gurunanak dev ji

मेहनत वह अनमोल कुंजी है, जो भाग्य के बंद कपाट खोल देती है। यह राजा को रंक और दुर्बल मनुष्य को सबल बना देती है। यदि यह कहा जाए कि श्रम ही जीवन है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। गीता में श्री कृष्ण ने भी कर्म करने पर बल दिया है:-
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सगोंऽऽस्त्वकर्मणि।”1
अर्थात् मनुष्य को निरन्तर कर्मरत रहना चाहिए। उसे फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए। कर्म का फल मनुष्य को स्वत: मिल जाता है।‘श्रम’का शाब्दिक अर्थ होता है, तन-मन से किसी कार्य को पूरा करने के लिए प्रयत्नशील होना। समर्थ व्यक्ति भी ज़रा सा आलस्य से जीवन की तेज़ दौड़ में पीछे रह जाते हैं और श्रम करने पर दुर्बल व्यक्ति भी दौड़ में आगे निकल जाते हैं। श्रम करने वाला व्यक्ति मार्ग में आने वाली सभी बाधाओं को पार करते हुए अपनी सफलता के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहा है। कहा भी गया है-‘उद्योगिन पुरुष सिंहमुपैति लक्ष्मी: दैवेन देयमिति का पुरुषा: वदन्ति।’ अर्थात्, परिश्रमी व्यक्ति ही लक्ष्मी को प्राप्त करता है। सब कुछ भाग्य से मिलता है, ऐसा कायर लोग कहते हैं। वृन्द कवि के कहे इस कथन में भी श्रम को सत्य कर दिखाया गया है:
‘करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात तें सिल पर परत निसान।।’
पंजाब में भी प्रचलित लोकोक्ति है: ‘दब्ब के वाह ते रज्ज के खा’ अर्थात्, ख़ूब मेहनत करके खेती कर और फिर ख़ूब खा-पी; क्योंकि मेहनत से काम करोगे तो अच्छी फ़सलें आएँगी और ख़ूब कमायी होगी। अच्छी कमायी होगी तो ख़ूब खा पी सकोगे। सुख के संपूर्ण पदार्थ संसार में हैं, फिर भी परिश्रमहीन व्यक्ति उन्हें प्राप्त नहीं कर सकता है। गोस्वामी तुलसीदास ने ठीक ही कहा है: ‘सकल पदारथ यहि जग माहीं। करमहीन नर पावत नाहीं।।’ परिश्रम करने से मुश्किल से मुश्किल काम भी आसन लगने लगता है। श्रम में ऐसी शक्ति छुपी रहती है; जो डरपोक मनुष्य को सिंह की भाँति बलवान बनाकर मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने योग्य बना देती है।
गुरु नानक देव भी जीवन में श्रम को महत्त्व देते हैं। उनका प्रसिद्ध कथन है: “उदमु करेदिया जीउ तूं कमावदया सुख भुँचु।।”2 अर्थात् तुम उद्यम करते हुए जीयो और कमायी करके सुख पाओ। ऊपर प्रस्तुत गीता श्लोक की तरह गुरु नानक देव जी ने भी निष्काम कर्म करने की प्रेरणा दी और कहा-“करणी कागदु मनु मसवाणी बुरा भला दुइ लेख पए।
जिउ जिउ किरतु चलाए तिउ चलीऐ तउ गुण
नाही अंतु हरे ।।”3
अर्थात् कर्म कागज़ है मन दावत है। इनके संयोग से बुरी और भली दो प्रकार की लिखावटें लिखी गई है। अपने-अपने पूर्व जन्मों के किए हुये कर्मों से निर्मित स्वभाव (बुरे अथवा भले कर्म) द्वारा जीवन चलता है। श्रम न करने से जीवन नर्क बन जाता है और कर्म करने से स्वर्ग।
गुरु नानक देव जी का जन्म ऐसे युग में हुआ था, जब सम्पूर्ण भारतवर्ष में असंतोष, उदासीनता और भाग्यवादिता का बोलबाला था। चारों ओर अफरा-तफरी मची हुई थी, शासक रक्षकके स्थान पर भक्षक बन बैठे थे।कोई भी शक्तिशाली शासक कमज़ोर सत्ताधारी को मार कर स्वयं अधिकार जमा लेता था और नया शासक जनता पर और अधिक अत्याचार करता उन्हें दुःख देता था। गुरु जी संत, कवि और समाज सुधारक के अलावा श्रमशक्ति के पुजारी भी थे। एक संत और सन्यासी होने के बावजूद भी नानक देव जी ने संसार से नाता नहीं तोड़ा था, न ही उन्होंने मध्यकालीन संतों की भाँति वनों में एकांतवास किया।वेपूर्ण पारिवारिक, सामाजिक जीवन बिताते हुए हीजीवनमुक्त थे। वह न केवल एक गृहस्थ थे, बल्कि गृहस्थ-धर्म के पक्षधर भी थे। ‘बिरती के स्थान पर वे किरति के उन्नायक थे।’ उस समय के आम आदमी की प्रवृत्ति और मानसिकता से वह अच्छी तरह से परिचित थे। उन्होंने पाखंडियों, चोरों, बदमाशों और ठगों को श्रम का महत्त्व समझाकर उन्हें सही मार्ग दिखाया। उनके द्वारा दी गयी तीन बड़ी सीखें- ‘नाम जप्प किरत कर और वंड छक’ खुशहाली से जीवन जीने का मंत्र देती हैं। ध्यान देने की बात है कि आध्यात्मिक पुरुष होते हुए भी, गुरु जी केवल प्रभु नाम जपने की बात नहीं कर रहे हैं, श्रम करने को भी कह रहे हैं। श्रम को भी केवल स्वार्थी नज़रिए से ही नहीं लोक कल्याण के लिए भी करने की शिक्षा दे रहे हैं। यह सीख मूल रूप से कर्म से जुड़ी हुई है, अर्थात् मन को मजबूत, कर्म को ईमानदार और कर्मफल के सही इस्तेमाल की शिक्षा देती है।यह किरत बाह्य या भीतरी अर्थात् जागतिक और आध्यात्मिक दोनों हो सकती है। इसी प्रकार गुरु जी की निम्न पंक्तियाँ भी कुछ इसी प्रकार का संदेश देती हैं :
“घाली खाइ किछु हथहु देइ।
नानक राहु पछाणहि सेइ।।”4
अर्थात् मेहनत से कमाओ-खाओ पर साथ ही उसे बाँटो भी। यही उचित मार्ग है, जीवन-यात्रा का । ऐसा वे ज्ञानहीन, निक्कमे और भिक्षा माँगने वाले साधुओं के लिए कह रहे थे। इस तरह आचार-विचार की श्रेष्ठता पर बल देने वाले गुरु नानक के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का आकलन करते आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है-“मध्यकालीन सन्तों की ज्योतिष्क-मण्डली में गुरु नानकदेव ऐसे सन्त हैं जो शरत् काल के पूर्णचन्द्र की तरह स्निग्ध, उसी प्रकार शान्त-निर्मल रश्मि के भाण्डार थे। कई सन्तों ने कस-कसके चोटें मारीं, व्यंग्य-बाण छोड़े, तर्क की छुरी चलायी, पर महान् गुरु नानक देव ने सुधालेप का काम किया। यह आश्चर्य की बात है कि विचार और आचार की दुनिया में इतनी बड़ी क्रान्ति ले आनेवाला, किसी का दिल दुखाये बिना, किसी पर आघात किये बिना, कुसंस्कारों को छिन्न करने की शक्ति रखने वाला, नयी संजीवनी धारा से प्राणिमात्र को उल्लसित करने वाला यह सन्त मध्यकाल की ज्योतिष्क-मण्डली में अपनी निराली शोभा से शरत् पूर्णिमा के पूर्णचन्द्र की तरह ही ज्योतिष्मान है।”5
नानक देव का कर्म-सिद्धांत मात्र दुनियावी नहीं है। वह उनकी आध्यात्मिक चेतना से गहरे रूप से जुड़ा है। बचपन से ही गुरु नानक देव का रुझान अन्य बच्चों की तरह खेलने में न होकर अध्यात्म की ओर अधिक था।इसके बावजूद नानक जी को आजीविका कमाने हेतु दूसरों के यहाँ काम भी करना पड़ा। बहनोई जयराम की मदद से उन्हें सुल्तानपुर के नवाब के मोदीखाने में भण्डारपाल का कार्य सौंपा गया। कहा जाता है कि ग्राहक को अनाज देते वक्त उन्होंने जाना अपना कुछ भी नहीं, ईश्वर का ही सबकुछ है। इस सम्बन्ध में उनका एक प्रसंग प्रचलित है। “आटा तौलते समय वे एक, दो, तीन गिनते-गिनते जब तेरह पर आये तो तेरह शब्द के पंजाबी उच्चारण ‘तेरा’ पर उनका ध्यान दूसरी ओर चला गया। ‘मैं तेरा हूँ, इस भावना ने उन्हें तन्मय कर दिया। हाथ तौलते रहे, मुँह ‘तेरा’ ‘तेरा’ की रट में लग गया। सारा भाण्डार तौल दिया गया, ‘तेरा’ ‘तेरा’ ‘तेरा’।”6 नवाब के यहाँ नौकरी के समय उन्होंने ईमानदारी से जीविका कमाई। वे अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा साधु-संतों, फकीरों और जरूरमतों में बाँट देते थे। कई बार दीन-दुखियों को देकर वे नवाब के भण्डार से अनाज देना भी गलत नहीं समझते थे। नवाब को जब यह बात पता चली कि भण्डारपाल भण्डार में से अनाज गरीबों को बांट रहा है, तब उसके द्वारा जाँच का आदेश दिया गया। जब जाँच-पड़ताल की गई तब यह पाया गया कि गुरु नानक के हिसाब में कोई गड़बड़ नहीं है और न ही भण्डार के अनाज में किसी प्रकार की कोई कमी आई है। इस प्रकार उनका यह कथा-प्रसंग जनमानस को ईमानदारी से जीविका अर्जित करने, अपने काम को उच्चतर ईश्वरीय अनुभव से जोड़ने और ‘बाँट कर खाओ’ का संदेश देता है।
एक उदाहरण लाहौर के करोड़पति दुनीचन्द के सम्बन्ध में भी है। वह गुरु जी को अपने साथ अपने घर ले गया। वहाँ घर में कई झंडियों को देखकर गुरु नानक जी को आश्चर्य हुआ। उन्होंने दुनीचन्द से इसे लगाने का कारण पूछा, इस पर दुनीचन्द ने बताया कि एक-एक झंडी एक-एक लाख रुपये का प्रतिनिधित्व करती है और इन झंडियों को देखकर उसके पारिवारिक धन का आकलन किया जा सकता है। गुरु नानक ने दुनीचन्द को एक सुई दी और उसे तब तक सम्भाल कर रखने के लिए कहा जब तक वह परलोक में काम न आए। दुनीचन्द ने जब इस बारे में अपनी पत्नी को बताया, तब उसका प्रश्न था कि यह सुई परलोक कैसे जाएगी? जब बहुत सोच-विचार के बाद भी उसे इस सम्बन्ध में कुछ नहीं सूझा तब उसने यही प्रश्न गुरु नानक जी से पूछा। नानक जी ने कहा-“जब एक सुई तुम्हारे साथ परलोक नहीं जा सकती तो तुम समझ सकते हो कि इतनी विशाल सम्पत्ति भला कैसे परलोक जाएगी।”7 इन वाक्यों के द्वारा नानक जी दुनीचन्द को खुद अपने श्रम की कमायी करने की सीख दे रहे थे और साथ ही इस अपार सम्पत्ति को गरीबों तथा अपाहिजों को बाँटने का ज्ञान भी, क्योंकि इसका संग्रह व्यर्थ था। यह उसके साथ परलोक नहीं जाएगा। नानक देव जी कहा करते थे कि मेहनत-मजदूरी कर प्राप्त सूखी रोटी शहद के समान मीठी लगती है। जिसने बिना परिश्रम के इसे प्राप्त किया है, वह इसके खाने से जो आनंद मिलता है, उससे सदा वंचित रह जाता है। दुनीचन्द को अपनी जिस सम्पत्ति पर घमंड था, वो उसके पूर्वजों द्वारा कमायी गयी थी। इसे कमाने में दुनीचन्द ने कोई श्रम नहीं किया था। गुरु जी की बातें सुनने के बाद उसे श्रमशक्ति का ज्ञान हुआ, उसने अपनी सम्पत्ति जरूरतमत लोगों में बाँट दी और स्वयं मेहनत कर जीवन बिताने लगा।
तत्कालीन समाज में धर्म का अर्थ पाखंड और बाहरी आडम्बरों से माना जाता था। भाग्यवाद के चलते साधारण जनता अपना कर्म करने का आदर्श भूलने लगी थी। लोग श्रम करने की बजाए हाथ-पर-हाथ रखकर भाग्यवादी बन बैठ गए थे और अच्छा फल न मिलने पर कर्म और भाग्य पर मिथ्या दोष आरोपित करने से भी पीछे नहीं हट रहे थे। वह इस सत्य को भूल गए थे कि चींटियाँ तक जीवन-निर्वाह के लिए कठोर श्रम करती हैं और दूसरों को भी श्रम के महत्त्व का पाठ पढ़ाती हैं। एक वे हैं, जो मनुष्य होकर भी बिना श्रम किए भाग्य के भरोसे जीवन बिताना चाह रहे हैं। इस प्रकार कीपरिस्थितियों के कारण समाज कर्म-पंगु हो गया था। उन्होंने उस समय की मान्यताओं को समझा, परिस्थितियों का गहन अध्ययन किया और जनता को श्रमशक्ति के मार्ग पर ले जाने का बीड़ा उठाया। गुरु नानक मानते थे कि मनुष्य को भाग्य के सहारे न बैठकर परिश्रम करना चाहिए। श्रम और सत्य की कमाई को वे ग्राह्य मानते थे। जो कमाई समाज के एक अंग का हक़ मारकर कमायी गयी हो, उनकी दृष्टि में उस कमाई का सच्ची कमायीसे न कोई सरोकार था और न ही कभी हो सकता है। वे जमीदारों द्वारा गरीबों का खून चूस-चूस कर अर्थात् निर्धनों पर जुल्म द्वारा प्राप्त कीगयी रोटी की तुलना में गरीब की परिश्रम से कमाई रोटी को अधिक श्रेष्ठ मानते हैं। गुरु नानक ने जमींदार भागो के भोजन-निमंत्रण को अस्वीकार कर, श्रम से अर्जित करने वाले भाई लालो के सादे भोजन को अपनाकर साधारण-जनता तक श्रमशक्ति का संदेश दिया। भागो मलिक इसे अपना अपमान समझ बैठा और नानक देव के पास आकर गुस्से में बोला-“नानकजी! तुमने हमारा निमंत्रण अस्वीकार क्यों किया? इस पर नानक जी ने मुस्कराते हुए कहा-सुनो भागो मलिक, हम साधु हैं और ईश्वर के भक्त हैं। हम जानते हैं तुम्हारी कमाई गरीबों का खून चूस-चूस कर इक्कठी की गई है, हम ईश्वर के भक्त केवल नेक कमाई से ही रोटी खाते हैं। ‘क्या आप समझते हैं मेरी कमाई नेक नहीं ?’ भागो एक बार फिर तड़प कर बोला।”8
इस पर गुरु नानक भागो को समझाते हुए कहते हैं कि लालो की सुखी रोटी में शहद और दूध भरा हुआ है, क्योंकि यह लालो की मेहनत की कमाई है। इसके विपरीत भागो ने अन्याय और ग़लत तरीके से धन कमाया है। इस तरह के धन का भोजन करने पर बुद्धि भ्रष्ट होती है और शरीर में कई तरह के रोग उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिए उन्होंने इन सब से बचने के लिए उसके भोजन पर बुलावे को इन्कार कर दिया। गुरु जी की बातें सुनने के बाद भागो को अपनी ग़लती का अहसास हुआ और उसने श्रम के महत्त्व को पहचान कर जीवन भर इस मार्ग पर चलने का फैसला लिया। इस प्रसंग के माध्यम से गुरु जी ने समृद्ध और शक्तिशाली मनुष्य की अपेक्षा आर्थिक विषमता से जूझते निर्धन को अपनाने का प्रयत्न किया और समाज को उन्होंने सच्चाई और ईमानदारी से आजीविका अर्जित करने के लिए प्रेरित किया। निम्न पंक्तियाँ भी कुछ इसी प्रकार का संदेश देती हैं:
“धरमु भूमि सतु बीजु करि ऐसी किरस कमावहु।।
ता वापारी जानहु लाहा लै जावहु ।।”9
अर्थात् धर्म की भूमि पर सच्चाई का बीज डाल कर मेहनत करो। तभी सच्चे व्यापारी बनोगे और लाभ कमाओगे।
मेहनत हमारे अपने हाथ में होती है। मनुष्य परिश्रम कर अपने जीवन को संवार भी सकता है और न करके इसे बर्बाद भी कर सकता है। गुरु नानक देव कहते हैं, हमें परिश्रम से कभी पीछे नहीं हटना चाहिए क्योंकि किए हुए का फल अवश्य मिलता है। वे स्वयं श्रमशक्ति के पुजारी थे। वे दूसरों के कमाए हुए धन से आनंदमय होकर जीवन बिताने को बुरा मानते थे। उनका कहना था कि यदि दूसरों के पास अधिक धन है और उन्होनें इसे मेहनत करके कमाया है तोहमें भी मेहनत करके ही अपना जीवन-यापन करना चाहिए; न कि इस फिराक में रहना चाहिए की उन से यह धन किस प्रकार छीन लिया जाए। वे इसके विरुद्ध थे:-
“हक पराया नानका उस सुअर उस गाय।”10
अर्थात् उनकी दृष्टि में परायी वस्तु, दूसरे की मेहनत से कमायी गयी सच्ची कमायी हड़पना, हिंदू के लिए गोमांस और मुसलमान के लिए सुअर के मांस के सद्दश समान रूप से त्याज्य थी। आज के संदर्भ में श्रमिक के शोषण पर यह कितनी तीखी टिप्पणी है। सच्चीश्रमशक्ति के पक्ष में इससे स्पष्ट उक्ति और क्या होगी?
सज्जन ठग वाली साखी भी लोगों कोमेहनत से कमाने की प्रेरणा देती है।सज्जन ठग अपने साथियों के साथ मिलकर मुसाफिरों को रात में ठहरने के लिए स्थान देता था और आधी रात के समय उन्हें लूट कर जान से मार देते था। यात्रा के दौरान जब गुरु नानक जी और मरदाना उसकेयहाँ पहुँचे तो उनको लगा कि ये भीव्यापारी होंगे, इनके पास बहुत-सारा धन होगा। वे सब उनकी सेवा में लग गए ताकि आधी-रात के समय उन्हें धोखे से लूटा जाए। रात होने परजब वे गुरु जी को लूटने और मारने के लिए उनके कमरे की तरह बढ़े तो अन्दर से कीर्तन की ऐसी मधुर आवाज सुनाई दी कि उनके कदम अपने आप रुक गए। गुरुजी की वाणी में-
“कोठे मंडिप माडिआ पासहु चितवी आहा।
ठीआं कमिन आवनी विच्च हुस खणी आहा।।
बगा बने कपडे तीरथ मंझी वसन्नि
घुटि घुटि जीआ खावाणे बगे ना कही अन्नि।।
सिंमल रुख सरीरू मै भैजन देखि भूलन्नि।
सेफल कभ्भ न आवनी ते गुण मै तनि हन्नि ।।”11
अर्थात्, बाहर से हवेली की कितनी भी मीनाकारी की जाये, परन्तु भीतर से यदि वह खोखली हो तो वह किस काम आएगी। बगुला नदी किनारे आंखें मूंदकर खड़ा हो गया, परन्तु उसका काम तो कीड़ों-मकोड़ों को खाना ही है। सेमल का वृक्ष कितना ऊंचा होता है, परन्तु उसका फल फीका और पत्ते निरर्थक होते हैं; उस वृक्ष की ऊंचाई से किसी को क्या लाभ हो सकता है।
गुरु नानक जी के मुख से इन विचारों को सुनकर सज्जन ठग की अन्तर आत्मा जागृत हो उठी। उसे समझा आ गया कि उसने आज तक जो भी किया था, वह कितना ग़लत था। वह नानक देव जी के चरणों में गिर पड़ा और रोकर कहने लगा-“मैं जन्म-जन्म का अपराधी हूं। मैंने आज तक बहुत से बेगुनाह लोगों को लूटा है। मैं पापी हूं गुरु जी, पापी……मुझे क्षमा कीजिये, मुझे उपाय बताइये, जिससे मैं अपने गुनाहों की क्षमा पा सकूं। मेरे ह्रदय में आग जल रही है। यह आग कैसे शांत होगी –आप ही बताइये।”12 तब गुरु नानक जी ने उसे मेहनत से कमाई करने की सीख दी जिसके बाद कठोर एवं निर्दयी सज्जन ठग का ह्रदय परिवर्तन हो गया और उसने संकल्प लिया की अब इन बुरे कामों को छोड़ वह मेहनत से अपना जीवन निर्वाह करेगा।
अपने जीवन के अंतिम समय में नानक देव जी न तीर्थयात्रा के दौरान डाले गए वस्त्रों का त्याग कर, उसके स्थान पर ऐसे साधारण वस्त्र धारण कर लिए जो आमतौर पर पंजाब के किसान पहनते थे। वे अपने स्थायी निवास कर्तारपुर में एक किसान की भाँति खेत में काम करते थे और वहाँ उत्पन्न हुए अनाज का लंगर में उपयोग किया जाता था। साथ ही गरीबों, जरूरतमदों की आवश्यकताओं को भीपूरा किया जाता था। श्रम की कमायी को बाँट कर खाने को लेकर एक और किस्साभी है। एक बार जब गुरु नानक जी अपने दोनों बेटों और भाई लैहणा(गुरु अंगददेव) के साथ थे, उन्हें सामने एक शव ढका दिखा। नानक जी ने पूछा इसे कौन खायेगा? इस पर उनके बेटे मौन रहे, पर भाई लैहणा ने जवाब दिया-मैं खाऊँगा क्योंकि उन्हें गुरु पर विश्वास था। कपड़ा हटाने पर पवित्र भोजन मिला।भाई लैहणा ने इसे गुरु को समर्पित कर ग्रहण किया। नानक देव जी ने इस पर बेटों से कहा भाई लैहणा को पवित्र भोजन इसलिए मिला, क्योंकि उनमें साझा करने का भाव और विश्वास की ताकत है। सिख इसी आधार पर आज भी अपनी आय का दसवां भाग साझा करते हैं, जिसे दसवंद कहते हैं और इसी से लंगर भी चलता है। इसके अलावा उन दिनों यह कहावत काफी प्रचलित थी-“दाना पानी गुरु दा, टहल भावना सिखां दी।”13 अर्थात् रोटी पानी भगवान का है और सेवा सिखों द्वारा की जा रही है।
इसी कारण सिख संगत में सेवा की भावना बहुत प्रबल है। इसे कार-सेवा या कार्य सेवा भी कहा जाता है। अपने गुरुद्वारों और लंगर आदि की सेवा सिख ख़ुद करते हैं। प्रसिद्ध संत श्री बलबीर सिंह सीचेवाल द्वारा अपने अनुयायियों को साथ लेकर गुरु नानक से जुड़ी 110 किलोमीटर लम्बी नदी काली बेन की सफ़ायी इसका आदर्श उदाहरण है। सम्भवत:गुरु नानक देव द्वारा श्रमशक्ति के इसी गुणगान के कारण ही श्रम, किसानी और कारीगरी; कुल मिलाकर, किरती वर्ग या श्रमिक वर्गों से बड़ी संख्या में लोग सिख धर्म में दीक्षित हुए।
समग्र दृष्टि से देखे तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि श्री गुरुनानक देव जी द्वारा जनमानस को नेकश्रमशक्ति के महत्त्व से अवगत कराने का उद्देश्य गृहस्थजीवन को अच्छे से चलाने के अलावा मानव कल्याण भी रहा है। उनके अनुसार मनुष्य को परिश्रम से कभी भी मुँह नहीं मोड़ना चाहिए, क्योंकि किए गए परिश्रम का फल निश्चित समय आने पर मनुष्य को जरूर मिलता है। सृष्टि का सम्पूर्ण लेखा-जोखा प्राणियों द्वारा किये गए कर्मों का ही फल होता है। श्रम से किया गया धन-उपार्जन धर्म-विरुद्ध नहीं होना चाहिए। गुरु नानक जी ने साधारण जन को किरत की ईमानदारी, सच्ची मेहनत, सेवा-भाव करने जो सीख दी, वह आज भी हमारे समाज, देश और विदेश के लोगों पर अपनी छाप छोड़े हुए है। दूसरों का हक़ दबाना योग्य किरत का हिस्सा नहीं है। अकर्मण्यता और माँग कर खाने को भी उन्होंने भरपूर निंदा की। इसीलिए सिख संगत आत्मसम्मान और मेहनत की कमायी खाने के लिए प्रसिद्ध है। दूसरों के श्रम लूटने के विपरीत उन्होंने तो अपने श्रम के फल को भी साँझा करने की बात बार-बार की है। साथ ही, नाम जप्प के उपदेश के द्वारा, किरत को आध्यात्मिक चेतना से जोड़ कर,श्रीगुरु नानक देव जी ने मानवता के लिए एक सम्पूर्ण जीवन-दर्शन का निर्माण कर दिया है।

संदर्भ सूची :

1. कृष्णकृपामूर्ति, श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप, मुंबई, भक्तिवेदान्त बुक ट्रस्ट, 2011, पृष्ठ संख्या-92
2. मंड, गुरप्रीत सिंह, गुरु नानक चिंतनधारा विच किरत दा संकल्प, लेख, पंजाबी ट्रिब्यून (आन लाइन), नवम्बर 12 , 2019, देखा, फ़रवरी 8, 2020
3. जग्गी, डॉ० रत्न सिंह, गुरु नानक रचनावली, पटियाला, भाषा विभाग पंजाब, प्रथम संस्करण, 1970, पृष्ठ संख्या-542
4. मंड, गुरप्रीत सिंह, वही
5. द्विवेदी, हजारी प्रसाद, सिक्ख गुरुओं का पुण्य स्मरण, नई दिल्ली, राजकमल प्रकाशन, पहला संस्करण, 1981, पृष्ठ संख्या-228
6. यथावत्, पृष्ठ संख्या-225
7. मजीठिया, डॉ० सुदर्शनसिंह, संत साहित्य, दिल्ली, रूप प्रकाशन, 1662, पृष्ठ संख्या-117
8. पाठक, नरेन्द्र, गुरु नानक देव [किशोरों के लिये], दिल्ली, सन्मार्ग प्रकाशन, संस्करण 1670, पृष्ठ संख्या-56
9. मंड, गुरप्रीत सिंह, वही
10. हाँडा, डॉ० सीता, गुरु नानक व्यक्तित्व और विचार, जयपुर, चिन्मय प्रकाशन, 1971, पृष्ठ संख्या-25
11. पाठक, नरेन्द्र, गुरु नानक देव [किशोरों के लिये], दिल्ली, सन्मार्ग प्रकाशन, संस्करण 1670, पृष्ठ संख्या-65
12.यथावत्, पृष्ठ संख्या-66
13.जौहर, सुरिन्दर सिंह, गुरु नानक एक जीवनी, (अनुवाद-गीता), नई दिल्ली, स्टर्लिंग पब्लिशर्ज प्राइवेट लिमिटेड, 1975, पृष्ठ संख्या-181

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