भूमंडलीकरण ऐसी विचारधारा है जो भारत में पश्चिम से उधार ली गयी थी। उसका प्रचार प्रसार यह ‘लॉलीपाप’ दिखाकर किया गया कि अब भारत के लोग भी विदेशी युवाओं की तरह ‘पिज्जा बर्गर’ और ‘मैगी’ खा सकेंगे और चमचमाती कारों में घुम सकेगें। विदेशी कंपनियों के प्रवेश ने भारतीय युवाओं की मानसिक क्षमता पूरा प्रयोग किया और इसके बदले में उन्हें ऐसो आराम के सारे साधन तो दे दिए लेकिन उन्हें भोगने का समय नहीं दिया बल्कि उन्हें और महत्त्वाकांक्षी बना दिया। विदेशी कंपनियों के ऑफिस में बड़ी सैलरी के लालच में खटते और महत्वाकांक्षा को को सर पे लेकर घुमते युवाओं में व्यस्तता ने इस कदर मजबूर किया कि परिवार समाज और उनके बीच में सांस ले रहे मासूम रिश्तों के लिए समय ही नहीं बचा। इसका असर फिल्मों की विषय वस्तु पर तेजी से पड़ा। भावनाओं को आन्दोलित करते गीत ‘आईटम सांग’ के लटके झटकों में खो गए। नायिकाएं कटि प्रदेश के प्रदर्शन से उबकर ‘बिकनी’ में पर्दे  के विशाल पर्दे पर अवतरित हुईं। हिन्दी सिनेमा के पर्दे से रिश्तों की महक और भावनाओं में आतुर पार्कों और पेड़ों के पीछे घुमते प्रेमी­ प्रेमिका अपने पहले ही मिलन से बेडरूम तक पहुंचने लगे। सेक्स को प्रेम की पराकाष्ठा प्रचारित कर हिन्दी सिनेमा के निर्देशकों ने युवाओं की मानसिक चेतना को ऐसे छोर पर लाकर खड़ा कर दिया की उनके फिल्म देखने के सारे समीकरण बदल गए। वह ‘बिपाशा’ और ‘मल्लिका’ से लेकर पार्नस्टार ‘सनी लियोन’ तक को पर्दे पर देखने को आतुर है।

      हिन्दी सिनेमा में भावनाओं और रिश्तों के क्षीण होते दृश्यों को देखकर गुलज़ार (18 अगस्त 1934) की याद बड़ी ही शिद्दत से आती है। एक बार राखी ने गुलज़ार से कहा, ­“अगर तुम्हारे पास ये कलम नहीं होती तो तुम बड़े साधारण आदमी होते।” ऐसे समय में गुलज़ार जैसे भावनात्मक कवि व लेखक का सिनेमा में आना उनके लिए कई तरह की चुनौतियों से भरा था पर गुलज़ार के पास एक ताकत थी, वह थी साहित्य और भाषा की समझ। जिसने न केवल एक साहित्यकार के रूप में अपनी रचनाओं के माध्यम से भावुकता और संवेदनाओं का मर्मस्पर्शी चित्रण किया वरन् हिन्दी सिनेमा में एक सफल फिल्मकार, गीतकार व संवाद लेखक के रूप में ऐसे मुकाम पर पहुंचा दिया है, जहां आज किसी का पहुंचना चुनौतीपूर्ण है। सत्तर के दशक से आज तक गुलज़ार ऐसे व्यक्तित्व के रूप में उभरकर हमारे सामने आते हैं जिन्होंने व्यवसायिकता से भरे इस फिल्मी दुनिया में साहित्य की मशाल जलाए हुए हैं। इसी बात की पुष्टि करता हुआ कमलेश्वर के उपन्यास ‘काली आंधी’ पर उन्हीं के द्वारा निर्देशित फिल्म ‘आंधी’ का यह गीत द्रष्टव्य है­

इस मोड़ से जाते हैं,,

कुछ सुस्त कदम रस्ते

कुछ तेज कदम राहें

पत्थर की हवेली को, शीशे के घरोदों को,

तिनको के नशेमन तक्र इस मोड़ से . . .”

या फिर

साथियाफिल्म का यह गीत­चोरी चोरी रात को खिड़की से नंगे पांव चांद आएगा।

प्रकृति के साथ गुलज़ार का रिश्ता एकदम से उन्हें हिन्दी के छायावादी कवियों के समकक्ष लाकर खड़ा कर देता है पर उनकी चेतना किसी प्रगतिशील कवि सी झलकती है जब वे यह लिखते हैं­

मां ने जिस चांद सी दुल्हन की दुआ दी थी मुझे

आज की रात पुटपाथ से देखा मैंने,

रात भर रोटी नज़र आया वो चांद मुझे।

गुलज़ार की ऐसी हजारों पंक्तियां है जो उन्हें हिन्दी के सहित्यिक परिवेश से जोड़ती हैं। गुलज़ार का लेखन व्यक्ति को भावना के चरम तक ले जाने में सक्षम है। वह अपने पाठकों और दर्शकों से एक ऐसा रिश्ता बना लेते हैं जो उन्हें बार बार देखना चाहते हैं और पढ़ना चाहते हैं। कहना गलत ना होगा कि यह सारा जादू वह भाषा की छड़ी से करते हैं। भाषा उनके पास आकर अपने हजारों रूपों में निखर जाती है। भाषा का यह का यह तिलिस्म गुलज़ार की लेखनी की ताकत है। वह सिनेमा और साहित्य दोनों लेखन की बुनियादी शर्तों को बखूवी समझते हैं। यही वजह है गुलज़ार सिनेमा और साहित्य दोनों विधा में अपनी अमिट छाप के साथ उपस्थित हैं। उनकी यह उपस्थिति सिनेमा और साहित्य को मजबूत करने में सहायक रही है। गुलज़ार की भाषा की एक रवानगी यूं देखी जा सकती है­-

मुझको इतने से काम पे रख लो…

जब भी सीने में झूलता लॉकिट उल्टा हो जाए

तो मैं हाथों से सीधा करता रहूं उसको

मुझको इतने से काम पे रख लो…

गुलज़ार की साहित्यिक रचनाएं और फिल्में सभी अपने समय की अभिव्यक्ति हैं। विषय की संवेदनशीलता को बनाए रखने के लिए गीतों को भी आधार बनाते हैं यथा­-

मुझको भी तरकीब सिखा यार जुलाहे

अक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनते

जब कोई तागा टूट गया या खतम हुआ

फिर से बांध के और सिरा कोई जोड़ के

उसमें, आगे बुनने लगते हो

तेरे इस ताने में लेकिन

इक भी गांठ गिरह बुनतर की देख नहीं सकता है कोई

मैंने तो एक बार बुना था एक ही रिश्ता

लेकिन उसकी सारी गिरहें साफ नज़र आती हैं मेरे यार।

इस पूरे गीत का परिवेश बिल्कुल जाना पहचाना और हमसे परिचित भी है पर भाषा के अनूठे प्रयोग ने इसे विशेष बना दिया है। गुलज़ार की विशेषता ही यही है वह वर्षों से जाने पहचाने और घिसे पीटे विषय को भी अपनी भाषा की बुनावट से मनोरम बना देते हैं। कभी कभी तो वे अपनी फिल्मों में भाषा का ऐसा प्रभाव पैदा कर देते हैं कि रिश्तों की महीन बुनावट को भी कविता की तरह प्रस्तुत करते हैं जहां पात्र कुछ ना कहते हुए भी बहुत कुछ कह जाते हैं। जिसे फिल्म इजाज़त के इस गीत के माध्यम से समझा जा सकता है­

मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है,

सावन के कुछ भींगे, भीगे दिन रखे हैं

और मेरे इक ख़त में लिपटी रात पड़ी है

वो रात बुझा दो

मेरा वो सामान लौटा दो।”

इस दृष्टि से देखें तो गुलज़ार एक ऐसे सिनेमाई लेखन को जन्म देते हैं जिसका मूल आधार साहित्य ही है। उनके पूरे लेखन पर नज़र डाले तो बात स्वतः ही सामने आ जाती है। भले ही सिनेमा में जुड़े रहने के लिए उन्होंने ‘इश्क कमीना’ लिखा हो लेकिन उनके कवि हृदय में इश्क अपने पूरे वास्तविक वजूद के साथ मौजूद रहा जो जन्नत को पांव से रौदने की कूबत रखता है। कहना गलत न होगा कि गुलज़ार फिल्मों में गीत लिखने की कीमत चाहे जो भी लेते हैं पर जो रस उनकी रचनाओं में मिलता है उसकी कीमत दुनिया के किसी चेक से नहीं चुकायी जा सकती है क्योंकि व्यावसायिकता की सफलता गुणवत्ता की कसौटी नहीं होती।यह गुलज़ार बखूबी समझते हैं। यही बात गुलज़ार को अपने समकालीन सिनेमा लेखकों से अलग करती है। इतिहास गवाह है कि कवि प्रदीप,, कैफी आज़मी,, शैलेन्द्र, कमलेश्वर, साहिर लुधियानवी, राजेन्द्र कृष्ण, शकील बदायूंनी, नीरज, जावेद अख्तर आदि ने सिनेमा को साहित्य से जोड़ने का कार्य किया जिसमें गुलज़ार इनके बीच की वो कड़ी हैं जो आरम्भिक समय से लेकर आजतक साहित्य और सिनेमा के संबंधों को मजबूती प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहें है। उन्होंने इनकी परम्परा को बरकरार रखते हुए युवा पीढी के लिए ‘सिनेमा लेखन’ की पाठशाला बने हुए हैं। गुलज़ार के संपूर्ण लेखन का अवलोकन करने से सहज ही पता चलता है कि वे अपने लेखन द्वारा आधुनिक सिनेमाई कीचड़ में साहित्यिक कमल खिलाने के लिए तत्पर हैं।

      वैश्वीकरण के इस युग तक आते आते सिनेमा के विषय वस्तु में न केवल घोर परिवर्तन हुआ बल्कि भाषा का भी व्यापारीकरण हुआ। दूसरे भाषा के दर्शकों तक पहुंच बनाने के उद्देश्य से फिल्मों के हिन्दी साथ अंगे्रजी के शब्दों का भी प्रचलन तेजी से बढ़ा। इतना ही नहीं हिन्दी का यह सिनेमा जिसमें कभी भारतीय समाज के आदर्श और यथार्थ अनेक रूपों में अवतरित हुए गाली गलौज पर उतर आया।गाली गलौज और दूसरी भाषाओं के प्रयोग को परिवर्तन का नाम देकर फिल्मकारों ने खूब धन कमाया लेकिन इन सब के बीच गुलज़ार ऐसे कवि व लेखक के रूप में सामने आते हैं जिन्होंने फिल्म के गीतों और पटकथा को उनकी भाव संपदा और शब्द संपदा को नवीनता और सूक्ष्म संवेदना दी।वो भी हिन्दी उर्दू शब्दों का प्रयोग कर जिसे सुनकर आज भी युवा वर्ग बिना थिरके नहीं रह पाता और जिनमें गुलज़ार का कवि हृदय भी अभिव्यक्त होता दिखाई देता है। उदाहरण के तौर फिल्म ‘बंटी और बबली’ के गीत ‘कजरारे कजरारे’ की दो पंक्तियां है­

“तेरी बातों  में क़िवाम की खुश्बू है,
तेरा आना भी गर्मियों की लू है।”

गुलज़ार की  भाषायी संरचना ही हर बार उन्हें एक ऐसे गीतकार के रूप में स्थापित कर देती है जो उन तमाम लोगों के लिए चुनौती बन जाते हैं जो व्यावसायिकता के मद में चूर गीतकार जब भाग डी के बोसऔर लैला तेरी ले लेगीजैसे आईटम गीत लिखते हैं वहीं गुलज़ार बेसुवादी रतियाऔर सांस  में सांस मिली तो मुझे सांस आयीजैसे गीत प्रेम के उन्मादी छड़ों के गीत हैं जो प्रेमी प्रेमिका के एकान्त को व्यक्त करते हुए अश्लीलता के बू से बहुत दूर हैं। गुलज़ार के यहां भाषा का एक नया व्याकरण है जो आम चलताऊ गीतों से अलग असर छोड़ता है चार बज गए लेकिन पार्टी अभी बाकी हैका युवा भूमंडलीकरण की कोख से निकले है लेकिन रात के ढ़ाई बजे दिल में शहनाई बजे प्रेम में व्याकुल एक युवा की तड़प है जिसे सिर्फ गुलज़ार ही समझ सकते हैं।

भूमंडलीकरण के प्रभाव से हिन्दी के सिनेमाई गीत जिस तरह बदले हैं गुलज़ार भी कहीं न कहीं उसके रौ में बह जाते हैं। जुबां पे लागा लागा रे नमक इश्क का, बीड़ी जलईले जिगर से पिया से लेकर डॉर्लिग आखों से आखें चार करने दो  तक गीत उन्हीं के कलम से निकलते हैं। व्यवसायिकता और लोकप्रियता हिन्दी सिने मां ” के ऐसे दो पुत्र हैं जो हमेशा से उसके साथ रहे जिन्होंने इन्हें समझने की कोशिश नहीं कि वह सिनेमा की दुनिया बाहर कर दिए गए। गुलज़ार ने इसको खूब समझा है इसीलिए वह इस तरह के गीतों को लिखते हैं लेकिन उसमें लिप्त नहीं होते है। कहना गलत न होगा कि भूमंडलीकरण के प्रभाव और सिनेमा की बदलती छवि ने गुलज़ार की गीतों से मौलिकता और हिलोर लेते भावनाओं को प्रभावित कर नहीं सके। दो चार आइटम गीतों का हवाला देकर गुलज़ार के उन गीतों को इग्नोर नहीं किया जा सकता जो हिन्दी सिनेमा के फिल्मों की धड़कनों में धड़क रहे हैं। ‘जय होलिखकर हिन्दी सिनेमा के पहले अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार के विजेता गुलज़ार इसीलिए विशेष हैं, क्योंकि उनके गीत ­पर्सनल से सवाल करते हैं

About Author

2 thoughts on “जन्मदिन पर विशेष : “पर्सनल से सवाल करती हैं” गुलज़ार के गीतों की भावनाएं”

    1. शुक्रिया संदीप भाई…

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *