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राजस्थान के एक पठान परिवार में जन्म लेने वाला ये लड़का शुद्ध शाकाहारी था । पिता जी अक्सर चिढाते हुए कहते थे कि पठान के परिवार में ब्राह्मण ने जन्म लिया है। सब ठीक चल रहा था, नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में इरफ़ान का दाखिला भी हो गया था लेकिन उसी दौरान उनके पिता उनका साथ छोड़ दुनिया से चल बसे। उम्र मात्र 19 वर्ष थी, जिम्मेदारियों का बोझ बड़ा हो गया, लेकिन नियति तय कर चुकी थी कि इरफ़ान को इरफान खान बनना था तो भला इसे कौन रोक सकता था। पिता अपने पीछे एक दुकान छोड़ गए थे जिसकी जिम्मेदारी इरफ़ान के छोटे भाई ने संभल ली। घर ठीक से चलने लगा और इरफ़ान को अपनी मंजिल की ओर जाते हुए रास्ते से वापस ना मुड़ना पड़ा।

‘इरफ़ान खान’ एक ऐसा नाम जिसे सुनते ही दर्शक यह सोच कर उत्साहित हो उठाते थे कि इस बार क्या नया देखने को मिलेगा। किरदार भले ही कोई भी हो लेकिन इरफ़ान खान का अंदाज कभी नहीं बदला । उनकी खामोश आंखों का बेचैनी से चिल्लाना हमेशा से दर्शकों के आकर्षण का केंद्र रहा है, उनके लहजे में जो ठहराव होता है उस ठहराव में कितनों के दिल ठहर जाते रहे हैं । इरफ़ान भाई की एक सबसे खास बात ये रही कि वो अपने किरदारों में अपनी वास्तविकता की झलक को मरने नहीं देते थे । जो किरदार वो करते रहे उसे वो खुद इरफ़ान बन कर जी लेते थे इसीलिए उनकी हर फिल्म फिल्म ना हो कर वास्तविकता लगती है।

इरफ़ान को हमेशा से चुनौतियों भरे किरदार ही पसंद रहे हैं। उन्होंने कभी सहज किरदार नहीं निभाना चाहा, शायद यही वजह रही कि वो दो दशक तक सिनेमा जगत की खाक छानने के बाद बड़े परदे पर अपना दबदबा कायम कर पाए। उन्हें बनावटी किरदार नहीं पसंद थे वो हमेशा चुनौतीपूर्ण किरदार निभाना चाहते थे । मीरा नायर की फिल्म ‘द माइग्रेसन’ में इरफान एक समलैंगिक का किरदार निभाया था। नायर की यह फिल्म एड्स रोग पर आधारित थी। उस समय इरफ़ान ने कहा था कि, “मीरा ने पहले मुझे एक किसान का किरदार निभाने के लिए कहा, लेकिन मैंने अनुभव किया कि इस किरदार में कोई चुनौती ही नहीं है। मैंने उनसे कहा कि आप मुझे चुनौतिपूर्ण किरदार निभाने का मौका दें।”

अपने शुरुआती दौर में भी किसी के आगे कमतर नहीं दिखे इरफ़ान
। ऐसा नहीं कि बड़े पर्दे पर आने के बाद इरफ़ान के अभिनय का रंग निखरा है, शुरुआती दौर में उनके द्वारा अभिनित शार्ट फिल्मों तथा धारावाहिकों में भी उनके यही तेवर थे जो आज देखने को मिलते हैं। 90 के दशक में गुलजार साहब द्वारा निर्मित किरदार नामक धारावाहिक दूरदर्शन पर प्रसारित होता था। उसके एक एपिसोड में ओम पुरी और इरफान एक साथ दिखे थे। धारावाहिक के एक दृश्य में जब दंगों की आग से झुलसते शहर में दो किरदार एक कूड़ेदान के भीतर एक-दूसरे को जानने की कोशिश करते हैं तो देखने वालों की नजरें स्क्रीन से हट नहीं पातीं। भले ही ओम पुरी साहब इरफ़ान से उम्र व अनुभव में बहुत बड़े रहे हों लेकिन यहाँ पर संवादों की अदायगी हो या चेहरे के भाव, इरफान कहीं भी दिग्गज ओमपुरी से कमतर पड़ते नहीं दिखे।

उनके अभिनय की कई मशहूर हस्तियों ने आलोचना भी की लेकिन उन्हें इस बात से ज़रा फर्क नहीं पड़ा। एक जानेमाने निर्देशक ने उनसे कहा था कि “ये जो तुम करते हो इसे थोडा कम करो।” लेकिन इरफ़ान ने कम होने की बजाए और बढ़ गए और उसी बढ़ते रहने का नतीजा है कि आज लाखों प्रशंसकों के आंखें उनकी वजह से नम हैं। इरफ़ान अपना बेहतरीन देने से कभी नहीं चूके, उन्हें पहाड़ पर चढ़ना पड़ा वो चढ़े, उन्हें संजीदा अभिनय करना पड़ा उन्होंने किया, दबंग बने, आशिक बने, शायर बने, बालीवुड से ले कर हॉलीवुड तक ना जाने कितने तरह के रूप बदले।

कॉलेज के दिनों में भी उनकी क्लासमेट रही सुतपा सिकंदर ने भी उनकी काफी मदद की थी। संघर्ष के दिनों में वे उनके साथ हमेशा खड़ी रहती थी। जिसके बाद इरफान ने उनसे शादी करने का फैसला कर लिया लेकिन सुतपा के हिंदू होने की वजह थोड़ी दिक्कते आईं। इरफान उनसे शादी करने के लिए हिंदू धर्म अपनाने को भी तैयार हो गये थे। लेकिन बाद में परिवार की रजामंदी के बाद ये नौबत नहीं आई।

इरफ़ान ने कभी हर नहीं मनी, वो हमेशा लड़ते रहे और इसके लिए उन्होंने खुद को कभी झुकने भी नहीं दिया। अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि, “बड़े कलाकार मेरे साथ काम नहीं करते क्यों कि उन्हें डर रहता है कि मैं उनके ‘मैं” को खा जाऊंगा।”

टेलीविजन सीरियल्स से अपने करियर की शुरूआत करने वाले इरफ़ान खान ने अपने दिनों में चाणक्यं, भारत एक खोज, चंद्रकांता जैसे धारावाहिकों में छोटी मोटी भूमिकाएं निभाईं। उनके फिल्मी करियर की शुरूआत फिल्म ‘सलाम बाम्बे ‘ में निभाए गये एक छोटे से रोल के साथ हुई। इसके बाद उन्होंने कई फिल्मों में छोटे बड़े रोल किए लेकिन असली पहचान उन्हें ‘मकबूल’, ‘रोग’, ‘लाइफ इन अ मेट्रो’, ‘स्लीमडॉग मिलेनियर’, ‘पान सिंह तोमर’, ‘द लंचबाक्सन’ जैसी फिल्मों से मिली। इरफान खान की बेहतरीन फिल्मों में ‘स्पाइडर मैन’, ‘जुरासिक वर्ल्ड’ ,’इन्फर्नो’ ‘लंचबॉक्स’, ‘गुंडे’, ‘हैदर’, ‘पीकू’ और ‘हिंदी मीडियम’ जैसी बेहतरीन फिल्में शामिल हैं। इरफान खान को फिल्म ‘पान सिंह तोमर’ के लिए नेशनल अवॉर्ड से सम्मानित किया गया था। साल 2011 में भारत सरकार की तरफ से उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया।

ऊपर लेख में जितनी जगह ‘था’ उतनी बार मन में टीस उठी है । यकीन नहीं होता कि इरफान हमारे बीच से इस तरह चुपचाप उठ कर चले गये । अभी तो बहुत कुछ बाक़ी था । हमेशा हंसते और हंसाते रहने वाले इरफान भाई को हंस कर ही विदा करेंगे । आत्मा की शांति या रूह को जन्नत नसीब होने की दुआ प्रार्थना कर के उन्हें किसी धर्म मज़हब में नहीं बांटेंगे । उनके लिए बस यही कहेंगे कि आपने जो अपने जीवनरूपी फिल्म में अभिनय निभाया उसे लोग खूब सराह रहे हैं । अब तो बस ऊपर बैठ कर वाह वाही बटोरिए इरफान भाई । जहां रहिए मुस्कुराते रहिए

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