अमन औ इकराम,
एहतराम तेरे खूँ में है|
जो नहीं है,
वो सबब बाक़ी तेरे सुकूं में है|

यूँ तो स्याह हर चेहरा है,
पर, ख्याल है कि!
तू अब,
बहार- ए- शहरा है|
न तेरी ख्वाईशों की,
उड़ान कम थी|
न उम्मीदों के चिराग़ में,
लौ कम थी|
पर कुछ तेरे,
मालिक को मंजूर न था|
न कुछ तुझे,
उसके फ़ैसले की ख़बर थी|

 

बस यहीं,
पेंच उलझ सी गयी थी|
औ बुझते – बुझते भी,
ज़िंदगी की सिलन,
उधडती सी चली गयी|

 

तू गुम है,
आज कहीं और ही जहां में|
तू ख़ामोश तो है पर,
ख़ामोश सन्नाटे में भी,
तेरी सरगोशियां मौज़ूद हैं|

तू है,
किन्हीं उठते गिरते पलकों पर सजे|
चमकती अधूरे ख़्वाबों में
ज़िंदगी के मुकम्मल होने में
तेरा सफ़र,

इस जहाँ से उस जहाँ तक का था|

अलविदा न कहते बनेगा,
ऐ, मुकम्मल इंसा
तू फिर फिर इतिहास दोहराए|
इस धरती पर,
खुदा की खुदाई का नूर बनकर|

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