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नारी-सशक्तीकरण समय की आवाज़ भी है और माँग भी। इसे नारी-विमर्श का क्रियात्मक रूप कह सकते हैं। यह एक सामाजिक उपक्रम ही कहा जाएगा। कहीं-कहीं इसके लिए नारी सबलीकरण पद का भी प्रयोग होता है। इसका विशेष प्रयोग प्रशासनिक और राजनीतिक क्षेत्रों में नज़र आता है। हर साल विभिन्न सम्मेलनों, गोष्ठियों में ‘नारी-सशक्तीकरण’ का विषय विशेष मुद्दा बना रहता है। देश के अनेक सरकारी एवं ग़ैर-सरकारी; दोनों ही स्तरों पर महिलाओं को सशक्त बनाने की दिशा में अनेक योजनाएँ और नीतियाँ बनीं हैं, परन्तु प्रश्न यह उठता है कि नारी-सशक्तीकरण के अंतर्गत नारी की किन विशिष्टताओं को विकसित किया जाना चाहिए। इसके लिए ‘औरत को आज़ादी बाहर से नहीं, अपने भीतर से खोजनी चाहिए।’ कहा भी गया है कि अंतरंग और बहिरंग में अंतरंग शक्ति अधिक बलवान् है। कुमुद शर्मा ने भी नारी की आंतरिक शक्ति के विकास पर ज़ोर दिया है। उनके अनुसार-“महिला-सशक्तीकरण का अभिप्राय महिलाओं में आंतरिक शक्ति का विकास कर, उनमें आत्मविश्वास जगाना, उनकी क्षमताओं और विलक्षणताओं का प्रकाशन करना तथा उन्हें राष्ट्र के संवर्द्धन से जोड़ना है।”1 स्त्री की व्यक्तिगत दुर्बल स्थिति का कारण परिवेशगत ही है। परम्पराओं, धार्मिक-सांस्कृतिक विश्वासों, क़ानूनी प्रावधानों, पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण, बिगड़ी क़ानून-व्यवस्था आदि के कारण, स्त्री की हैसियत दोयम दर्ज़े की और असहायता से भरी बनती चली गयी है। विभिन्न तरीक़ों से उसे इस हालत से निकाल कर बराबरी की सबलता दिलवाना; विशेषकर सामाजिक मान्यताओं में तब्दीली करते हुए, इसी का नाम नारी-सशक्तीकरण है। कुल मिला कर यह राज्य या केन्द्र सरकार की सामाजिक नीति का मामला है। तथापि, इसमें व्यक्तिगत प्रयासों को भी शामिल किया जा सकता है। कई उदाहरण सामने आते रहते हैं, जहाँ से पता चलता है कि कैसे विपरीत परिस्थितियों के बावजूद, अनेक स्त्रियों ने ख़ुद को सबल किया और जीवन की जंग जीती। नारी-सशक्तीकरण की दिशा में महिला रचनाकारों द्वारा रचित साहित्य ने महत् भूमिका निभाई है। महिला रचनाकारों द्वारा सृजित स्त्री, “पारंपरिक वर्जनाओं, अमानुषिकताओं और विषमताओं को नेस्तानाबूद कर डालने को आमादा और प्रतिबद्ध है। यह स्त्री विचार, कल्पना और संवेदना के स्तर पर कितने ही रेशमी सपनों को बुनकर एक नितांत मानवीय संसार को रचती है, व्यवस्थात्मक अवरोधों के भीतर छिपी विषमताओं को अनावृत्त कर मधुर संबंधों की पुनर्रचना करती है। जहाँ वह मादा नहीं सिर्फ़ एक इंसान है और अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए भीतर की सृष्टि के रहस्यों को चीन्ह्नें में समर्थ है।”2

नारी-सशक्तीकरण का मुख्य अर्थ कई बार आर्थिक सशक्तीकरण से ले लिया जाता है। आर्थिक सशक्तीकरण महत्त्वपूर्ण है, लेकिन वास्तविकता में, नारी सशक्तीकरण का अभिप्राय उसके सम्पूर्ण सशक्तीकरण से है। मृदुला गर्ग नारी-सशक्तीकरण के संबंध में लिखती हैं कि-“सशक्तीकरण का अर्थ है मानस को सशक्त करना, चेतना, प्रज्ञा, अस्मिता को सशक्त करना।”3 अर्थात् यहाँ इस बात का उल्लेख भी आवश्यक है कि नारी-सशक्तीकरण का एक बड़ा पक्ष निर्णय लेने वाले पदों या संस्थाओं में उसका चुनाव और भागीदारी सुनिश्चित करना भी है। इसी कारण हाल के वर्षों में नौकरियों और पंचायत से लेकर संसद तक उसके उचित स्थान के लिए आरक्षण के प्रावधानों पर बात होती रही है। चूँकि घर-गृहस्थी की बड़ी ज़िम्मेदारी अभी भी उस पर है, इसलिए साफ़ पानी, रसोई गैस की उपलब्धता और शौचालय के निर्माण को भी नारी-सशक्तीकरण के उपाय के रूप में देखा जाना चाहिए। नारियों द्वारा संचालित पुलिस थाने, सशक्त बलों में उनकी नियुक्ति, पुरुषों के बराबर मज़दूरी, मातृत्व अवकाश, प्रसूति लाभ, रात की पालियों में काम करने के लिए आवश्यक सुविधाओं का निर्माण अथवा विपदा में पड़ी नारी के लिए हेल्पलाइन आदि की रचना भी नारी-सशक्तीकरण है।

शिक्षा के विभिन्न रूपों में नारी के प्रति पूर्वाग्रहों को नष्ट करने की दिशा में उठाये गयेक़दम भी इसी श्रेणी में आएँगे। “सत्तर और अस्सी की दशक में भारत नारी-सशक्तीकरण की दिशा में चलाये जा रहे प्रयासों की एक बड़ी चिंता यह होती थी कि लड़कियों की शादी जल्दी कर दी जाती है, जिससे उनकी पढ़ाई अधूरी रह जाती है। पर केवल स्कूली पढ़ाई के बूते सामाजिक और आर्थिक प्रगति संभव नहीं थी। इसलिए यह ज़रूरत महसूस की गयी कि उन्हें व्यावसायिक शिक्षा की ओर भी ध्यान देना होगा। नब्बे के अंत तक आते भारत में उच्च शिक्षा में लड़कियों का फीसद बढ़ने लगा। पर अब भी शादी एक सीमा-रेखा थी, जिसके बाद कुछ-न-कुछ तो बदलता ही था। शादी के बाद सिर्फ़ सामान्य मध्य वर्गीय परिवार की लड़कियाँ ही नहीं, बल्कि सिल्वर सक्रीन पर बोल्ड अभिनय करने वाली लड़कियाँ भी करिअर अधूरा छोड़ देती थीं। 2020 तक आते लड़कियाँ अब करिअर से किसी भी तरह का समझौता नहीं करना चाहतीं। वे इसके लिए सात समंदर पार के प्रस्ताव भी स्वीकार रही हैं और ‘परिवार पहले’ के आग्रह को भी छोड़ रही हैं।”4 कुल मिलाकर ऐसे सभी उपाय जिनसे स्त्री की शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक, क़ानूनी, सांस्कृतिक आदि स्थिति मज़बूत होती हो, नारी-सशक्तीकरण है। इसे लेकर अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर न केवल बहुत सोचा विचारा गया है, बल्कि संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से बहुत से निर्णय लिये गये हैं और जिन्हें मानने के लिए राष्ट्र बाध्य हैं। नारी-सशक्तीकरण को लेकर भारत सरकार की अपनी नीतियाँ तो हैं ही, ये सब वैश्विक संधियाँ भी उसके सामने रहती हैं। इस प्रकार, नारी-सशक्तीकरण एक अन्तरराष्ट्रीय प्रयास है, जिसमें हर देश थोड़ा या ज़्यादा भागीदारी बन कर, मानव-इतिहास द्वारा नारी को कमज़ोर रखने के षड्यंत्र के परिणामों की सकारात्मक भरपाई करने की कोशिश कर रहा है। हिंदी लेखक भी इस प्रक्रिया में अपनी भागीदारी निभा रहे हैं। इनमें शरद सिंह एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। इन्होंने अपने साहित्य में जहाँ नारी-संघर्ष को चित्रित किया है, वहीं उनकी लेखनी नारी-सशक्तीकरण के प्रति भी संवेदनशील रही है।
शरद सिंह द्वारा रचित नाटक-संग्रह ‘गदर की चिनगारियाँ’ में 1857 के प्रथम स्वतंत्रता-संग्राम में भाग लेने वाली तेरह वीरांगनाओं के संघर्ष और उनके सशक्त रूप को नाट्य-रूप में प्रस्तुत किया गया है। नाटक में चित्रित वीरांगनाओं के चारित्रिक विकास का प्रमुख आधार लोक-गीतों में चित्रित महिला पात्र हैं, जिनका इतिहास में तो कोई वर्णन नहीं मिलता, परंतु जिनकी उपस्थिति निर्विवादित है। विभिन्न क्षेत्रों के लोक–गीतों से इन पात्रों को एकत्र कर एक मंच पर नाटक के रूप में उपस्थित करना निसंदेह एक शोध-परक कार्य है। उनके नारी-पात्र युद्ध में जाने से भी पीछे नहीं हटते, बल्कि वे पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर चलते हैं; यथा, नाटक ‘गदर की चिनगारियाँ’ में राबिया के साथ उसकी सहेलियाँ जोहरा और नैना भी युद्ध में जाने के लिए तैयार दिखती हैं-

“राबिया : अरे जोहरा, ये जिरहबख्तर, ये ढाल, ये तलवार-तू सिपाही के लिबास में क्या कर रही है?
जोहरा : बेग़म हुजूर! आपने भी तो यही सब पहना हुआ है।
राबिया : हाँ, लेकिन मैं तो जंग के लिए कूच करने वाली हूँ…..मगर तुम…..
जोहरा : मैं भी आपके साथ जाने वाली हूँ।
राबिया : तुम? ये किसने कहा कि तुम मेरे साथ जाने वाली हो
जोहरा : मेरे दिल ने कहा….मैंने आपका साथ आज तक नहीं छोड़ा तो भला अब कैसे छोड़ूँगी? नहीं बेगम हुज़ूर, आप मुझसे यूँ पीछा नहीं छुड़ा सकती हैं, क़सम ख़ुदा की।
नैना : तो मैं कौन-सी पीछा छोड़ने वाली हूँ।”5

इसी प्रकार, ‘गदर की चिनगारियाँ’ नाटक-संग्रह में संकलित नाटक ‘बेगम जीनत महल’ की नायिका बेगम जीनत महल और उनके शौहर बहादुर शाह जफ़र अपने ही महल के गद्दार दरबारी के कारण अंग्रेज़ों द्वारा कैद कर लिये जाते हैं। यहाँ तक कि उनके बेटों के कटे सिर अंग्रेज़ों द्वारा उन्हें तोहफ़े में दिये जाते हैं, ताकि यह सब देखने के बाद वे टूट जाएँ, पर बेगम जीनत महल ऐसे मुश्किल की घड़ी में न केवल ख़ुद को सम्भालती है, बल्कि अपने शौहर की बूढ़ी रगों में क्रांति की चिंगारी जलाती है और उन्हें अंग्रेज़ों से मुक़ाबला करने का साहस उनमें जगाती है-
“रजब अली : अब तोहफा तो तोहफा ही होता है, मालिक! एक बार नज़र तो डालिए!
जीनत महल : ठहरिए बादशाह सलामत! मुझे इन फिरंगियों का रत्ती भर यकीन नहीं है,तोहफे पर से रूमाल मैं हटाऊँगी!….. (सदमे भरी आवाज़ में) या अल्लाह! मेरे खुदा!….इस थाल में तो हमारे दो बेटों के कटे हुए सिर हैं!
बहादुर शाह जफर : क्या हम इसी काबिल थे कि अस्सी बरस की उम्र में अपने बेटों के कटे हुए सिर तोहफे में पाएँ! रहम कर मेरे खुदा! रहम कर!
जीनत महल : बादशाह सलामत, हौसला रखिए! आज दिल्ली की गलियों में जिनका लहू बह रहा है, वे सभी हमारी अपनी औलाद की मानिंद हैं….हमें अगर सोग करना है तो उनका भी करें!…..लेकिन नहीं, सोग कैसा? हमारे बच्चे आज़ादी के लिए कुर्बान हुए हैं….खुदा के वास्ते, रहम का लफ्ज इन फिरंगियों और उनके तलवे चाटनेवालों के सामने न निकालिए!” 6

गदर की चिनगारियाँ’ नाटक-संग्रह में समाहित ‘रानी अवंतीबाई लोधी’नाटक की नायिका रानी अवंतीबाई लोधी ने अपने पति लक्ष्मण सिंह के मृत्यु के बाद न केवल अपने राज्य को सम्भाला, बल्कि अंग्रेज़ों से देश को आज़ाद कराने की लड़ाई में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है-
“अवंतीबाई : (ऊँची आवाज़ में सैनिकों को संबोधित करती हुई) मेरे देशभक्त साथियों आज रामगढ़ को आपकी वीरता की, आपकी तलवार की धार की आवश्यकता है…. आज यह निर्णय करने का समय आ गया है कि हमें अपनी स्वतंत्रता चाहिए या अग्रेंजों की गुलामी चाहिए… ये निर्णय आपका साहस और आपके अस्त्र-शस्त्र करेंगे! क्या आप फिरंगियों के बुरे इरादों को सफल होने देंगे?
सैनिक : (समूहस्वर में) नहीं, कभी नहीं!
अवंतीबाई : (ऊँची आवाज़ में)…..तो आज हम इन फिरंगियों को बता दें कि वे हमें कमज़ोर समझने की भूल न करें।…..याद रखिए कि हमें इन फिरंगियों को सिर्फ़ रामगढ़ से ही नहीं, हिंदुस्तान से भी निकाल फेंकना है….हम आज़ाद हैं और आज़ाद रहेंगे।
सैनिक : (समूहस्वर में) हाँ-हाँ, हम आज़ाद हैं और आज़ाद रहेंगे!” 7

गदर की चिनगारियाँ’ नाटक-संग्रह में संगृहीत नाटक ‘झलकारीबाई’की नायिका झलकारीबाई ने छोटी-सी आयु में निडरता से डाकुओं को भागने पर मज़बूर कर दिया था और आगे चलकर 1857 के प्रथम स्वतंत्रता-संग्राम में अपना महत्त्वपूर्ण बलिदान दिया-
“झलकारी : मुखिया चाचा हमेशा हमारी मदद करते हैं तो हमें भी उनकी मदद करनी चाहिए….माँ मुझे जाने क्यों नहीं देती हैं? किसी की प्राणों की रक्षा करने के लिए माँ की आज्ञा न मानने से कोई बड़ा पाप नहीं लगेगा….हाँ यही ठीक रहेगा!
झलकारी : मुखिया चाचा, मैं आ रही हूँ!
डाकू एक : हाय! ये मुझे लाठी किसने मारी!
डाकू सरदार : कौन है जो मेरे आदमियों को लाठी से मार रह है, किसकी इतनी मजाल! हिम्मत है तो मेरे सामने आ! अँधेरे में छिपकर क्या वार करता है!
झलकारी : मुझमें तो बहुत हिम्मत है…हिम्मत तो अब तेरी देखनी है… ये ले!
डाकू : (आश्चर्य से) हैं? ये तो एक लड़की है!….बाप रे! मर गया! भागो!” 8

गदर की चिनगारियाँ’ नाटक-संग्रह में प्रस्तुत ‘लक्ष्मीबाई’ नाटक की नायिका लक्ष्मीबाई अंग्रेज़ों की कूटनीति से अच्छे से वाकिफ़ थी और वह समझ गयी थी कि उन्हें उनकी ही भाषा में ज़वाब देना होगा। उन्होंने दुर्गावाहिनी नाम से औरतों की एक टोली बनाई, उन्हें अस्त्र-शस्त्र चलाने की कला सिखायी ताकि वक्त आने पर वे अंग्रेज़ों से लोहा लेने में पीछे न हटें। उन्होंने न केवल औरतों को आत्मरक्षा का पाठ पढ़ाया, बल्कि देश को आज़ाद कराने में अपनी अहम भूमिका भी निभायी। आज भी उनकी वीरता और साहस को आदर्श के साथ याद किया जाता है और हमेशा याद किया जाता रहेगा-
“लक्ष्मीबाई : झलकारी, गवर्नर जनरल दामोदर राव को मेरा दत्तक पुत्र मानने को तैयार नहीं हैं और वे चाहते हैं कि मैं झाँसी मेजर एलिस को सौंप दूँ!
झलकारी : ये नहीं हो सकता है, महारानी जू! झाँसी राज्य अंग्रेज़ों का ग़ुलाम कभी नहीं बनेगा!
लक्ष्मीबाई : हाँ, यही संदेश मैंने गवर्नर जनरल के पास भेजा है, किंतु मुझे शंका है कि युद्ध की स्थिति बनकर रहेगी!
झलकारी : तो हम भी उन फिरंगियों को छठी का दूध याद करा देंगे!….दुर्गावाहिनी सेना सदैव सेवा में हाज़िर है, महारानी जू! अब तक उसमें सैकड़ों बहनें उसमें भर्ती हो चुकी हैं। सभी अस्त्र-शस्त्र चलाने में पारंगत हो चुकी हैं।
लक्ष्मीबाई : बहुत बढ़िया! स्त्रियों को शस्त्र चलाने का ज्ञान होना ही चाहिए,ताकि आवश्यकता पड़ने पर वे न केवल आत्मरक्षा कर सकें बल्कि शत्रुओं के दाँत खट्टे कर सकें।”9
‘गदर की चिनगारियाँ’ नाटक-संग्रह में संकलित ‘ऊदा देवी पासी’ नाटक की नायिका ऊदा देवी पासी का भले ही सामान्य परिवार में जन्म हुआ हो, परन्तु उनके हृदय में भी आज़ादी की वही चिनगारी थी, जो 1857 की क्रांति में महलों की रानियों के ह्रदय में जल रही थी। ऊदा देवी पासी ने अपनी टोली के साथ मिलकर अंग्रेज़ों के विरुद्ध लड़ाई लड़ी और अपनी टोली की सभी साथियों का दुश्मनों के हाथों एक-एक कर सबको मार दिए जाने पर भी ख़ुद पीछे नहीं हटी और अपने जीवन के अंतिम साँस तक अंग्रेज़ों से लड़ती रही। उनकी यही वीरता और साहस नारी-सशक्तिकरण के रूप को सबके सामने चित्रित करता है-
“ऊदा देवी : (ऊँची आवाज़ में आह्वान करती हुई) बहनों!…..फिरंगियों को भी पता चल जाए कि हिंदुस्तानी औरतों के जिन हाथों में मेंहदी सजती है और चूड़ियाँ खनकती हैं, वे हाथ बंदूक थामकर गोलियों की बरसात भी कर सकते हैं….तो बहनों तैयार रहो!….दुश्मन सिकंदर बाग की ओर बढ़ रहे हैं…उन्हें सबक सिखाना ही होगा!
औरतों का सामूहिक स्वर : हाँ-हाँ सबक सिखाना होगा!
नैना : तुम ही हम औरतों की प्रेरणा हो…तुम्हें कुछ नहीं होना चाहिए….जो कहीं तुम्हें कुछ हो गया तो हम सबकी हिम्मत टूट जाएगी…
ऊदा देवी : अच्छा, अच्छा, ये रोने-धोने का समय नहीं है…चलो जाओ अपना-अपना मोर्चा सम्हालो!…..ग़ुलामी की जिंदगी से आज़ादी के नाम पर मरना कहीं ज्यादा अच्छा है…..।”10
‘गदर की चिनगारियाँ’ नाटक-संग्रह में संकलित‘महारानी तपस्विनी’ नाटक की नायिका सुनंदा (तपस्विनी) के पिता पेशवा नारायणराव अंग्रेज़ी शासन की गुलामी को उतार फेंकना और अपने देश को आज़ाद करना चाहते थे, पर वह अपनी बेटी को लेकर भी चिन्तित थे। जब यह बात उन्होंने अपनी बेटी को बतायी, तो सुनंदा ने उनको अपने कर्त्तव्य-पालन के लिए प्रोत्साहित किया और अपने पिता को अंग्रेज़ों के विरुद्ध लड़ाई में भेज दिया, क्योंकि वह ख़ुद भी अपने देश को आज़ाद होते हुए देखना चाहती थी-
“नारायणराव : लार्ड डलहौजी ने तो भारतीय रियासतों को हड़पने के लिए ‘हड़प नीति’ ही बना रखी है…वह भारत की हर रियासत को हड़प जाना चाहता है।
सुनंदा : हमें इस अन्याय का प्रतिकार करना चाहिए, पिता जी!
नारायणराव : प्रतिकार करना ही होगा, सुनंदा!…किंतु इस प्रतिकार का अर्थ होगा युद्ध!
सुनंदा : युद्ध से भय कैसा, पिता जी! ‘गीता’ में श्रीकृष्ण ने भी कहा है कि सत्य की रक्षा के लिए यदि युद्ध करना पड़े तो अवश्य करना चाहिए!”11
‘गदर की चिनगारियाँ’ नाटक-संग्रह में संग्रहीत ‘अजीजनबाई’ नाटक की नायिका अजीजनबाई पेशे से नर्तकी ज़रूर थी, परन्तुउसके मन में देशप्रेम का जज़्बा भरा था और वह अपने देश को आज़ाद कराने का सपना भी देखती थी।उसने अपनी जैसे औरतों के साथ मिलकर मस्तानी टोली भी बना रखी थी,ताकि वक्त आने पर दुश्मनों को सबक सिखा सके। जब उसे इस बात की जानकारी मिली कि उसके राज्य पर अंग्रेज़ों ने धावा बोल दिया है, तब वह भीअंग्रेज़ों से युद्ध करने के लिए अपनी टोली के साथ निकल पड़ी और पकड़े जाने पर भी अंग्रेज़ों के आगे झुकी नहीं, बल्कि अदम्य साहस के साथ उनको ललकारती रही-
“अजीजन : मस्तानी टोली की साथी बहनों! आज वो वक्त आ गया है जिसका हमें इंतजार था…..आज अंग्रेज़ों से हम खुल कर, आमने-सामने की टक्कर लेंगे।
जनरल हैवलाक : सिपाहियों! गिरफ़्तार कर लो इन सबको! देखो, एक भी बचकर जाने न पाए!
शेफर्ड : जरनल हैवलाक! यही है वो अजीजनबाई जिसने मस्तानी टोली बना रखी है।
जनरल हैवलाक : हूँ! ए ब्यूटीफुल क्रिमिनल।…वैसे अगर ये अपने अपराध की माफ़ी माँग ले तो मैं इसे माफ किए जाने की सिफारिश कर सकता हूँ!
अजीजन : (गरजकर)…गुनाह तो तुमने किया है जनरल! माफी तो तुम्हें माँगनी चाहिए, मुझे नहीं! दूसरे के वतन पर कब्ज़ा करने से बड़ा गुनाह और कोई हो ही नहीं सकता है…..तुम अगर माफी भी माँगों तो भी हिंदुस्तान का बच्चा-बच्चा भी तुम्हें माफ नहीं करेगा।”12
‘गदर की चिनगारियाँ’नाटक-संग्रह में प्रस्तुत ‘मामकौर बीवी’ नाटक की नायिका मामकौर बीवी जो निम्न-मध्यवर्गीय परिवार से संबंध रखती थी, जिसे न तो राजनीति का ज्ञान था और न ही किसी सम्मान या प्रतिष्ठा मिलने की लालसा। उसकी तो बस एक ही इच्छा थी अपने देश को अंग्रेज़ों के चँगुल से मुक्त कराने की, जिसके लिए मामकौर बीवी ने अपनी सहेलियों के साथ मिलकर एक टोली बनायी और अंग्रेज़ों को देश से बाहर निकालने के लिए बहादुरी से लड़ाई लड़ी और अंत में हँसते-हँसते फाँसी के फंदे पर भी झूल गयी-
“मामकौर : बहनों! क्या आप लोगों को फिरंगियों का राज पसंद है?
औरतों का सामूहिक स्वर : नहीं! बिलकुल नहीं!
मामकौर : तो हम उन्हें राज क्यों करने दे रहे हैं? क्या हम डरती हैं?
औरतों का सामूहिक स्वर : नहीं! हम किसी से नहीं डरती हैं!
मामकौर : तो फिर देर किस बात की है? हमें सड़कों पर निकल पड़ना चाहिए और इन फिरंगियों को बता देना चाहिए कि हमारे जो हाथ चूड़ियाँ पहनते हैं वे जूतियाँ भी मार सकते हैं।”13
‘गदर की चिनगारियाँ’ नाटक-संग्रह में संकलित ‘मैनाबाई’ नाटक की नायिका मैनाबाई ने अंग्रेज़ों की क्रूरता एवं नृशंसता को झेला, परन्तु फिर भी अपने स्वतंत्रता-प्रेमी क्रांतिकारी साथियों का भेद अंग्रेज़ों के आगे नहीं खोला। मैनाबाई का ऐसा अदम्य साहस उनके देशप्रेम और आज़ादी के प्रति उनके समर्पण भाव को प्रदर्शित करता है-
“कैप्टन रस्किन : तुम अगर हमें बागियों के राज़ नहीं बताओगी तो हम तुम्हें इतना टॉर्चर करेंगे कि तुम्हारी रूह भी काँप उठेगी!
मैना : तुम हमारी आत्मा को डरा नहीं सकते हो…जितना चाहे उतना प्रताड़ित कर लो!
कैप्टन रस्किन : सिपाही! इसे पेड़ से बाँधकर कोड़े मारो और अगर ये पानी माँगे तो एक बूंद पानी नहीं देना!
कुंती : मैना दीदी बेहोश हो गई हैं…बेहोशी में वे पानी माँग रही हैं…कोई उन्हें पानी दो!
कैप्टन रस्किन : खबरदार! कोई इसे पानी नहीं देगा!
कुंती : नहीं! ऐसा मत करो।
मैना : कुंती….न…हीं…इन…लो..गों से..रहम…की…भी..ख़ …नहीं…माँगो…ये चाहे…कुछ..भी…कर..लें…लेकिन…मेरा मुँह..नहीं…खुलवा..स..क..ते…हैं…।”14
‘गदर की चिनगारियाँ’ नाटक-संग्रह में सम्मिलित ‘रानी फूलकुँवर’ नाटक की नायिका रानी फूलकुँवर के पति और बेटे को झूठे मुकद्दमे में फँसा कर तोप के मुँह से बाँधकर मौत के घाट उतार दिया गया था। इसके बावजूद भी रानी ने अपने-आपको कमज़ोर नहीं पड़ने दिया और अपने राज्य को अंग्रेज़ों की ग़ुलामी से मुक्त कराने के लिए उनके साथ युद्ध किया। जब उन्हें लगा की अब वह चारों ओर से घेर ली गयी हैं, उनका इस घेरे से निकलना नामुमकिन है, तब उन्होंने अपनी ही तलवार अपने पेट में मार दी, परन्तु जीते-जी अंग्रेज़ों के हाथ नहीं आयी। रानी फूलकुँवर का अपने राज्य और देश को आज़ाद कराने के लिए यूँ अंग्रेज़ों से भिड़ जाना उनकी वीरता एवं साहस को परिलक्षित करता है-
“फूलकुँवर : साथियो!…. ये अंग्रेज धीरे-धीरे पूरे हिंदोस्तान पर कब्ज़ा करते जा रहे हैं….हमें इन्हें रोकना होगा….और इन्हें रोकने का एकमात्र उपाय है युद्ध!….आज वह समय आ गया है जब हम अपने शत्रुओं को युद्ध के मैदान में ललकारें और उन्हें गाजर-मूली की भाँति काटकर रख दें!
सैनिकों का समूह स्वर : हर-हर महादेव
सार्जेंट स्मिथ : रानी तुम चारों ओर से घिर गई हो! तुम सरैंडर कर दो! वरना गिरफ़्तार कर ली जाओगी और अपने पति की तरह मारी जाओगी! तुम्हारी मदद करने वाले भी मारे जा चुकें हैं….
फूलकुँवर : मौत का डर किसे दिखा रहे हो, फिरंगी? हिंदुस्तानी मौत से नहीं डरते हैं…मौत में भी हम जिंदगी को देखते हैं….और तुम? तुम तो हमें न मौत दे सकते हो और न गिरफ़्तार कर सकते हो…ये देखो…(रानी अपने पेट में अपनी कटार मार लेती है)….आह….।”15
निष्कर्ष रूप में, कहा जा सकता है कि स्त्री-जीवन में संघर्ष से सशक्तीकरण तक के सफर से जुड़े विविध मुद्दों पर गहन विमर्श को चित्रित करती शरद सिंह की यह नाटक-संग्रह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कृति है। विवेच्य नाटक-संग्रह में संग्रहीत तेरह नाटक गदर की उन वीरांगनाओं के आत्मबलिदान, साहस, वीरता और सशक्त रूप को प्रस्तुत किया गया है। इन वीरांगनाओं के जीवन-संघर्षों को कई इतिहासकारों और साहित्यकारों ने प्रकाश में लाने की भरपूर कोशिश भी की है, परंतु अभी भी सही मायने में इन वीरांगनाओं की वीरता की कहानियाँ इतिहास के पन्नों में दर्ज़ नहीं हो पाई है। यह नाटक-संग्रह हमारा ध्यान इसलिए भी आकृष्ट करती है, क्योंकि इनमें से कई वीरांगनाएँ ऐसी है जिनका नाम पाठक पहली बार सुनेंगे। सरल शब्दों में कहा जाए तो इन वीरांगनाओं उस समय स्त्री-शक्ति के ऐसे उदाहरण प्रस्तुत किए जो आज भी मन में कुछ कर गुजरने की इच्छा को जागृत कर देती है।

संदर्भ ग्रन्थ सूची :
1. शर्मा, कुमुद, ‘आधी दुनिया का सच’, नई दिल्ली, सामयिक प्रकाशन, 2014, पृष्ठ संख्या-145
2. हरिनारायण (संपादक), कथादेश (पत्रिका), मृदुला गर्ग का लेख: सशक्तीकरण का स्त्रोत और आधार मस्तिष्क है, देह नहीं, दिल्ली, सहयात्रा प्रकाशन, अंक दिसम्बर 2008, पृष्ठ संख्या-78
3. जनसत्ता (समाचार पत्र), योगिता यादव लेख -वे बढ़ रहीं हैं मंजिल की ओर, रविवारीय अंक , दिल्ली, 08 मार्च 2020
4. सिंह, शरद, ‘राबिया’, ‘गदर की चिनगारियाँ’, नयी दिल्ली, सस्ता साहित्य, 2011, पृष्ठसंख्या-66-67
5. सिंह, शरद, ‘बेगम जीनत महल’, ‘गदर की चिनगारियाँ’, नयी दिल्ली, सस्ता साहित्य, 2011, पृष्ठ संख्या-82-83
6. सिंह, शरद, ‘रानी अवंतीबाई लोधी’, ‘गदर की चिनगारियाँ’, नयी दिल्ली, सस्ता साहित्य, 2011, पृष्ठ संख्या-82-83
7. सिंह, शरद, ‘झलकारीबाई’, ‘गदर की चिनगारियाँ’, नयी दिल्ली, सस्ता साहित्य, 2011, पृष्ठ संख्या-110-111
8. सिंह, शरद, ‘लक्ष्मीबाई’, ‘गदर की चिनगारियाँ’, नयी दिल्ली, सस्ता साहित्य, 2011, पृष्ठ संख्या-135-136
9. सिंह, शरद, ‘लक्ष्मीबाई’, ‘गदर की चिनगारियाँ’, नयी दिल्ली, सस्ता साहित्य, 2011, पृष्ठ संख्या-135-136
10. सिंह, शरद, ‘ऊदा देवी पासी’, ‘गदर की चिनगारियाँ’, नयी दिल्ली, सस्ता साहित्य, 2011, पृष्ठ संख्या-158-159
11. सिंह, शरद, ‘महारानी तपस्विनी’, ‘गदर की चिनगारियाँ’, नयी दिल्ली, सस्ता साहित्य, 2011, पृष्ठ संख्या-189
12. सिंह, शरद, ‘अजीजनबाई ’, ‘गदर की चिनगारियाँ’, नयी दिल्ली, सस्ता साहित्य, 2011, पृष्ठ संख्या-178-179
13. सिंह, शरद, ‘मामकौर बीवी’, ‘गदर की चिनगारियाँ’, नयी दिल्ली, सस्ता साहित्य, 2011, पृष्ठ संख्या-216-217
14. सिंह, शरद, ‘मैनाबाई’, ‘गदर की चिनगारियाँ’, नयी दिल्ली, सस्ता साहित्य, 2011, पृष्ठ संख्या-261-262
15. सिंह, शरद, ‘रानी फूलकुँवर’, ‘गदर की चिनगारियाँ’, नयी दिल्ली, सस्ता साहित्य, 2011, पृष्ठ संख्या-104-105

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