“फल कोई ज़माने में नहीं, आम से बेहतर
करता है सना आम की, ग़ालिब सा सुखनवर
इकबाल का एक शेर, कसीदे के बराबर
छिलकों पे भिनक लेते हैं, साग़र से फटीचर
वो लोग जो आमों का मज़ा, पाए हुए हैं
बौर आने से पहले ही, वो बौराए हुए हैं”
मशहूर शायर सागर खय्यामी की यह पंक्तियां जब मैंने पढ़ी तो मुझे अचानक अपने रटौल आम की याद आई और साथ में दुख भी हुआ क्योंकि इस नज़्म में सागर खय्यामी ने आगे कई नस्लों का जिक्र किया मगर रटौल का नहीं । फिर मुझे लगा कि रटौल आम सागर खय्यामी ने शायद खाया ही नहीं होगा वरना ऐसा हो ही नहीं सकता था कि वह रटौल आम का ज़िक्र ना करें । लेकिन यह दुख बाद में दूर हो गया जब मैंने उर्दू के प्रसिद्ध शायर नसीम अमरोहवी कि यह नज़्म सुनी-
ठेले पे आज है कई नस्लों का इज़दिहाम।
शीरीं मिज़ाज, तुर्श बयां शक्करी किमाम।
हर आम कह रहा है कि मैं हूं लज़ीज़ आम।
लेकिन जो आम खास है वह चुप है ला कलाम।
चौसा बचा रहा इस औल- फौल से,
लंगड़ा पिचक के रह गया अनवर रटौल से।फलों का राजा आम और आमों का राजा रटौल। आम से जुड़ी मेरी सबसे पुरानी याद यही है।जब हमें आम की किस्मों और उसके जायके के बारे में कोई इल्म नहीं था। लेकिन यह वाक्य चूंकि हमारे कानों में अक्सर गूंजता रहता था इसीलिए हम रटौल आम को कुछ ज्यादा ही चूसकर खाते थे, इतना चूसते की गुठली सफेद हो जाती थी। उस समय मुझे ये पता नहीं था कि ग़ालिब को गुठली चूसना माशूक से मिलने जैसा मज़ा देता था। कोई 92 या 93 की बात होगी एक बहुत बड़ी आम पार्टी गाँव के सबसे प्रसिद्ध नूर बाग में रखी गई थी। बागों के नाम मालिकों के नाम पर ही अक्सर पड़ जाते हैं जैसे शेख़ जी हसन वाला बाग, कल्लू वाला बाग चौधरी बशीर वाला बाग तथा सरपंच वाला बाग आदि आदि। सरपंच वाला बाग हमारा था। जिसमें मेरे ताया अब्बा और उनके भाइयों ने बड़े चाव से पाला था। मेरे चाचा हमेशा कहते थे कि बाग को हमने बच्चों की तरह पाला है। उसमें भी आम की बहुत सारी किस्में थीं। अपने बाग से मेरी बहुत सी यादें जुड़ी हुई हैं। हमारे बाग के बीचों बीच बटिया निकलती थी और उसके दोनों ओर चोंसे की लंबी कतार थी जो बड़े करीने से लगाई गई थीं। जहां ये कतार खत्म होती थी वहां गोल घेरे में रटौल के पेड़ थे यही हमारा ठिकाना होता था। हम सारे बच्चें किसी बड़े पेड़ पर काई डंडा खेला करते थे और एक डाल से दूसरी डाल पर बंदर की तरह चले जाते थे। चोट भी लगती थी पर कोई घर नहीं बताता था। आपस में भिड़ जाते थे कभी कभी लात घूंसे भी चलते थे पर मजाल किसी की,कि कोई घर जा के बता दें। क्योंकि अगले दिन फिर यही होना है। जब पत्ते सूखकर नीचे गिर जाते थे उन दिनों उन पर चलने से आनी वाली आवाज़ आज भी मेरे कानों में गूंजती हैं। आह!क्या दिन थे वे जब वाकई दिन रात की कोई फिक्र नहीं थी। फिक्र थी सिर्फ़ अपने ताया अब्बा और बड़े भैया मोमीन की क्योंकि कोई भी गलती हो जाएं तो बड़े भैया हमें पकड़कर ताया के सामने पेश करते थे और फिर पिटाई…. हाय री अतीत की यादें क्या क्या याद आ रहा हैं बस दिल फटा जा रहा है। ये किस्सा कभी बाद में सुनाया जाएगा ।अब रटौल आम की बात।
नूर बाग में मैंने देखा ठंडे पानी से भरी टबों में आम भरकर रखें गए थे।एक टब में एक क़िस्म के आम मसलन रटौल ,चोसा ,दशहरी, मखसूस, हुस्नारा, तोतापरी, गोला, गुलाब जामुन, अंगूर दाना, जमेजामा आदि- आदि। टबों के साथ कुछ खाली टोकरियां छिलकों के लिए रखी गई, कुछ तश्तरियां और चाकू भी बड़े करीने से रखे हुए थे ।बड़े-बड़े लोग आए हुए थे उसमें कई विदेशी भी थे। उनके पीछे पीछे गांव के लोग लगे हुए थे बस हाथों और आंखों से ही आम का स्वाद एक दूसरे को बता रहे थे। मैं भी इन्हें गौर से देख रहा था चूंकि मैंने पहली बार अपने से अलग तरह के लोग देखे थे। इसमें अहम बात यह है कि वे विदेशी लोग अपने हाथों में साइज में सबसे छोटा आम (रटौल)को लिए हुए थे और जो भी उनकी और देखता उससे वे कहते ‘इट्स वेरी टेस्टी’ । आम के बड़े शैदाई मिर्जा गालिब से हुगली (कोलकाता) के नवाब अकबर अली मौतवल्ली ने अपने बाग के आम खिलाते समय पूछा कि “मिर्ज़ा साहब आम की वह कौन सी किस्म है जो आपको बेहद पसंद है? तो उन्होंने जवाब दिया देखिए साहब मैं इस सवाल का हर एक पूछने वालों को एक ही जवाब देता हूं और वो ये है कि मैं आम की क़िस्म को कोई खास अहमियत नहीं देता। मेरा तो सिर्फ मानना है कि आम मीठे हो और खूब हो।” काश गालिब से पहले रटौल आम वजूद में आया होता तो शायद गालिब का जवाब कुछ और होता क्योंकि रटौल आम में एक तीसरी खूबी होती है और वो है इसकी खुशबू। वाकई दो चार आम ही पूरे घर को महका देते हैं। ग़ालिब तो 1869 में दुनिया को अलविदा कह चुके थे और रटौल आम 1912 मैं पैदा हुआ तथा इसका स्वाद 1917 या 1918 को पहली बार चखा गया। चूंकि रटौल आम का मदर प्लांट गाजर के खेत में पैदा हुआ था अतः इसमें गाजर की भीनी गंध के साथ मिलकर एक विशेष खुशबू विकसित हुई। यह बाग अनवारूल हक साहब का था। इसलिए जब इसकी क़िस्म को शेख़ अफाक़ फ़रीदी साहब ने तैयार किया तो इसका नाम अनवर रटौल रख दिया। बाद में इसका नाम अनवर पसंद और उसके बाद ये गांव के नाम रटौल से ही प्रचलित हो गया। देश के बंटवारे के समय ये आम मुल्तान (पाकिस्तान) तक पहुंच चुका था। अनवारूल हक के रिश्तेदार विभाजन के समय पाकिस्तान चले गए और जाते समय रटौल आम के कुछ पौधे भी ले गए थे। वहां उन्होंने धीरे धीरे पूरा बाग विकसित किया और इसका नाम अनवर रटौल रख दिया।
आज यह इसी नाम से पूरे पाकिस्तान में मशहूर है। और पूरी दुनिया में इसे पाकिस्तान अपना बताता है। मेरे एक दोस्त जाहिद जो ऑस्ट्रेलिया में रहते हैं और मेरे साथ जामिया में कई बार रटौल आम खा चुके हैं। उन्होंने मुझे बताया कि यहां पाकिस्तानियों से मेरी लंबी बहस हुई है और मैंने बताया कि यह रटौल आम तो हमारे यहां का है पर वे मानने को तैयार नहीं। रटौल आम को लेकर दोनों देशों के बीच मैंगो डिप्लोमेसी की शुरुआत तब हुई जब पाकिस्तानी जनरल ज़ियाउल हक ने इंदिरा गांधी और तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी को रटौल आम की पेटी भेजी और इस लज़ीज़ आम पर प्रतिक्रिया चाही। तब इंदिरा गांधी ने ज़िया साहब को बताया कि यह आम तो रटौल गांव का है और जो हमारे यहां है। बाद में रटौल गाँव के बहुत सारे लोग जिनमें जावेद अफरीदी डॉक्टर मेहराजुद्दीन और मलिक साहब प्रमुख थे। श्रीमती गांधी से मिले और इस आम के बारे में विस्तार से बताया। उसी समय इंदिरा गांधी ने गांव के लोगों को शुक्रिया का एक पत्र भी भेंट किया। इसमें एक महत्वपूर्ण बात यह है कि श्रीमती इंदिरा गांधी जी का टाइपिस्ट उसमें रटौल नाम लिखना भूल गया तो इंदिरा गांधी ने अपने हाथों से रटौल नाम लिखा और फिर उसी कलम से नीचे अपने हस्ताक्षर भी किए।
यह 1980 की बात है और वह प्रमाण पत्र आज भी हमारे यहां सुरक्षित रखा हुआ है। पूर्व मंत्री डॉ मैराजुद्दीन बताते हैं कि- इसके बाद भी पाकिस्तान ने रटौल आम के ऊपर अपने देश में एक डाक टिकट भी जारी किया है और इस पर अपना हक बताया है जबकि भारत ने हमेशा इस कदम का विरोध किया है।भारत-पाक के बीच बहुत सारे विवादों में एक विवाद आम डिप्लोमेसी का भी है और जिस की खबर कई बार अखबारों में छप चुकी है। रटौल वासियों को इस बात का दुख भी है कि जो आम हमारे गांव से पाकिस्तान गया वह पूरे पाकिस्तान और विदेशों में पाकिस्तान का कहलाता है। असल में हुआ ये कि पाकिस्तान में इसे बड़े स्तर पर विकसित किया गया। वहां के बड़े बड़े जमींदारों ने वहां बड़े-बड़े बाग लगाए और सरकार की सहायता से उसे खूब निर्यात किया। इस काम को करने में हम पीछे रह गए और इसमें सरकारी उदासीनता भी रही। हम अभी भी इसी कोशिश में लगे हैं कि सरकार इस मुद्दे को गंभीरता से लें और इसके लिए प्रचार करें कि रटौल आम रटौल गांव (बागपत) हिंदुस्तान का है।’

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अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के उर्दू अकादमी डायरेक्टर राहत अबरार ने बताया कि “रटौल आम हम लोगों की बाग में विकसित हुआ है और हमारे ही कुछ रिश्तेदार विभाजन के समय पाकिस्तान चले गए और फिर रटौल से पौधे ले जाकर वहां पूरे पूरे बाग तैयार किए।“प्रधान जुनैद फरीदी बताते हैं कि हमारे दादा जनाब अफ़ाक़ साहब की कड़ी मेहनत और लगन से कई वर्षों में रटौल आम का एक बड़ा बाग तैयार हुआ। उन्होंने 1928 में एक आम नर्सरी सारा-ऐ- अफाक़ भी विकसित की। धीरे-धीरे उनकी मेहनत रंग लाई और 1936 में रटौल के आम को लेकर नवाब अहमद सईद खान छतारी स्टेट लंदन मैंगो फेस्टिवल पहुंचे। जहां रटौल को ‘बेस्ट मैंगो ऑफ द वर्ल्ड” का खिताब दिया गया। शेख अफ़ाक के सराहनीय कार्यों और उनके योगदान पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म “मैंगो किंग” के नाम से 1955 में बनाई गई थी, जिसका निर्माण फिल्म डिवीजन ऑफ इंडिया ने किया था। उसके अगले वर्ष प्रसिद्ध अखबार दा स्टेट्समैन 10 जुलाई 1957 में श्री अफाक और रटौल आम को लेकर एक लेख भी छापा था। उसकी कॉपी अभी भी मौजूद है। इसके अतिरिक्त न्यू न्यूयॉर्क टाइम्स के पत्रकार जनाब अनवर ने 12 जुलाई 1992 में एक बड़ा राइटप रटौल पर लिखा जिसमें उन्होंने रटौल को दुनिया का सबसे स्वादिष्ट आम बताया ।
“रीडर डाइजेस्ट में श्री मोहन शिवानंद लिखते हैं – ‘वी हैव द बेस्ट मैंगो हियर’ रटौल गांव ने दुनिया को रटौल आम का नायाब तोहफा दिया है यह आमों का सरताज है।”
आमों के शौकीनों के लिए रटौल को आम मक्का कहा गया। क्योंकि आज यहां लगभग 460 किस्म के आम पाए जाते हैं। इसमें विशेष तौर पर शेख़ अफाक साहब का योगदान रहा इसलिए पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इन्हें खुद मैंगो किंग नाम दिया था। सन 1955 में अफाक फरीदी के पुत्र जनाब हसन फरीदी के प्रयासों से रटोल आम को यूपी के गवर्नर द्वारा दोबारा लंदन मैंगो फेस्टिवल में भेजा गया और इस आम ने एक बार फिर वहां के लोगों का दिल जीत लिया था। श्री अफाक के छोटे बेटे जावेद फरीदी और श्री अनवारूल हक के पौत्र पूर्व मंत्री डॉक्टर मेराजुद्दीन तथा डीयू के प्रो. ज़हूर सिद्दीकी ने भी रटौल आम को प्रसिद्ध दिलाने के अथक प्रयास किए और कई बार इसे आम महोत्सव में लेकर गए और खूब इनाम प्राप्त किए। सन 1992 से लेकर 1995 तक दिल्ली में होने वाले अंतर्राष्ट्रीय आम महोत्सव दिल्ली में रटोल आम को लगातार प्रथम पुरस्कार मिला।सन 1992 में ही प्रधान जुनेद फरीदी और डॉक्टर मेहराजुद्दीन ने श्री अफाक फरीदी की याद में रटौल गांव में अंतरराष्ट्रीय आम फेस्टिवल का आयोजन किया था। जिस के मुख्य अतिथि तत्कालीन राज्यपाल बलराम जाखड़ और केंद्रीय मंत्री पी चिदंबरम थे। इसके अतिरिक्त डॉ मेहराजुद्दीन को हरियाणा सरकार ने आम केसरी के खिताब से भी नवाजा है। एक प्रसंग और, यह कोई 2005 या 2006 जुलाई की बात होगी। हिंदी के प्रसिद्ध लेखक असगर वजाहत के एक मित्र मंजूर साहब जो अमेरिका में प्रोफ़ेसर थे वह जामिया आए हुए थे। उन्होंने असगर वजाहत सर से रटौल आम को खाने की इच्छा ज़ाहिर की। चूंकि वजाहत सर हमारे यहां रटौल पहले आ चुके थे। अतः उन्होंने उन्हें मेरे बारे में बताया और यह भी बताया कि रटौल यहां से मात्र 40 किलोमीटर ही दूर है। बस प्रोफेसर मंजूर साहब ने अपनी सेहत की परवाह भी नहीं की (उन्हें चलने में दिक्कत होती थी) और कहने लगे जब अमेरिका से इतनी दूर आ सकता हूं तो 40 किलोमीटर रटौल आम के लिए कुछ भी नहीं। आम तो उन्हें वहां भी खिलाया जा सकता था दरअसल वह उस गांव और पेड़ों को देखना चाहते थे जहां यह लज़ीज़ आम पैदा हुआ। वह यहां पूरे दिन रहे और जाते वक्त बोला “वाकई रटौल आमों का राजा है। “रटौल आम में कुछ ऐसा खास है कि जो इसे एक बार खा लेता है उसका ज़ायका तमाम जिंदगी याद रखता है। यही कारण है कि इस आम के खुशबू ने हमारे कई प्रधानमंत्रियों (जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, चौधरी चरण सिंह, चंद्रशेखर तथा अटल बिहारी वाजपेई आदि) को खूब प्रभावित किया। इनमें से कईयों को तो रटौल आम हमारे गांव तक खींच लाया। ये लोग खास थे और रटौल आम भी बहुत खास है। प्रसिद्ध सूफी कवि अमीर खुसरो ने आम को हिंदुस्तान का मेवा बताया था –
“जग साख- ए-मान त्रस कुम-ए-वुस्तम
नग सतारीम मेवा- ए- हिंदुस्तान।”

ग़ालिब आम के बेहद शौकीन और शैदाई थे। उनके आम को लेकर कई किस्से मशहूर भी है जिनमें “बेशक गधे आम नहीं खाते” वाली उक्ति बहुत प्रसिद्ध है। आम गुठली चूसना उन्हें वस्ल का मज़ा देता है। मगर अफसोस रटौल आम उनसे तकरीबन 40 साल बाद वजूद में आया। काश! गालिब ने रटौल आम खाया होता तो वे इसकी तारीफ किए बगैर न रह पाते। और इससे हमारे रटौल आम की प्रसिद्धि और बढ़ जाती, बस अब ऐसी कल्पना ही की जा सकती है।
इसके ज़ायके को लेकर अंतिम बात, जोश मलीहाबादी ने अपनी आत्मकथा यादों की बारात में एक ईरानी व्यक्ति के किस्से का वर्णन किया है कि ईरान जाकर वह अपने दोस्तो से आम के ज़ायके के बारे में बताना चाह रहा था मगर बता नहीं पा रहा था। तो कुछ लोगों ने कहा कि आखिर कैसा था उसका ज़ायका कुछ बताओ तो सही। आखिर में वह बोला बस मान लो कि वो मज़ा आया जो नामे अली में है कि इधर ज़बान से लिया और दिल में उतर गया। “आप एक बार रटौल ज़बान पर रखकर तो देखिए उसकी गुठली को चूसकर तो देखिए वह आपके दिल-ओं-जां को तर कर देगा। वाकई ऐ रटौल, “हमें नाज़ है तुझ पर”। पर मुझे इस बात का बड़ा दुख है कि ये नाज़ अब अतीत का हिस्सा न बन जाए क्योंकि जहां ये पैदा हुआ यानी मेरे गांव में वहां बड़े पैमाने पर बाग काटे जा चुके हैं और इसके ज़िम्मेदार कुछ हम और कुछ सरकार को माना जा सकता है।

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