अंदाजा लगाता हुआ आया था वह
अपने ही घर में,
ऐसा लगता था जैसे
आखिरी बचा हुआ बाशिंदा हो शहर में,
घर का दरवाजा खोला था उसने बहुत आहिस्ता,
किसी नजर से पड़े न इस वक्त उसका वास्ता,
कोई बाहर वाला आ जाता तो होता बेहतर,
उसी सवाल से उसका होता न सामना
रह–रहकर,
वही हमेशा का सवाल कि ‘कैसा हुआ पेपर’
उसी सवाल से उसका सामना आखिर हुआ,
वही यंत्रवत जवाब ‘पेपर अच्छा ही हुआ’
ये कहते हुए वह सहम कर थरथराया,
तभी उधर से चुभता सा इक सवाल आया,
अच्छा ही होता है तो फिर
कहीं होता क्यों नहीं ?
कितनों का चयन हो गया
तुम्हारा क्यों नहीं,
जो चुन लिए गए वो लोग
मजे से ज़िंदगी बिता रहे हैं,
छोटी -छोटी डिग्रियों से ही
बड़ी -बड़ी कारें ला रहे हैं,
तुमको ज्यादा पढ़ाया-लिखाया
तभी तो ये हाल है,
मैं हूँ तब तक चैन से जी लो,
वरना आगे ज़िंदगी मुहाल है,
वह चीखकर बताने वाला था,
कि समूह घ और ग की
नौकरी में देने होंगे पैसे,
वो पैसे उसका परिवार जुटायेगा कैसे ?
श्रेणी ख की फिलवक्त बंद है भर्ती,
जिससे हुआ है उसका भविष्य परती
श्रेणी क को पाने की न तो उसकी कूवत है
न तैयारी,
उसने मन में सोच रखा था कि
अब है खुदकुशी की बारी,
अपनी चुप्पी से वह ये भी बताना चाहता था कि,
सरकारी कॉलेजों की डिग्रियां
होती हैं खैरात के खाने सरीखी,
जो निजी क्षेत्र में अंग्रेजी कल्चर से
अक्सर हारती रहती,
और जिस जाति के दम पर इतराता रहता है उसका परिवार
उसी जाति ने बंद कर रखे हैं
नौकरियों के लिए उसके द्वार,
वही जाति आज उसकी दुश्मन बन बैठी है
विशिष्टता, सामान्यता से जाती हार
क्योंकि नीति निर्णायक हठी हैं
उसके मन के उबाल को किसी ने लिया था ताड़,
मां को भी कहना था तल्ख मगर
आया बेटे पर लाड़,
उसने कहा -बेटा खा कर सो जा तू थका-मांदा है
क्योंकि कल फिर काम पर जाने का
तेरा खुद से वादा है,
माँ के कहने पर बेटे के बजाय
मेहमान चौंक कर बोला,
‘काम पर जाना है , बताया नहीं आपका बेटा कौन से काम पर जाता है?
बेटे को दुखी कर चुके बाप
दुःख से कातर स्वर में बोला,
‘वही जो हमारे देश की एक बहुत बड़ी आबादी,
हर दिन करती ही रहती है,
हर सुबह काम की तलाश में निकलती है ,
और उसकी थकी हुई हर सांझ,
कल सुबह की उम्मीद में
तिल-तिल मरती रहती है,
मेरे बेटे को काम की तलाश में जाना है,
क्योंकि मेरा बेटा बेरोजगार है
और नौकरी ढूंढना ही उसका रोजगार है।
