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हम सभी को बतौर छात्र अङ्ग्रेज़ी के साथ एक विषय के रूप में बिताए गए दिन अभी भी याद होंगे। जब अङ्ग्रेज़ी बतौर विदेशी भाषा हम सभी को थोपी एवं कठिन भाषा लगती थी। यह भी विचारणीय है कि वर्षों तक लगातार अङ्ग्रेज़ी माध्यम की शिक्षा या एक विषय के रूप में पठन-पाठन के बावजूद आज भी हम में से अधिकांश को इसे बोलने में, लिखने में असुविधा होती है। हिंग्लिश का अतिशय प्रयोग क्या है? इतना सब होने के बावजूद यह भी आंकड़ा है कि भारत में मात्र 4-5 फीसदी लोग ही अङ्ग्रेज़ी पर मजबूत पकड़ रखते हैं।
ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था के विकास हेतु यह जरूरी है कि भारतीय समाज में विद्यमान नैसर्गिक बौद्धिकता को मजबूती दी जाए। भारत के ग्रामीण बच्चों में न केवल प्रतिभा है बल्कि ग्रामीण बच्चे भारतीय शहरी बच्चों की तुलना में अधिक मेधावी हैं। परंतु इन बच्चों की प्रगति के मार्ग में गणित की अपेक्षा अंग्रेजी बड़ी बाधा है। इन बच्चों के लिए अंग्रेजी से तालमेल बिठाना बेहद कठिन होता है। इन बच्चों के लिए अंग्रेजी विवशता एवं बाध्यता है। हालांकि वर्तमान सरकार द्वारा इस दिशा में बदलाव हेतु प्रयास किए जा रहे है। देशी भाषाओं में चिकित्सा शिक्षा पाठ्यक्रम की शुरुआत इस दिशा में बड़ा कदम है।
दुनिया भर के सफल एवं समृद्ध देशों में बच्चों को विज्ञान, तकनीक, चिकित्सा विज्ञान, व्यावसायिक शिक्षा उनके देश की प्रमुख भाषाओं में ही दी जाती है। ये सभी देश भारत की तुलना में अधिक सफल हैं, क्योंकि वहाँ समूची जनसंख्या की प्रतिभा को स्थानीय भाषाओं में निखारा गया है। बावजूद इसके ये इस प्रतिस्पर्धी विश्व में अपनी शर्तों, प्रतिभा के बल पर टिके हुए हैं। भारत में स्वीकृत अंग्रेजी माध्यम की अनिवार्यता निश्चित रूप से दोषपूर्ण हैं। देश में आर्थिक एवं सामाजिक स्तर पर पिछड़ेपन का एक बड़ा कारण अंग्रेजी भाषा के प्रति हमारा अंध मोह हैं। हालांकि वर्तमान सरकार इस दिशा में थोड़ी प्रयासरत है, पर इस प्रकार के और अधिक प्रयास किए जाने की आवश्यकता है।
भारत में यह भी एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि गीत, संगीत, नृत्य, फिल्मों, चुनाव प्रचार आदि के लिए तो देशी भाषाएँ ठीक हैं लेकिन विज्ञान, तकनीक, व्यावसायिक शिक्षा आदि के लिए अंग्रेजी अनिवार्य हैं। पश्चिमी शिक्षा के समर्थक तो इस बात पर दिन-रात बल देते रहते है। आजादी के इस अमृत काल में व्यवस्था को यह विचारने की आवश्यकता है कि देश की समृद्धि हेतु देशी भाषा के वातावरण में विकसित अधिकांश भारतीय बच्चों को उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा उनकी अपनी भाषा में समान रूप से उपलब्ध होनी चाहिए। एक मजबूत लोकतांत्रिक भारत इसी आधार पर निर्मित हो सकता है।
भाषाओं का भी अपना अर्थशास्त्र होता है। यह सब कुछ अंग्रेजी का आधिपत्य देखकर समझ आता है। आज ऐसी धारणा बन गई है कि भारत की वर्तमान आर्थिक प्रगति में अंग्रेजी भाषा का विशेष योगदान है। जबकि ऐसा नहीं है। दुनिया के 20 धनी राष्ट्रों में सरकारी कामकाज की भाषा (एवं सभी स्तरों पर शिक्षा का माध्यम) स्थानीय जनभाषा से भिन्न नहीं है। इस देश में भाषिक विभेद का सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि जिन उच्च वर्ग के लोग अङ्ग्रेज़ी /विदेशी भाषा के स्कूलों में जाते हैं और वहाँ की शब्दावली तथा विचारों से प्रभावित होकर वे वैसे ही व्यवहार करते हैं, जिसके अंतर्गत वे स्वयं को श्रेष्ठ व स्थानीय भाषा के लोगों को हेय दृष्टि से देखते है।
भारत में उच्च शिक्षा अंग्रेजी पर केंद्रित होने से अपनी जनसंख्या का बहुत कम भाग बौद्धिक रूप से विकसित हो पाता है। हमारे देश में यह स्थिति अंग्रेजी की अनिवार्यता के कारण नहीं बल्कि हमारी दोषपूर्ण शिक्षा नीति की वजह से हैं। भारत के अधिकांश उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रवेश परीक्षा न केवल अंग्रेजी में होती है बल्कि साक्षात्कार समूह चर्चा आदि भी अंग्रेजी माध्यम से ही सम्पन्न होती है। एक डॉक्टर, इंजीनियर, सीए, जज एवं अन्य पेशेवरों के लिए भी अंग्रेजी अनिवार्य है।
इन सभी से समूचे राष्ट्र की बौद्धिक क्षमता का दोहन संभव नहीं हो पाता है। अंग्रेजी की अनिवार्यता से देश में अंग्रेजी एक श्रेष्ठ वर्ण व्यवस्था प्रतीक के रूप में स्थापित है। यह न केवल निजी व सामाजिक बल्कि सरकारी क्षेत्र में भी बरकरार है। भारतीय भाषाएँ गौण हैं और अंग्रेजी की प्रधानता हैं। यह देश का दुर्भाग्य है कि आप भारतीय भाषाओं से परीक्षा देकर सेना में एक सैनिक या जवान तो बन सकते हैं, परंतु एक अधिकारी होने के नाते आपको परीक्षा अंग्रेजी में देनी होगी। अधिकांश भारतीयों पर उच्च शिक्षा हेतु अंग्रेजी भाषा की अनिवार्यता थोपना अपने-आप में एक महत्वपूर्ण आर्थिक बोझ है। यह बहुत बड़ी संख्या में भारतीयों के बौद्धिक विकास में बाधा है। इससे जहां आर्थिक विकास मंद पड़ता है और निरंतर हीन-भावना व भेदभाव की चरम स्थिति उत्पन्न होती है। इससे अंग्रेजी एक ऐसी भाषा के रूप में उभरकर सामने आती है, जो भारत की प्रगति के बजाय पिछ्ड़ेपन का कारण बनकर हमारे सामने उपस्थित होती है।
भारत में अक्सर यह भ्रम फैलाया जाता है कि किसी भी तकनीकी क्षेत्र में सफलता के लिए अंग्रेजी ज्ञान आवश्यक है। परंतु यह विचार देश की तकनीकी प्रगति के लिए घातक है। अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा के प्रसार से देश की आर्थिक प्रगति का कोई संबंध नहीं है। देश को इस प्रकार के भ्रमजाल से निवारने की जरूरत है । यह सत्य है कि भारत में जैसे विशाल एवं विविधता वाले देश में किसी भी भाषा का विरोध उचित नहीं। परंतु, भाषाई रूप से इस समृद्ध देश में द्वितीय या तृतीय भाषा के रूप में ही अंग्रेजी का शिक्षण उपयुक्त हो सकता है प्रथम भाषा के रूप में कदापि नही। उच्च शिक्षा, न्यायालय एवं शासन हेतु भारतीय भाषाओं पर रोक एवं अंग्रेजी को अपनी प्रथम भाषा बनाने से इस देश में अनेक असुविधाएँ सामने आती हैं। यह मानवाधिकार हनन का प्रश्न है कि इससे भारतीय भाषाओं के विद्यार्थियों को समान अवसर उपलब्ध नहीं हो पाते। अधिकतर विद्यार्थियों को मजबूरीवश अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा ग्रहण करनी पड़ती है। इस व्यवस्था से देश में अनेक भाषाई विकलांग पैदा होते जा रहे हैं, जो किसी भी भाषा में प्रवीण नहीं होते। जबकि प्रत्येक व्यक्ति को राष्ट्र की प्रमुख भाषा एवं उनकी स्थानीय भाषा में ही विकसित होने की छूट होनी चाहिए, बाद में भले अन्य भाषाएँ सीखी जा सकती हैं।
अत: देश की समग्र एवं सशक्त प्रगति के लिए यह जरूरी है कि
1. बिना किसी भाषिक भेदभाव के सभी भारतवासियों के लिए व्यावसायिक शिक्षा को व्यापक आधार पर प्रदान की जाई। हालांकि केंद्र सरकार द्वारा इस दिशा में प्रयास किए जा रहे है परंतु इस पर और अधिक बल दिए जाने की जरूरत है।
2. नयी शिक्षा नीति के अनुरूप देश के सभी स्कूलों में राष्ट्र की प्रमुख भाषा एवं स्थानीय भाषा में ही शिक्षा दी जाए। अङ्ग्रेज़ी केवल दूसरी या तृतीय भाषा के रूप में पढ़ाई जाए।
3. सभी परीक्षाओं में विवेकपूर्ण तरीके से भारतीय भाषा के माध्यम से समान अवसर प्रदान की जाए।
4. भारतीय भाषाओं के पढ़ने के आधार का विस्तार करने के क्रम में भारतीय भाषाओं के सीखने के समक्ष उत्पन्न बाधाओं को समाप्त किया जाए।
5. साथ ही, सबसे महत्वपूर्ण देशी भाषाओं के पारस्परिक एवं एक-दूसरे के बीच विद्यमान अंतरसंबंध को प्रोत्साहित किया जाए।
नयी शिक्षा नीति के तहत कुछ प्रयास हुए है, परंतु अभी मीलों आगे जाना है। हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं को हमें निष्ठा भाव से जाग्रत करना होगा। आइए, मातृभाषा दिवस के अवसर पर भारतीय साहित्य के महान श्लाका पुरूष भारतेंदु हरिश्चंद की पंक्तियों को स्मरण करें –
“निज भाषा उन्नति अहै,
सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के
मिटत न हिय को सूल॥”

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