नहीं आता है मुझको आह का गान,
वियोगी कवि सी नहीं मेरे आलाप की तान,
मैं क्यों कर न सका वैसा ही करुण विलाप,
जैसे कौंच खग ने किया था वेदना का प्रलाप,
मेरे शब्द नहीं बन पाए पीड़ा की कविता,
पर प्रेम मेरा कुछ कम तो नहीं है
मैं वाल्मीकि सा न रच गुन सका कविता,
तुलसीदास सी न बह सकी मेरी पीड़ा की सरिता,
मैंने प्रेम में अर्जुन की तरह नहीं जीते हैं रण,
न ही भीम सदृश रक्तपिपासु कोई लिया है प्रण,
किया नहीं प्रह्लाद जैसे कोई अग्नि समर्पण,
पर प्रेम मेरा कुछ कम तो नहीं है ।
मैंने शिव जैसा नहीं किया है विध्वंस ,
तीनों लोकों में न भटकता रहा रहा बरबस,
विरह वेदना में न हो सका मैं नीलकंठ,
रो -रोकर न हुआ कभी मेरा अवरुद्ध कंठ,
जीवन में मेरे नहीं उतरा उतना हलाहल,
पर प्रेम मेरा कुछ कम भी तो नहीं ।
मेरे प्रेम की थाह लेनी चाही तुमने कितनी बार,
मैंने ताजमहल जैसा क्यों नहीं रचा कोई शाहकार,
मैंने किसी के हाथ कटवा के क्यों न जताया प्यार,
अपने प्रेम के लिये क्यों न रक्त बहाया मैंने,
कोई साम्राज्य दांव पे क्यों न लगाया मैंने,
पर प्रेम मेरा कुछ कम तो नहीं।
समाप्त