शरद सिंह हिन्दी-साहित्य में एक सशक्त स्त्री-विमर्शकार के रूप में उभर कर सामने आये हैं। इन्होंने साहित्य की प्रत्येक विधाओं में अपनी लेखनी चलाई हैं, जिसमें उपन्यास, कहानी संग्रह, नाटक संग्रह, काव्य संग्रह, जीवनी के साथ पत्रकारिता का रूप भी नज़र आता है। वर्तमान में ये सामयिक सरस्वती पत्रिका के कार्यकारी सम्पादक के रूप में भी कार्य कर रहे है। शरद सिंह के साहित्य में नारी-विमर्श के विविध पक्षों का यथार्थ-चित्रण प्रस्तुत किया गया हैं। नारी-जीवन की दसदिक् पीड़ाओं की अभिव्यक्ति उनके साहित्य में देखने को मिलता हैं। वह समाज में फैले उन समस्याओं पर लिखना ज्यादा पसंद करती हैं, जो प्राय: अछूते रह जाते हैं। नारी-जीवन का सूक्ष्म विश्लेषण इनकी साहित्य की विशेषता है। इनकी रचनाओं में नारी-विमर्श पूर्वाग्रहमुक्त और अन्वेषण के रूप में पाठकों के सामने आता हैं। शरद सिंह ने अपने साहित्य को इतनी सहजता से प्रस्तुत किया हैं कि पाठकों को उनका साहित्य पढ़ते समय ऐसा लगता है, जैसे वे स्वयं भी उनका अंग हो। इनके साहित्य की एक और विशेषता यह भी हैं की इनका साहित्य कल्पना पर आधारित न होकर यथार्थवाद से जुड़ा होता है। मानवीय संवेदनाओं और जीवन अनुभवों पर भी इनका साहित्य आधारित हैं। सुन्दरम शाण्डिल्य शरद सिंह के संबंध में लिखते हैं कि- “शरद सिंह साहित्य के क्षेत्र में एक सशक्त हस्ताक्षर ही नहीं, बल्कि वर्तमान समय की लड़कियों/स्त्रियों की रोल माँडल भी हैं।”1 शरद सिंह का उपन्यास ‘कस्बाई सिमोन’ भारतीय  समाज में ‘लिव इन रिलेशन’ का ऐसा नया रूप प्रस्तुत करता है, जो पाठकों को यह सोचने पर भी मज़बूर करता हैं कि स्त्री देह है या देह से परे भी बहुत कुछ है।
‘कस्बाई सिमोन’उपन्यासमें नारी–विमर्श के विविध आयामों का चित्रण किया गया है। ‘कस्बाई सिमोन’ की नायिका सुगंधा स्वतंत्रता की मांग करती है और परम्परा की बेडियों को तोड़ते हुए आधुनिकता के रंग मे रंग कर पुरुष वर्चस्ववाद को चुनौती देने में सक्षम हैं। विवेच्य उपन्यास विवाह और ‘लिव इन रिलेशन’ के मनोवैज्ञानिक धरातल को प्रस्तुत करता है। आज की नारी स्वतंत्रता चाहती है, वह अपने जीवन में किसी प्रकार का बंधन नहीं चाहती। वह अपने लिए भी पुरुष के समान अधिकार चाहती हैं। यदि एक पुरुष ‘लिव इन रिलेशन’ का जीवन व्यतीत करता है, तो हमारा समाज उसे कुछ नहीं कहता, लेकिन यही समाज नारी को ऐसा करते देखता है, तो उनके साथ अपशब्द के अतिरिक्त अभद्र व्यवहार क्यों करता हैं? जबकि पुरुष कितनी ही महिलाओं के साथ संबंध क्यों न बनायें उस पर कोई बंधन नहीं होता। क्यों ये बंधन महिलाओं पर ही लागू किए जाते हैं? उपन्यास की नायिका सुगंधा के विचार हैं- “बंधन! बंधन के जो रूप मैंने अब तक देखे थे उनमें स्त्री को ही बंधे हुए पाया था। पुरुष तो बंधकर भी उन्मुक्त था। वह पत्नी के होते भी एक से अधिक प्रेमिकाएं रख सकता था, रखैलें रख सकता था, यहां – वहां फ्लर्ट कर सकता था।”2
‘कस्बाई सिमोन’ की नायिका(सुगंधा) ने हमेशा अपने माता–पिता को लड़ते–झगड़ते देखा था। उन दोनों को देखकर कोई यह नहीं कह सकता था कि पापा कॉलेज में प्रोफेसर हैं और मां एम.ए. उतीर्ण महिला हैं। प्राय: घर में किसी न किसी बात को लेकर तू -तू में होना आम बात थी। उसकी माँ को उसके पिता के बाहरी संबंधों के बारे में भी पता होने के बाद भी वह पूरी कोशिश करती हैं। इस रिश्ते को निभाने की उसके बावजूद उसका पिता उसकी माँ को ही इन सब का दोषी मानता है। सुगंधा की माँ के शब्द- “मैं तुम्हें चैन से जीने नहीं देती हूँ? और तुम, तुम तो दूध के धुले हो न? तुम अपने शोध छात्राओं की थीसिस पास कराने के बदले उनसे क्या लेते हो, क्या मुझे पता नहीं? उन्हें अपने साथ सोने पर मज़बूर करते हो, घिन आती है तुम पर, दुर्भाग्य तो मेरा है जो मैं तुम्हारे साथ बंधी हूँ।”3मां एक दिन पति का घर छोड़ने का फैसला करती है, और सुगंधा को भी अपने साथ ले जाती है। दोनों का तलाक भी हो जाता हैं और अदालत में पापा गलत भी साबित होते हैं। इसके बाद भी समाज माँ को ही इसका जिम्मेदार ठहराता हैं और उसे पति द्वारा छोड़ी गई औरत मानते हैं जबकि पुरुष होने के कारण उसके पिता पर इसका कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता।” पुरुष ‘छोड़ दिए जाने’ पर भी छोड़ा गया नहीं कहलाता। परितक्त्य पुरुष पर अनेक माँ-बाप की आखें टिक जाती हैं, अपनी सच्चरित्र बेटियां ब्याहने के लिए, जबकि परितक्त्या  स्त्री को लोग भोगी जा चुकी स्त्री का दर्जा देखकर महज उपभोग की वस्तु के रूप में देखने लगता हैं।”4इसका बहुत बुरा प्रभाव सुगंधा पर पड़ता है, वह सोचती है कि विवाह में ऐसा ही होता है और  नहीं न करने का निर्णय ले लेती है। एक स्थान पर सुगंधा कहती है– “उफ! ये विवाह की परिपाटी, गढी‌ तो गई थी स्त्री के अधिकारों के लिए, जिससे उसे और उसके बच्चों को सामाजिक मान्यता, आर्थिक संबल आदि मिल सके। किंतु समाज ने उसे तमाशा बनाकर रख दिया। मैं इस तमाशे को नहीं जीना चाहती थी, इसलिए मैंने सोच लिया कि मैं कभी विवाह नहीं करूंगी।”5 वह अनुभव करती है कि मां ने भी विवाह किया था, किंतु विवाह कर के क्या पाया? उन्हें जीवन भर अपने पति से दूर रहना पडा। समाज के ताने सुनने पड़े, क्योंकि ऐसी नारी को समाज घृणा की दृष्टि से ही देखता हैं। तभी शादी का नाम सुनते ही वह कहती हैं कि “ये किसने कहा कि मैं तुमसे शादी करना चाहती हूं, कि तुमसे बच्चे पैदा करना चाहती हूं? तुम्हें पसंद करती हूं बस इसीलिए तुम्हारा साथ चाहती हूं।”6
सुगंधा विवाह में विश्वास नहीं करती इसी कारण वह विवाह नहीं करना चाहती। उसकी नौकरानी तारा, उसकी सहकर्मी कीर्ति, उसकी कई-कई पड़ोसिनों ने सुगंधा को समझाया था– “लड़का आवारा भी हो तो उसे कोई कुछ नहीं कहता, उसका घर मजे से बस जाता है, लेकिन लड़की का जीवन तो कांच की तरह होता है, एक भी खरोंच आयी तो सबको दिखाई देने लगती है।”7 उन सब के कहने पर भी वह उनकी बात का विरोध करती है और उन लोगों की बात से तंग आकर कहती है कि ”वाह! यह भी खुब रही, लोग चाहते हैं तो आप शादी कर लीजिए, लोग चाहते है तो आप मर जाइए, मेरा अपनी जिंदगी पर कोई अधिकार है या नहीं?”8
सुगंधा को अपनी स्वतंत्रता के लिए समाज क्या अपने परिवार से भी संघर्ष करना पड़ता है। उनकी माँ को जब पता चलता है कि उसकी बेटी बिना विवाह किए किसी पुरुष के साथ ‘लिव इन रिलेशन’ में जीवन व्यतीत कर रही है, जोकि उनकी परम्परा के विरुद्ध है तो वह बेटी को समझाने का प्रयत्न करती हैं। परन्तु सुगन्धा अपनी माँ से कहती है, “प्लीज मॉ! गाड सेक, मैं अपनी जिंदगी अपने ढंग से जीना चाहती हूं, आपकी तरह नहीं।”9
इस सन्दर्भ में सुगंधा अपने विचार व्यक्त करते हुए कहती है कि “रखैल बना कर औरत को रखा जाए तो कल्चर के विरुद्ध नहीं है और यदि औरत अपने पूरे अधिकार के साथ, स्वेच्छा से किसी पुरुष के साथ रहने लगे तो वह कल्चर के विरुद्ध हो गया, उफ!”10 आज भी हमारे समाज में औरत को दोयम दर्जे का समझा जाता है। स्त्री-पुरुष के बीच प्रथम और दोयम का भेद विद्यमान है। पुरुष चाहे तो कुछ भी करे, उसे कोई रोक–टोक नहीं। इसके विपरीत यदि कोई औरत स्वतंत्र जीवन जीना चाहे तो खुद उसके परिवार वाले और समाज उसके विरुद्ध हो जाता हैं “एक और तो हम राधा–कृष्ण की पूजा करते हैं और उन्हें आराध्य मानते हैं, लेकिन कोई विवाहित स्त्री किसी अन्य पुरुष के साथ घूमे–फिरे तो बदचलन कहने लगते हैं।”11
सुगंधा एक को छोड़ दूसरे के साथ रिलेशन बनाती है और इसी तरह जीवन भर भटकती रहती है। वह स्थाई जीवन व्यतीत नहीं कर पाती। वह तो स्वतंत्र जीवन जीना चाहती थी इसलिए उसने ‘लिव इन रिलेशन’ में जीने का तरीका अपनाया, बिना किसी बंधन, परम्परा के तो उसे इससे अच्छा कोई उपाय नहीं आता। इसमें जीने का तरीका उसे अपने विचारों जैसा लगता था। उसके ऑफिस अकाउंटेंट सिकरवार ने उसे इस बारे में समझाया भी था- “तुम, नीना गुप्ता सुषमिता सेन या करीना कपूर नहीं हो, ये सब पैसे वालों और महानगरों के जीने के तरीके हैं, तुम जैसी लड़कियां दु:ख ही पाती हैं, चैन–सुकून, अधिकार और सम्मान नहीं।”12

सुगंधा के साथ हुआ भी यही, वह अपनी कस्बाई मानसिकता को नहीं त्याग पाती है और न ही महानगर की जीवन-शैली का अनुसरण कर पाती है। एक ओर तो वह मुक्त होकर जीवन व्यतीत करना चाहती है वहीं दूसरी तरफ समाज की भी फिक्र उसे सताती है। वह रितिक (नायक) पर आश्रित नहीं है, पर समाज जब उसे बार-बार जताता है कि वह रितिक की रखैल है, तो वह बहुत दु:खी होती है।
‘लिव इन रिलेशन’ में रहते हुए रितिक इतनी मानसिक यंत्रणा से नहीं गुजरता, जितना सुगंधा उद्देलित रहती है, समाज रितिक को इतनी बुरी नजरों से नहीं देखता, जितना सुगंधा को ताने सुनाता है। वह अपने आस–पड़ोस, घर, परिवार, ऑफिस सभी जगह संघर्ष करती दिखाई देती है। जिस रितिक के लिए उसने समाज के तरह-तरह के ताने सुने  जिसके वही अंत मे उसके विरुद्ध रखैल जैसे अपशब्दों का प्रयोग करने से भी पीछे नहीं हटा हैं। “मेरे सोचने की छोड़ो। अगर तुम सचमुच किसी के साथ चक्कर चला भी लोगी तो मैं तुम्हें रोक तो नहीं सकता।’
‘क्यों नहीं रोक सकते हो?’
रोका बीवी को जा सकता है, रखैल…।’ कहते-कहते वह ठिठक गया था।
तो ये है तुम्हारे मन का सचहै।’ मैं दंग रह गई थीहै।”13
वास्तव में ‘लिव इन रिलेशन’ में जीवन बिताना आधुनिक युग में फैशन बन गया है, लेकिन छोटे शहरों या कस्बों में इस तरह जीवन व्यतीत करना असंभव है। क्योंकि बड़े शहरों में तो पड़ोसी, पड़ोसी तक को नहीं जानते उसे कोई फर्क ही नहीं पड़ता की उसके पड़ोस में कौन रह रहा हैं, उसके घर किन-किन लोगों का आना जाना हैं।लेकिन कस्बों में तो लोग अपने घर से ज्यादा पड़ोसियों की खबर रखते हैं।सुगंधा के घर बार-बार रितिक के आने पर उसके पड़ोसी उससे कई तरह के सवाल करते है,क्या वह आपका प्रेमी हैं? आप दोनों कब शादी कर रहे हैं? आपको जल्द शादी कर लेनी चाहिए इस तरह बिना रिश्ते के उसका आपके घर रूकना उचित नहीं हैं? सुगंधा अपने आप से सोचती ,” मेरे घर कौन आता है और कितनी देर ठहरता है इससे किसी अन्य को कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए …..मैं एक स्वतंत्रत नागरिक हूँ और हमारे देश का संविधान यह नहीं कहता है किआप किसी गैर -आपराधिक व्यक्ति को अपने घर में नहीं रख सकते हैं। सारी आपत्ति तो समाज को रहती है जो पड़ोसियों से बना होता है।”14 सोचने वाली बात यह है कि कोई भी रितिक को यह नहीं कहता कि आपका रोज-रोज यहाँ आना सही नहीं हैं, क्योंकि वह पुरुष है वह कहीं भी कभी भी जा सकता हैं। दुनिया के सारे नियम तो केवल स्त्रियों के लिए बनाये गए और उन्हें उसका पालन किसी भी हाल में करना ही होगा।
उपन्यास के सन्दर्भ में कलावंती कहती हैं कि– “आखिर में यह उपन्यास हमें यह सोचने को बाध्य कर देता है कि विवाह का विकल्प सहजीवन है क्या?”15 इस तरह कलावंती द्वारा इस उपन्यास और हमारे समाज के प्रति उठा यह सवाल हमारी सामाजिक व्यवस्था पर गहरा प्रहार करता है जिसमें न केवल स्त्री को दोयम दर्जे का माना जाता है बल्कि उसे अपने अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाता है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि आज की नारी स्वतंत्रता की माँग करती है वह किसी प्रकार का बंधन नहीं चाहती, वह अपने लिए भी पुरुष के समान अधिकार चाहती है। जब तक समाज में स्त्री और पुरुष को अलग-अलग समझा जाता रहेगा तब तक उसकी स्वतंत्रता को समान नहीं माना जा सकता। इसके लिए समाज को अपनी पुरुषवादी सोच से ऊपर उठना होगा, तभी जाकर स्त्री को अपने अधिकार पूर्णतः मिल सकेंगे और स्त्री भी स्वतंत्र जीवन जी पाने में सक्षम होगी। नारी को इनके लिए स्वयं आगे आना होगा और उन समस्याओं का मुकाबला करना होगा  जो उसे कमज़ोर समझने की कोशिश करते है, उसे  सिद्ध करना होगा कि आज की नारी किसी भी रूप में पुरुषों से कम हैं उसके बिना पुरुषों का कोई अस्तित्व ही नहीं हैं। इसलिए आज जरूरत है तो दोनों को कंधे से कंधा मिलाकर चलने की हैं। उसे भी स्वतंत्रता की उतनी ही जरूत है जितना पुरुष को है।

संदर्भ ग्रंथ सूची:
1. अस्थाना, सर्वेश(सम्पादक), शाण्डिल्य, सुन्दरम का लेख, युवा साहित्यकार  
(शरद सिंह के साथ साक्षात्कार), संस्कार पत्रिका, 25 अगस्त 2014, पृष्ठ संख्या- 61
2. सिंह, शरद, कस्बाई सिमोन, नई दिल्ली, सामयिक प्रकाशन, 2014, पृष्ठ संख्या– 31
3. वही,पृष्ठसंख्या- 33
4. वही, पृष्ठ संख्या- 109
5. वही, पृष्ठ संख्या- 13
6. वही, पृष्ठ संख्या- 31
7. वही, पृष्ठ संख्या- 65
8. वही, पृष्ठ संख्या- 107
9. वही, पृष्ठ संख्या- 205
10. वही, पृष्ठ संख्या- 110
11. वही, पृष्ठ संख्या- 205
12. वही, पृष्ठ संख्या- 98
13. वही, पृष्ठ संख्या- 150
14. वही, पृष्ठ संख्या- 77
15. कलावंती, एक स्त्री के नजरिये से ‘लिव इन रिलेशनशिप, प्रभात खबर, 05-06-2016, पृष्ठ संख्या- 7

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6 thoughts on “शोध लेख : शरद शिंह के उपन्यास ‘कस्बाई सिमोन’ में चित्रित नारी-विमर्श के विविध आयाम”

  1. अति उत्कृष्ट शोध लेख। बहुत बहुत बधाई।

  2. यहाँ एक संदर्भ के माध्यम से एक सवाल किया है क्या जीवन विवाह के पश्चात सहजीवन है? जैसा कि जैनेन्द्र कहते हैं कि प्यार विवाह से पूर्व रहता है । अर्थात विवाह से पश्चात या कम होता है या अधिक होता है कम होता है तो सहजीवन नहीं रह पाता और अधिक हो तो जीवन सहजीवन और आनंदमय हो जाता है। बहरहाल आपने बहुत अच्छा लेख लिखा है सपना बहुत ही सार्थक।

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