वीरवर हरदोल बुन्देलखण्ड के लोकदेव के रूप में पूजित ऐतिहासिक पात्र हैं। उनका जीवन वीरता, त्याग और बलिदान की अद्भुत गाथा है। अपनी भाभी की सच्चरित्रता का परिचय देने हेतु उन्हीं के हाथों से हँसते हुए विषपान कर लेने का उदाहरण केवल भारत की महान संस्कृति में ही मिल पाना संभव है। आततायी मुगलों के लिए कालसम बन जाने वाले, बहिन के लिए मरकर भी जीवित हो जाने वाले लाला हरदोल को बुन्देलखण्ड की धर्मप्रेमी जनता साक्षात भगवान के रूप में पूजती है। आज भी बुन्देलखण्ड के परिवारों का विवाह का पहला निमंत्रण लाला हरदोल को दिया जाता है क्योंकि माना जाता है कि जिस प्रकार उन्होंने अपनी बहिन कुंजावती की बेटी के विवाह को निर्विघ्न सम्पन्न कराया था, उसी प्रकार वे बुन्देलखण्ड की सभी बेटियों के विवाह भी सकुशल और निर्विघ्न सम्पन्न कराएंगे। यह लोक आस्था ही उन्हें ऐतिहासिक पात्र से अलौकिक एवं दिव्य ईश्वरीय विभूति के रूप में प्रतिष्ठित करती है। इसका वर्णन करते हुए डॉ. हरिमोहन गुप्त जी माँ सरस्वती की उपासना करते हुए मंगलाचरण में लिखते हैं-
उसका तो आदर्श आज भी, प्रगट यहाँ जन जन में,
हो विवाह या कोई उत्सव, प्राणी के जीवन में।
प्रथम पूज्य हरदोल लला को, भेजें नेह निमन्त्रण,
कार्य सभी के पूरे होते, आते हैं हैं वे उस क्षण।
साहित्य का कार्य सिर्फ मन रंजन नहीं होता, अपितु उसका एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य विश्व की सांस्कृतिक चेतना के संवाहक नायक-नायिकाओं के अप्रतिम जीवन वृत्त से आलोकित करना भी होता है। इसी पावन लक्ष्य को दृष्टिगत रखते हुए हरिमोहन गुप्त जी वीरवर हरदोल जी की कथा वर्णित करने से पूर्व मंगलाचरण में लिखते हैं-
नम्र निवेदन सरस्वती माँ, रसना में रस घोल,
पाठक गण को मिले प्रेरणा, नेत्र सभी के खोल।
सफल हो सके काव्य हमारा, विनय करो स्वीकार,
श्रेष्ठ पात्र हो, सम्मानित हो, ‘लाला श्री हरदोल’।
लाला हरदोल ओरछा नरेश वीर सिंह देव के छोटे पुत्र थे, जिनकी वीरता से मुगल भी घबराते थे और बड़े पुत्र जुझार सिंह के राजा बनने पर वे उनके दीवान बनकर ओरछा राज्य में सर्वत्र रामराज्य स्थापित करने का महती कार्य कर रहे थे, इसका चित्र अंकित करते हुए गुप्त जी लिखते हैं-
वीरसिंह पश्चात राज्य के, जुझार सिंह अधिकारी,
अब वे हैं दीवान ओरछा, हैं वे भी उपकारी।
जैसे ही जब जुझार सिंह ने, गद्दी यहाँ संभाली,
अनुयायी हरदोल भाई हैं, परम्परा यह डाली।
उन दोनों का शासन ऐसा, सब प्रसन्न हैं मन से,
फहरी कीर्ति पताका उनकी, अनुशासित हैं तन से।
राजकोष बढ़ रहा निरन्तर, प्रजा सुखी रहती है,
शासन का विस्तार हुआ है, यश धारा बहती है।
युद्ध में वीर हरदोल से परास्त होने पर मुगलों ने दोनों भाइयों के बीच के अगाध प्रेम और विश्वास को खत्म करने के लिए जिस कुटिल नीति का सहारा लिया, वह उनकी कायरता और नीचता का उदाहरण है। मुगल सेना के हारने पर मगल बादशाह शाहजहाँ का वजीर उसे सलाह देता है-
तब वजीर ने कहा शहनशां, आप अगर आज्ञा दें,
दिल्ली के सम्राट आप है, इसको आप समझ लें,
जब हरदोल वहाँ ताकतवर, उसका भाई आगे,
जुझार सिंह उससे बलिष्ट है, उससे दुश्मन भागे।
जिनको हमने करद बनाया, मुक्त वही हो जाएँ,
साथ ओरछा के वे होंगे, नई मुसीबत लायें।
मेरी नेक सलाह आप को, कूट नीत को लेखें,
आपस में टकरायें भाई, श्रीमन इसको देखें।
कूट नीति से मिल कर उनसे, विग्रह हम कर पायें,
कोई दूत वहाँ पर जाए, जो यह पता लगाये।
भाई-भाई में फूट डाल दें, मिले सफलता हमको,
बिना युद्ध के वे दुर्बल हों, हो प्रसन्नता सबको।
इस धूर्ततापूर्ण लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वजीर जो सलाह देता है, उसका अंकन करते हुए गुप्त जी लिखते हैं-
वहाँ गुप्तचर हमें भेजना, कुछ दिन रहे वहाँ पर,
असंतुष्ट कुछ वहाँ मिलेंगे, उनको बस फुसलाकर।
राजा से जो करे शिकायत, बातें बढ़ा-चढ़ा कर,
हम देखें परिणाम उसी का, बस कुछ दिन ही रुककर।
रानी से सम्बन्ध कदाचित, नहीं उचित यह जाना,
यदि अनुचित सम्बन्ध वहाँ हैं, तो होगा मनमाना।
बात बनेगी मनचाही ही, उसको यह बतलाना,
फिर देखें तलवार खिंचेगी, आपस में टकराना।
इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए मुगलों ने कुछ असन्तुष्ट क्षत्रपों को साधकर वीरवर हरदोल और उनकी माँ समान भाभी राजा जुझार सिंह की पत्नी रानी चंपावती के मध्य अनैतिक संबंधों की स्वप्न में भी न सोची जा सक्ने वाली अफवाह उड़ा दी, जिसे सुनकर राजा जुझार सिंह के मन में उथल-पुथल मच गई और वे रानी से जो बोलते हैं, इसका चित्रण करते हुए गुप्त जी लिखते हैं-
लेकिन मैंने सुना और कुछ, निन्दा बता रही है,
मन कहता है प्राण त्याग दूं, चिंता सता रही है।
कैसे कब तक सुनूँ यहाँ पर, इच्छा मर जाने की,
अच्छा है जग को मैं त्यागूं, पुनर्जन्म पाने की।
रानी चंपावती ने इस पर लाख सफाई दी और उन्हें समझाने की कोशिश की, किन्तु राजा टस से मस नहीं हुए और अपना अंतिम निर्णय सुनाते हुए उन्होंने जो कहा, उसे सुनकर आज भी बुन्देलखण्डवासियों की आँखें नम हो जाती हैं-
कल प्रात: हरदोल लला को, आप निमंत्रित करिये,
स्वयं रसोई आप बनाएं, उसमें यह विष रखिये।
उसे सामने यहाँ बिठा कर, भोजन उसे कराएं,
यह मेरी आज्ञा है सुन लो, यह दायित्व निभाएं।
इसके पश्चात रानी चंपावती लाला हरदोल को भोजन पर निमंत्रित करती हैं और उन्हें सारी बातें बताती हैं, जिसके बाद वीरवर हरदोल का उदात्त चरित्र हमारे सम्मुख झिलमिलाने लगता है, जब वे कहते हैं-
वह तो मेरे पिता तुल्य हैं, करना यही उचित है,
उनकी आज्ञा पालन करना, इसमें ही अब हित है।
वही आप आज्ञा न मानें, शंका और प्रबल हो,
उनका फिर सन्देह बढ़ेगा, मन में क्यों हलचल हो।
यदि भोजन तुमने स्वीकारा, होगा यही विवादित,
चरित आपका दूषित होगा, यह ही होगा चर्चित।
उचित यही है धैर्य रखो तुम, शंका रहे पराजित,
रामलला ही अब बल देंगे, जीवन रहे सुभाषित।
डॉ. हरिमोहन गुप्त जी चतुर्थ सर्ग तक आकर यहाँ इस कथा के प्रथम चरण का समाहार कर देते हैं और इसके पश्चात पंचम सर्ग से हरदोल की बहिन कुंजावती का प्रसंग प्रारंभ होता है, जो अपनी पुत्री के विवाह के भात हेतु राजा जुझार सिंह को निमंत्रित करने आती है, किन्तु उस समय वह अवाक रह जाती है, जब राजा जुझार सिंह उसे खरी-खोटी सुनाते हुए कहते हैं-
मुझसे क्यों आशा तुम करती, वही तुम्हारा भाई,
मुझको तो अपमानित करके, पीड़ा भी पहुँचाई।
मुझसे अब क्या लेना-देना, व्यर्थ यहाँ तक आई,
तुम समर्थ हो सब प्रकार से, होगी वह फलदाई।
केवल बस हरदोल भाई है, उसे नारियल दे दो,
मुझसे क्या सम्बन्ध तुम्हारा, उससे आशीष ले लो।
जो कुछ तुमने कहा, सुना सब, केवल दोषी मैं हूँ,
सीमा लांघी कहने की ही, बस सन्तोषी मैं हूँ।
अगर भाई हरदोल तुम्हारा, माँगो उससे जाकर,
चलो बता दूँ मैं समाधि को, क्या करना था आकर।
भाभी वहीं कहीं पर होंगी, हो जायेगा मिलना,
इच्छाएं पूरी सब होंगी, मुझको नहीं उलहना।
इस हृदयविदारक उत्तर को सुनकर कुंजावती हरदोल की समाधि पर जाकर उनसे जो निवेदन करती है, उसका अत्यंत कारुणिक चित्र गुप्त जी ने उकेरा है, जिसमें कुंजावती अपने भाई से रोते हुए कहती है-
मेरे प्रिय हरदोल आज मैं, आई पीड़ा लेकर,
आज निवेदन तुमसे करती, इस समाधि पर आकर।
यहाँ नारियल ग्रहण करो तुम, इच्छा पूरी होगी,
मंगल कार्य सभी पूरे हों, वहाँ न दूरी होगी।
बार-बार विनती मैं करती, ग्रहण करो शुभ न्योता,
असमय तुम तो चले गये हो, मन मेरा अब रोता।
समझूँगी मैं अब अनाथ हूँ, व्यर्थ आगमन होगा,
नहीं पूर्ण हो पाई इच्छा, कहाँ निवेदन होगा।
ऐसा लगा हाथ दोनों ही, ऊपर उठे वहां पर,
फूटा तभी नारियल भू पर, देखा सबने आकर।
सब प्रसन्न थे भाभी, कुंजा, भात यहाँ स्वीकारा,
सभी मनोरथ पूरे होंगे, बही नेह की धारा।
डॉ. हरिमोहन गुप्त जी की यह खूबी है कि उन्होंने इस प्रकरण का वर्णन करने के पश्चात खलनायक सम माने जाने वाले राजा जुझार सिंह के चरित्र को भी निर्मल कर दिया है। वे वर्णित करते हैं कि जब राजा जुझार सिंह को ज्ञात होता है कि उनके दिवंगत भाई हरदोल ने अपनी भांजी को स्वयं भात भेजने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया है तो वे अपने कृत्य पर पश्चाताप करते हैं और बहिन कुंजावती के घर विवाह में जाने का निर्णय लेते हैं-
कुछ की बातों में ही आकर, मैंने भाई खोया,
तुमको गलत समझ बैठा मैं, पाप न अबतक धोया।
बहिन-भाई का रिश्ता टूटे, दूरी हो हम सब से,
और अकेले हम हो जाएँ, सभी लड़ेंगे हम से।
अब तो पश्चाताप शेष है, मैंने धोखा खाया,
क्षमा करो चम्पावति मुझको, खोकर भी कुछ पाया।
चला गया हरदोल जहाँ से, शायद नियति यही है,
नहीं बहिन को मुझे छोड़ना, अब भी शक्ति रही है।
नहीं पाप अब होगा मुझसे, हमें संगठित होना,
शादी में हम सब पहुंचेंगे, बीज न विष का बोना।
जो कुछ मुझसे हो पायेगा, वह सब मुझको करना,
तुम भी दो सहयोग यथोचित, नहीं अकेला रहना।
इसके पश्चात राजा जुझार सिंह सपरिवार बहिन के घर विवाहोत्सव में पहुंचते हैं, बहिन कुंजावती भी पुराने जख्म भूलकर उनका स्वागत करती है, किन्तु उस समय सभी विस्मित रह जाते हैं, जब बारह बैलगाड़ियों में भरकर भात का सामान पहुंचता है। इसका रोचक चित्रण करते हुए गुप्त जी लिखते हैं-
बारह बैल गाड़ियों में है, सब सामान भरा है,
मार्ग पूछते महलों तक का, सेवक साथ खड़ा है।
लोगों को आश्चर्य, पूछते, शादी का भन्डारा,
एक दूसरे से वे कहते, भेद खुलेगा सारा।
यह सामान महल पहुँचा दो, सबका यही कथन है,
किसने भेजा नहीं जानते, शादी हित अर्पण है।
आटा, चावल, तेल, और घी, अलग अलग हैं रखते,
चीनी, गुड़, मेवा ,कुछ फल हैं, सुन्दर से वे दिखते।
इसके बाद द्वारचार की रस्म के दौरान जो कुछ होता है, वह लाला हरदोल को ऐतिहासिक पात्र से आगे ले जाकर अलौकिक लोक देवता के रूप में प्रतिष्ठित कर देता है। इस अद्भुत, अलौकिक घटना के सुंदर अंकन से यह काव्य रचना अपनी सुवास को बढ़ाती है, जब गुप्त जी लिखते हैं-
उसी समय देखा लोगों ने, सब आश्चर्य चकित हैं,
ऐसा भी क्या सम्भव होता, सभी लोग विस्मृत हैं।
सबने देखा हाथ उठे दो, कन्ठहार पहिनाया,
किसके हैं ये हाथ उठे जो, कोई जान न पाया।
दूल्हा ने हाथों को थामा, श्रीमन दें अब दर्शन,
कौन आप हैं क्या जानूँ मैं, क्यों मुझमें आकर्षण।
हाथ नहीं मैं जब तक छोडूं, जब तक जान न पाऊँ,
यहाँ कौन सा नेग नया है, उसको मान न पाऊँ।
इतना पड़ा सुनाई सबको, लोक रीत को जानो,
होता है कर्तव्य प्रमुख ही, इसको भी तुम मानो।
मृतक व्यक्ति सामने आये, वह तो प्रेत कहाए,
अच्छा नहीं किसी ने माना, इसीलिए सकुचाये।
मामा हूँ हरदोल तुम्हारा. बिना देह का प्राणी,
कुंजा को बस वचन दिया था, उसकी आज्ञा मानी।
मेरा था कर्तव्य निभाया, आगे सदा निभाएं,
हँसी-ख़ुशी से शुभ विवाह हो, हम सब अब मुस्काएं।
इसके बाद अलौकिक काया के रूप में वीरवर हरदोल बुन्देलखण्ड के नर-नारियों हेतु घोषणा करते हैं-
जो भी बहिनें याद करेंगी, वहाँ आऊँगा निश्चय,
शादी भी निर्विघ्न रहेगी, सदा रहेगी निर्भय।
सभी लोग आनन्दित होंगे, स्वार्थ न आगे आयें,
आजीवन सम्बन्ध जुड़ेंगे, उभय पक्ष मुस्काएं।
अंत में गुप्त जी ने कोंच में स्थापित लाला हरदोल के चबूतरे की महिमा का वर्णन किया है कि किस प्रकार सन 1903 में महामारी आने पर लाला हरदोल ने कोंचवासियों की रक्षा की थी-
सन उन्नीस तीन की घटना, आई यहाँ बीमारी,
प्राणी मरे सैकड़ों उसमें, यह संकट था भारी।
हाहाकार कोंच भर में था, क्या कुछ हम कर पायें,
बीमारी भी बहुत भयंकर, कैसे प्राण बचाएं।
जो लोग हिन्दू धर्म में ऊंच-नीच और अस्पृश्यता का वर्णन करते नहीं थकते उनके लिए यह अमर ऐतिहासिक कथा आइना दिखाने का काम करती है। गुप्त जी ने भी वर्णन किया है कि हरदोल के साथ उनके अनन्य स्वामिभक्त मेहतर बब्बा ने भी उनका बचा भोजन खाकर अपने प्राण त्याग दिए थे, कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए कोंच की धर्मपरायण जनता ने वीरवर हरदोल के साथ मेहतर बब्बा की प्रतिमा भी चबूतरे पर स्थापित की है। सन 1903 में एक धोबिन बहू को हरदोल ने दर्शन देकर कोंच नगर में हरदोल का चबूतरा बनाने को कहा था और प्रत्येक तीन वर्ष में उनकी पूजा करने के निर्देश दिए थे। इस घटना का चित्रण करते हुए गुप्त जी कहते हैं-
स्वप्न हुआ था धिविन बऊ को, पूजा बड़ी लगाओ,
तीन साल में एक बार ही, सब छुटकारा पाओ।
पंचायत तब वहाँ जुड़ी थी, यह निर्णय हो पाया,
पूजा एक बड़ी करना है, खिले सभी की काया।
हरदोल लला का है चबूतरा, पूजा होगी भारी,
विधि विधान से पूजा होगी, होगी सब तैयारी।
सन उन्नीस तीन को मिलकर, यहाँ लगी थी पूजा,
हे! हरदोल मिटाओ संकट, शब्द यही था गूंजा।
तब से प्रत्येक तीन वर्ष में कोंच नगर में धोबिन बहू के घर हरदोल की पूजा का आयोजन किया जाता है, पूजा हेतु हरदोल की बेसन की मूर्ति धीवर द्वारा बनाई जाती है, महंत पूजा करते हैं और एक लड़की द्वारा भोग लगाया जाता है, बकरे की गाड़ी में यह दिव्य मूर्ति रखी जाती है, साथ में दो सूअर चलते हैं, विभिन्न जनजातियों के लोग दिव्य मूर्ति को भोग लगाते हैं और भव्य आयोजन के साथ सर्व एकात्मता का संदेश देते हुए यह पूजा सम्पन्न होती है-
तब से अब हर साल तीसरी, पूजा का आयोजन,
धोबिन बऊ के घर न्योता है, आयें इसी प्रयोजन।
नई बस्ती में राम प्रकाश के घर से जाता न्योता,
उनके घर से वे आ जाते, ऐसा हरदम होता।
धीवर एक वहीं रहता है, बेसन मूर्ति बनाता,
पहनाता पोशाक उन्हीं को, वह ही उन्हें सजाता।
डलिया आती वहाँ विदा की, महन्त चतुर्भुज घर से,
पूजा होती वहाँ यथा विधि, भोग लगाती लड़की।
गाते भजन आरती होती, आनन्दित सबके मन,
व्याधि हटेगी सब प्रकार की, उत्साहित है जीवन।
गाँठ बाँधती यहाँ औरतें, साड़ी में वे बांधें,
वहाँ सैकड़ों नारी पहुँचें, संकल्प सभी साधें।
पन्द्रह दिन पहिले से ही यह, पुण्य कार्य हित होता,
लाखों रुपया जुड़ जाता है, नहीं कोई समझौता।
दो सौ क्विंटल आटा, चावल, इसी हेतु जुड़ जाता,
सब अपना सौभाग्य मानते, सच्चा सुख वह पाता।
तरह तरह के आभूषण से, दिव्य मूर्ति यह सजती,
आकर महन्त कंधा देते, डोली तब ही उठती।
सभी नाचते आगे चलते, ढोल मंजीरा संग में,
अलग वेशभूषा है उनकी, अपने-अपने ढंग में।
दो बकरे गाड़ी में जुड़ते, संग-संग वे जाते,
डोली जब पडरी तक पहुँचे, छोड़ दिए वे जाते।
साथ चलें दो सुअर संग ही, पडरी तक वे जाते,
कुछ जनजाति वहाँ मिलजुल कर,उनका भोग लगाते।
घुल्ला कभी खेल जाते हैं, उन्हें शांत जन करते,
नीबू काट आरती करते, भोग लगा पग धरते।
घुल्ला शांत तभी हो पाते, कोई नाचते आते,
किसी तरह से शांत कराते, बाधा सभी हटाते।
इस प्रकार यह अद्वितीय काव्य रचना पूर्णता को प्राप्त होती है। अब काव्य निकष पर इस काव्य कृति की पड़ताल करते हैं। काव्यशास्त्रीय आचार्यों ने अभिधा को उत्तम काव्य माना है, बशर्ते वह उत्कृष्ट काव्य की कसौटी पर खरा सिद्ध हो। कहने की आवश्यकता नहीं कि गुप्त जी विरचित ‘लाला श्री हरदोल’ कृति इस कसौटी पर पूर्णतः खरी उतरती है।
कवि शिरोमणि ने बुन्देलखण्ड की प्रकृति सुषमा के अनुपम दृश्य खींचे हैं। प्रारंभ में वेत्रवती और जामिन नदी के संगम स्थल एवं कंचन घाट के सुरम्य चित्र और यहाँ के नर-नारियों एवं वन्य प्राणियों के अप्रतिम दृश्य अंकित करते हुए वे लिखते हैं-
वेत्रवती जामिन का संगम, अनुपम छटा दिखाई,
छोटी वहीं बड़ी से मिलती, सचमुच है सुखदाई।
जगह-जगह पर घाट मनोरम, छटा अलौकिक छाई,
करते हैं स्नान सभी जन, पुण्य कमाते भाई।
यहाँ प्रकृति सौन्दर्य सुपावन, कलकल जल की धारा,
कंचन घाट जहाँ महिलाएं, श्रम खोती हैं सारा।
मल मल के स्नान करें वे, जब वे होतीं खाली,
अठखेली करतीं पानी में, बजा बजा कर ताली।
वन्य जीव को है अथाह जल, पानी पीने आते,
दिखती टोली हिरणों की भी, मन्त्र मुग्ध कर जाते।
हिंसक जीव दिखें जब-तब ही, रहते दूर वनों में,
पानी उन्हें वहीं मिल जाता, बरसाती झरनों में।
लता, वृक्ष, क्षुप, पौधे सब ही, महकाते हैं वन को,
मंद सुगन्धित पवन निरन्तर, अच्छी लगती मन को।
पशु-पक्षी भी निर्भय घूमें, वातावरण लुभाना,
नदियों में कलकल स्वर गूंजे, लगता बहुत सुहाना।
वीरता बुन्देलखण्ड का प्राण है, तो लाला हरदोल इसके प्राणवंत प्रतीक हैं। जब मुगलों की ओर से आए नाशेर खाँ से लाला हरदोल युद्ध लड़ते है, तब उनका तथा बुन्देलखण्ड के वीरों का रणकौशल देखते ही बनता है। इसके वीररस से परिपूर्ण चित्र अंकित करते हुए गुप्त जी लिखते हैं-
युद्ध हुआ प्रारम्भ वहाँ तब, सैनिक लड़े परस्पर,
दोनों ओर खिची तलवारें, मार रहे वे बढ़ कर।
चंमचम चमचम चमक उठी, बिजली सी तलवारें,
वीर बांकुरें लड़ें समर में, भर-भर कर हुंकारें।
कोई गिरता, कोई उठता, उठ कर वार करे वह,
जो गिर गया,सदा को सोता, जाग नहीं पाता वह।
दस को मार तभी मरता है, यहाँ बेतवा पानी,
मुगलों की अब फौज घट रही, याद आ रही नानी।
यहाँ वीर हरदोल हाथ में, दो दो हैं तलवारें,
एक राज्य की, एक स्वयं की,दोनों हाथ सँवारें।
दोनों हाथों से लड़ते वे, दुश्मन को ललकारें,
एक हाथ से वार बचाते, दूजे से वे मारें।
नाशेर खान भी रहा लड़ाकू, लड़ता रहा वहाँ पर,
वार करे हरदोल वीर पर, दिखता हुनर यहाँ पर,
वार करे हरदोल जब कभी, सहन नहीं कर पाता,
उसका वार छूटता अक्सर, इसका दर्द सताता।
तलवारें खनकी दोनों की, दाँव लगाये सारे,
लेकिन हैं कमजोर शेरखां, अपनी हिम्मत हारे।
बहुत देर से युद्ध हो रहा, टकराती तलवारें,
कभी हाथ खाली पड़ जाता, फिर बचाव कर मारें।
अब यह वार हुआ गर्दन पर, नाशेर खान है भू पर,
गर्दन उसकी लटक रही है, नहीं उठ सकी ऊपर।
जयजय का जयनाद हो रहा, युद्ध विराम यहाँ पर,
दुश्मन की सेना तब बिखरी, कोई नहीं वहाँ पर।
अंततः यह कहा जा सकता है कि वीरवर हरदोल के निर्मल पावन चरित्र को श्रद्धेय डॉ. हरिमोहन गुप्त जी ने अपनी सशक्त लेखनी से काव्याभिव्यक्ति देकर इस चरित्र के पुनीत और प्रेरक आदर्श को पुनश्च प्रस्तुत करने का महती कार्य किया है, जो कविता निकष पर भी उत्कृष्टता की अमित-अमिट रेखाएं खींचने में सक्षम है।
आदरणीय गुप्त जी द्वारा विरचित इस काव्य ग्रंथ के माध्यम से बुन्देलखण्ड ही नहीं, वरन देश के नर रत्न वीरवर लाला हरदोल की कारुणिक किन्तु प्रेरक कथा देश-देशान्तर तक पहुंचेगी और माँ भारती के इस सुयोग्य पुत्र की कथा को पढ़कर पाठक भारत की त्यागमयी संस्कृति पर गर्व करेंगे, इसी अपेक्षा के साथ मैं आदरणीय डॉ. हरिमोहन गुप्त जी को एक श्रेष्ठ काव्य सृजन के लिए साधुवाद देता हूँ।

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