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अफसाना… … !

जिसकी ज़िंदगी उसके नाम की तरह ही गुमनाम है और जिसका संघर्ष उसकी ज़िंदगी की तरह ही अनदेखा। वह एक छोटे से गाँव के निम्न वर्गीय या कह लीजिए शोषित वर्गीय परिवार की बेटी है। शिक्षा का अधिकार उसे भारतीय नागरिक होने के ख़ातिर मिला तो था, लेकिन कक्षा आठवीं से अधिक तालीम वह प्राप्त ना कर सकी। उसने अभी अपने जीवन के कुछ सत्रह साल ही जिए होंगे कि उसके मौसेरे भाई से जो उससे तकरीबन दस वर्ष बड़ा था विवाह के बंधन में बांध दिया गया…माफ़ कीजिए, जकड़ दिया गया और लाद दी गयी ज़िम्मेदारियों से भरी एक भारी भरकम बोरी उसके नाज़ुक कंधों पर पुश्तैनी तिज़ारत के साथ।
उसके नाज़ुक अंगों में अभी वह पीड़ा सहने की क्षमता नहीं है, जो एक वैवाहिक स्त्री में होनी चाहिए। लेकिन वह सहन कर लेगी। उसे करना ही होगा क्योंकि ये दर्द अब उसके हक़ में हर रोज़ के लिए आ चुका है।  उसे इस दर्द से परहेज़ करने का कोई हक़ नहीं, और करे भी क्यों ये तो दुनिया की रीत है। चादर की सिलवटों में रक्त का होना उसकी पवित्रता का प्रतीक है। बल्कि ये उसकी अच्छी किस्मत है कि उसका ख़सम दुराचारी नही है, वरना कितनों ने तो सन्तुष्टिकरण से अधिक अपने ख़सम को कभी नज़रें उठाकर भी नही देखा।

बदलते वक़्त के साथ ज़िंदगी सामान्य होती रही, ज़िम्मेदारियां निभाने और चादर की सिलवटों में सिमटी बीस वर्ष की अफसाना ने अब एक पुत्री को जन्म दिया लेकिन हालात एक दफ़ा फिर गड़बड़ाए जब ख़ुदा ने उसके शौहर को उससे छीन लिया और तब शुरू हुआ मानसिक कष्टों और सामाजिक प्रताड़नाओं को झेलने का अगला पड़ाव।  जिससे निकलने के लिए उसने आत्मदाह करने का निर्णय कई बार लिया लेकिन हर बार अपनी बच्ची को सीने से लगाकर मात्र रुक गई, हिम्मत की कमी नही थी अफ़साना में लेकिन अब जैसे वह जीने को मजबूर थी। कुछ महीनों में उसे इन सबकी आदत पड़ गयी, लेकिन अब उसे अपने जीवन की क्षण भर भी फ़िक्र न थी।  फ़िक्र थी तो केवल अपनी बच्ची और उसके भविष्य की, जिसके प्रति उसकी ममता अनंत थी और समाज की सोच कठोर..! माफ कीजिए… अस्वीकार्य !

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