मेरे गाँव की धरती,
रूठी-एकांत सी  बैठी है।
नित्य होते देख
गाँव से शहर को पलायन,
कुछ ठगी-ठगी,
हैरान-परेशान सी बैठी है।
लहलहाती खेतो में,
निरस-उदास सी बैठी है।
मुस्कुराती खिली कालियो में,
बेबस-मुरझाई सी बैठी है।
कल-कल नदी की ध्वनि,
पक्षियों की चहकने की आवाज,
अपने गाँव की धरती में,
लौट आने की आस लिए सी बैठी है।

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