की कसौटी पर परखते हुए कल्पना की दुनिया की सैर कराती हुई वापस यथार्थ की जमीन पर छोड़ जाती है। आधुनिक सिनेमा का यही चमत्कार दर्शकों को अपने मोहपाश से बांधे रहता है। आज का दौर तकनीकियों से भरा हुआ है क्योंकि आज सिनेमा कमर्शियलाईज्ड है। ऐसे में फिल्मकारों के समक्ष मजबूत कहानी जो प्रत्येक वर्ग के व्यक्ति/ समाज को आकर्षित करने में सक्षम हो सके जिससे अधिकाधिक संख्या में दर्शकों की भीड़ जुटाई जा सके अर्थात्  सिनेमा की सच्चे अर्थों में वसूली हो सके और फिल्मकारों को मोटी रकम प्राप्त हो सके।

        चयन का सिद्धांत विकासवाद के साथ प्रारंभ से ही जुड़ा हुआ है। सिनेमा के संदर्भ में समाज का चयन अंतिम और निर्णायक भूमिका में होता है। समाज आसानी से यह तय कर लेता है कि उसको कौन सी वस्तु कितनी और किस संदर्भ में चाहिए। जिस प्रकार समाज के भिन्न-भिन्न वर्ग एवं स्तर हैं ठीक उसी प्रकार सिनेमा भी वर्गानुकूल समयानुसार   निश्चित समयावधि में बदलता जा रहा है और उत्तर आधुनिकता लिए वर्तमान संदर्भ में परोसा जा रहा है। आज सिनेमा के साहित्यकार एवं कलाकार दोनों ही समयानुसार बदल गये हैं । प्रतिस्पर्धा हर कोशिश की परिधि पर गतिमान है और सिनेमा का चक्का संवादों एवं अपने पहनावे  को लेकर कटघरे में घूमता  हुआ खड़ा दिखाई देता है। मीडिया दूसरे के गरम तवे पर रोटी सेंकनें का कोई मौका नहीं छोड़ता। बहती गंगा में डुबकी लगाकर मीडिया भी अपनी सार्थकता को बरकरार रखता है।

     सिनेमा ने समाज को भीतर से मजबूत किया तो बाहर से खोखला भी कियाए वहीं दूसरी ओर भीतर से खोखला किया तो बाहर से मजबूत भी किया है। यह विरोधाभास युगबोध की स्थिति को स्पष्ट बयां करता है। आज नई पीढ़ी के समक्ष लुभावने दृश्यों को परोसने हुए सिनेमा ने अपनी जड़ों को जन-जन के हृदय में भीतर से मजबूत किया है। देशभक्ति अब सिनेमाभक्ति में बदल रही है। युवाओं के आदर्श अभिनेता/ अभिनेत्रियां हैं किंतु स्वयं का आदर्श विलीन  होता जा रहा है। कम उम्र में अधिक ज्ञान मिलना बालक के हाथ में फुल लोडेड रिवाल्वर देने के समान है।  यह भी हिंदी सिनेमा का एक रूप है।

       सिनेमा को सबसे मजबूत आधार भाषा ने दिया है। हिंदी भाषा एवं साहित्य ने सिनेमा को घर-घर तक पहुंचाया।  भारतीय समाज हिंदी भाषा प्रेमी पूर्व से ही रहा है क्योंकि हिंदी भाषा यहाँ अधिकाधिक संख्या में बोली और समझी जाती है। आज हिंदी फिल्में भारत ही नहीं विश्व स्तर पर देखी और समझी जाती हैं। हिंदी गीतों की तो विश्व स्तर पर गणना होती है। जो लोग हमारी भाषा को बोल और समझ नहीं पाते वह बड़ी आसानी से हिंदी गीतों को गा लेते हैं। ऐसी सहजता अन्य भाषा में कहां। इस प्रकार हिंदी सिनेमा की रीढ़ हिंदी भाषा है। यह भाषा समय-संदर्भों के साथ-साथ वैश्विक होती जा रही है। हिंदी भाषा को सहेजने की आवश्यकता समय की माँग है। इस दिशा में हिंदी सिनेमा समाज को विस्तृत आयामध् आधार प्रदान करता है। हिंदी का विकास अगर रुका हुआ दिखाई देता है तो उसके पीछे राजनीति हमेशा की तरह नई-पुरानी कहानी लेकर भाषा को कटघरे तक पहुंचा देती है।

     सत्ता में आकर सभी नेता राजनीति करते हैं/इसमें कौन सी नई बात है। भाषा प्रेमियों को छोड़कर  किसी को भी भाषा के मुद्दे पर आकर बातें करते न देखा। हिंदी भाषा को जन-जन तक पहुंचाने के लिए पहली प्राथमिकता  प्रचार-प्रसार  की है। दूसरी प्राथमिक विद्यालयी शिक्षा मातृभाषा में देने का संकल्प होना चाहिए। तीसरा बिन्दु है  हिंदी भाषा एवं कौशल विकास। अधिक से अधिक लोगों को हिंदी भाषा से रोजगार मिलेगा तो हिंदी भाषा का विस्तार एवं विकास शत-प्रतिशत संभव हो सकेगा। हिंदी भाषा के प्रति सम्मानध्सौहार्द एवं संकल्प के भाव   रखते हुए भारत में जो भी नागरिक कहीं भी हो वह उसी स्थान से हिंदी भाषा का विकास करे। नेताओं से अपेक्षा करना  रेत में पानी डालने के समान है। भारत में भाषा की जंग नेताओं की शायद ही कभी रही होए यह तो आम जनता की आवाज है। भाषा तो साधारण जनता की होती है नेताओं को सत्ता मिलते ही वह तो सत्ता की भाषा बोलते हैं। आम नागरिकों को अपनी आवाज को बुलंद करना होगा तभी हिंदी को उसका वास्तविक सम्मान प्राप्त हो सकेगा!! हिंदी बचाओ मंच को हिंदी बढ़ाओ अभियान के रूप में देखने की जरूरत है। सिनेमा को स्वयं समाज को साथ लेकर भाषा का अधिकाधिक संख्या में विकास करना होगा तो वहीं मीडिया को हिंदी भाषा एवं साहित्य के प्रति विशेष अभिरुचि जन-जन में जगाने के लिए प्रयत्न करने होंगे।

      संस्कृति और समाज की नींव में हमेशा से ही सत्ता अपनी निरंकुश जड़ों को जमाये होती है। परंतु बगैर सत्ता के साहित्य/संस्कृति और समाज के सरोकारों को पूर्ण नहीं किया जा सकता है। संस्कृति को अपनी पद-गरिमा बनाए रखने के लिए हमेशा समाज के साथ समन्वय स्थापित करते हुए एक प्रयत्नशील एवं सकारात्मक  दृष्टिकोण बनाये रखना होता है। दृष्टिकोण को नये आयामों द्वारा विकसित/ अतीत की स्मृतियों के समन्वय के साथ.साथ वर्तमान की सम-सामयिक कथा से जोड़ने की कला में सिद्धहस्त/ वैज्ञानिक सूचना तकनीकी से लबालब जो कर्मठ और अनवरत रूप से कभी न समाप्त होने वाला व्यक्तित्व है वही कलम का दुर्धर्ष योद्धा होता है। उसके द्वारा लिखा गया हर एक शब्द स्वयं से संवाद करता है। ऐसे सरस्वती के पुत्र द्वारा लिखा गया साहित्य सिनेमा को युगों-युगों तक जिन्दा रखता है।  ऐसे कवियों / गीतकारों की रचनाएँ कालजयी बन जाती हैं। स्वयं हिंदी साहित्य का भक्तिकाल अपने आप में उत्कृष्ट कोटि का सिनेमा है। ऐसे कई धारावाहिकों/ नाटकों/ फिल्मों में युगबोध के दर्शन मूल्यबोध के आधार पर दर्शाए गये हैं। 

  स्वरचित कविता इस दिशा में सिनेमा की दिशाओं का अध्ययन करते हुए प्रयत्नशील भाषा के सकारात्मक पहलू को दर्शानें का प्रश्नात्मक प्रयास है। जिसका आधार समाज है।

 “श्वेत पत्रों पर लिखने को
एक नये सिनेमा का विस्तार
तिलिस्म की खोह में बैठा दुकानदार।
बेच रहा है नफा और नुकसान!!  
स्याही नीली थी पर लाल हो गई 
धरती श्वेत चादर बन जाल हो गई।
आकाशगंगा के तिलिस्म में बैठा
इतराता सा गेर रहा है श्वेत रंग का गुबार !!  
सड़कें परत-दर-परत खुलती जा रही हैं
हर कदम मंजिल पर पहुंचने की उत्सुकता
और नई घटना का पैगाम है!!
दिनचर्या अब क्षणिक स्पर्श सी
किंतु अपरिचित/ अंजान है
मीलों का सफर अब दो कदमों सा आसान है
खैर चिंता की कोई बात नहीं
आधुनिकता परंपरा को तोड़ती तस्वीर है
बिखरे  कांच के टुकड़ों को उठाता वैश्विकरण
भाषा के पैर पर भी घाव कर गया !!  
सच में हम वैश्विक हो गये !!!    
भाषा की आड़ में सिनेमा देखते/ दिखाते  
समाज को भीतर से खो गये।
हाँ हम सिनेमाई हो गये।
किन्तु श्वेत खोह युक्त तिलिस्म की चादर में लिपटा
दिवास्वप्न सा साक्षात्कार
एक ही किरदारए लिए संवेदनाओं का गुबार
अब स्वयं से बार-बार नहीं होता।”  

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