kahni ha uski ma hai

गर्भवास का पिंड छुड़ाकर अभी-अभी तो वह बाहर आया है और आते ही बेहोश हो गया था। उसे नहीं मालुम कि वह कितने घंटे बेहोश पड़ा रहा। इस समय वह खुद एक चादर में लिपटा हुआ था। आंख खुलते ही उसने अपनी नजरें चारों तरफ़ घुमाते हुए कमरे का निरीक्षण किया। कमरे में उसके सिवाय और कोई नहीं था। वह समझ नहीं पा रहा था कि इस कमरे में कैसे आया या लाया गया। उसने गौर से देखा, चादर पर चाय के दाग जैसा मटमैला रंग, लिपस्टिक के सुर्ख लाल रंग और खून के धब्बे साफ़-साफ़ दिखलाई दे रहे थे जो किसी अनहोनी के होने की गवाही दे रहे थे। उसने यह भी महसूस किया कि उसका शरीर किसी चिपचिपी झिल्ली में लिपटा हुआ है। तभी एक तेज दुर्गंध का झोंका उसके नथुनों से आ टकराया। थोड़ी देर तक तो वह इस बदबू को किसी तरह सहता रहा, लेकिन अब उसकी सहनशक्ति बर्दाश्त से बाहर होने लगी थी। इस दमघोंटू बदबू के चलते उसका दिमाक भिनभिनाने लगा था। उसने हाथ-पैर चलाते हुए अपने आपको चादर से मुक्त करना चाहा। मुक्त होते ही उसने चादर के एक सूखे छोर से अपने शरीर को मलते हुए लिसलिसी झिल्ली को साफ़ किया और उठ खड़ा हुआ।

कमरें में टंगे आईने में उसे अपना अक्श दिखाई दिया। वह एकदम नंग-धड़ंग पड़ा था। अपने को नंगा देखकर उसे थोड़ी से शर्म तो आयी, लेकिन वह कर भी क्या सकता था। पलंग पर से उछलकर वह नीचे फ़र्श पर आ गया। सूने पड़े कमरे का उसने शुक्ष्मता से निरीक्षण किया। कोने में टेबुल पर कुछ किताबें पड़ी थीं स्थानीय कालेज के फ़ायनल ईअर की थीं, जिस पर उस युवती के हस्थाक्षर थे, जिसके साथ कुछ देर पहले उसने इसी कमरे में प्रवेश किया था। इतना याद आते ही उसके दिमाक की स्क्रीन पर उस युवती का चेहरा उभरने लगा। वह सोचने लगा था कि क्या,यही वह खूबसूरत युवती है जिसने उसे पिछले नौ माह तक अपने गर्भ में रखा और उसके बाहर आते ही उसे अपने शरीर का हिस्सा मानने से इनकार कर उसे अपने हाल पर छॊड़कर चलती बनी। खूबसूरत जिस्म में बदसूरत विचार कैसे पनप पाया होगा यह उसकी सोच से बहुत दूर की बात थी। एक – दो दिन नहीं पूरे नौ माह तक वह उस युवती के जिस्म का हिस्सा रहा है, उसी की सांस से सांस लेता रहा है और उसी के आहार से आहार लेता रहा है। वो जो सपने देखती रही है, उन्हीं सपनों को देख-देखकर वह क्रमशः बड़ा होता चला गया था। अतः उसकी सारी सोच और गतिविधियों का वह चशमदीद गवाह रहा है। उसे अपना अतीत याद आने लगा था। कालेज के अपने कक्ष में बैठी वह प्रोफ़ेसर का लेक्चर ध्यान से सुन रही थी, तभी उसके पेट में कुछ हलचल हुई। अपनी धीमी आवाज में वह उससे कुछ कहना चाह रहा था, कि अब वह ज्यादा समय तक उसके गर्भ में ठहर नहीं पाउंगा। लेकिन वह लेक्चर सुनने में इतनी मगन थी कि उसे मेरी आवाज तक सुनाई नहीं दी। यह तो प्रकृति का नियम है, जिसे चाह कर भी कोई उसकी अवहेलना नहीं कर सक्ता। उसे फ़िर एक मर्मान्तक पीड़ा होना शुरु हुई। अब वह एक पल भी सीट पर बैठ नहीं सकती थी। बिना शोर किए वह अपनी सीट से उठ खड़ी हुई। किताबों को बगल में दबाया और बाहर निकल आयी। समय कम था, कभी भी कुछ भी हो सकता था। कालेज परिसर से बाहर निकलकर उसने एक रिक्शे वाले को हास्पिटल चलने को कहा और बैठने से पहले ही उसने रिक्शे वाले के हाथ में एक सौ रुपये का नोट थमा दिया। वह दबी आवाज में केवल इतना ही बोल पायी थी कि जितनी जल्दी हो सके मुझे हास्पिटल पहुंचा दे।

दोपहर के लगभग दो बज रहे थे, हास्पिटल के परिसर में सन्नाटा पसरा पड़ा था। इक्का-दुक्का कोई आता-जाता दिखाई दे जाता था। काउन्टर पर कोई कर्मचारी नहीं था। डाक्टरों के कक्ष भी खाली पड़े थे। हो सकता है कि लंच टाईम में सभी खाना खाने के लिए जा चुके थे। गैलेरी से गुजरते हुए उसने एक खाली कमरे को देखा। उसने उस कमरे में प्रवेश किया, दरवाजे की कुंडी चढ़ा दी, अपनी साड़ी और पेटीकोट को उतारकर कोने में पड़े एक टेबुल पर उछाल दिया और पलंग पर आकर पसर गई।

कुछ देर बाद उसके पेट का दर्द नीचे जांघों की ओर खिसकने लगा था और फ़िर उसे लगा कि दर्द का एक दहकता हुआ गोला, जो उसके अन्दर घूमते हुए उसकी रगों और मांस को झुलसा रहा था, एकाएक बाहर आ गया है। तब उसने उस व्यक्ति की तरह महसूस किया था जो टनो वजनी दरख्त के नीचे दबा पड़ा हो और अचानक उसे एक झटके में दूर फ़ेंक कर उठ खड़ा हुआ हो। कुछ देर तक तो वह पलंग पर खामोशी के साथ पड़ी रही। गहरी सांस लेते हुए अपने को राहत पहुंचाने लगी थी। अपने आपको अब सामान्य स्थिति में पाकर वह झटके के साथ पलंग से उठ खड़ी हुई। शीघ्रता से उसने पलंग पर बिछी चादर से अपने अंगों को साफ़ किया। शरीर पर जहां-तहां खून के छींटे लगे थे, उन्हें साफ़ किया। नवजात को उसी चादर में अच्छी तरह से लपेट दिया। वाशरुम मे जाकर उसने मुंह-हाथ धोए और दीवार पर टंगे आईने में अपने निस्तेज हुए चेहरे को निहारा, बालों में कंघी फ़ेरी, बाहर निकली और झट से दरवाजा बंद कर अपनी सैंडिले खटखटाते हुए अस्पताल से बाहर निकल आयी। यह सब कुछ इतनी जल्दी में हुआ कि वह अपने नवजात शिशु का चेहरा भी ढंग से नहीं देख पायी।

हास्पिटल के परिसर से बाहर निकलकर उसने एक रिक्शा तय किया और अपने घर की ओर चल पड़ी। रिक्शे में बैठते ही उए लगा कि वह बड़े बोझ से छुटकारा पा चुकी, जिसे वह नौ महिने से उठाए हुए थी। उसे उम्मीद नहीं थी कि इतने सस्ते में निपट जाएगी। उसने ऊपर वाले को शुक्रिया अदा की और मन ही मन उसे लाख-लाख धन्यवाद देते हुए बुदबुदाई कि अच्छा ही हुआ कि उसे किसी ने आते-जाते नहीं देखा और न ही देख पाया कि उस सूने कमरे में वह क्या कुछ कर आयी है। अगर कोई देख लेता तो बवाल मच जाता। पुलिस बुलाई जाती। और उसे अरेस्ट कर लिया जाता। तरह-तरह के प्रश्न पूछे जाते और पूछे जाते मां-बाप के नाम और यह भी तो पूछा जाता कि किसके साथ उसके अवैद्य संबंध रहे हैं। अखबार वाले कब पीछे रहते? वे भी इस खबर को बढ़ा-चढ़ा कर प्रकाशित करते। चन्द घंटों मे यह मनहूस खबर लोगों के जुबान पर चढ़ जाती। पास-पड़ौस के लोग नाम-मुंह सिकोड़ने लगते। कानाफ़ूसी शुरु हो जाती। लोग भले ही सामने आकर इस बात को नहीं कह पाते,लेकिन आपस में कहा-सुनी शुरु हो जाती। कभी मां को दोषी ठहराते कि क्या बुढ़िया अंधी हो गई थी जो अपनी बेटी की काली करतूत नहीं देख पायी। पिता को कहा जाता कि बुढऊ करता क्या है दिन भर, कि वह अपनी बेटी पर नजर नहीं रख सका। जितने मुंह उतनी बातें बनाई जातीं। उसकी स्वंय की क्या दुर्गत होगी ? उसकी कल्पना मात्र से रुह कांपने लगी थी। वह कहीं की नहीं रहती। घर से बाहर निकला दूभर हो जाता। सहनशक्ति जवाब दे जाती। हृदयविदारक बातों को वह भला कब तक सुन पाती और एक दिन किसी नदी में डूबकर आत्महत्या कर लेती अथवा रेल की पांत पर जाकर अपनी ईहलीला समाप्त कर लेती। बात केवल यहीं तक आकर नहीं रुकती। अखबार वाले इस खबर को नमक-मीर्च लगाकर मुखपृष्ठ पर प्रकाशित करते। मोटे-मोटे अक्षरों में खबरें प्रकाशित होतीं कि कोई निर्मम मां अपने सध्यप्रसूत संतान को छोड़कर भाग गई। पुलिस केस तो बनेगा ही। इसकी घटना की खोज-खबर भी होगी, लेकिन उसका अपना कोई नाम इसमें नहीं जुड़ पाएगा। यह सोचते हुए उसने गहरी सांस ली और एक बार फ़िर ऊपर वाले को शुक्रिया कहा।

गर्भ में नौ माह तक बने रह कर उसने उसका घर-बार देखा है, बाप का घर भी देखा है, लेकिन बदली हुई परिस्थिति में अब वह यह दावा नहीं कर सकता कि इस बेतरतीब बसे शहर में वह उन जगहों तक पहुंच ही जाएगा। फ़िर उसने निश्चय किया कि वह अब कहीं नहीं जाएगा। न ही जन्म देने वाली उस मां के बारे में जानकारी ही उठाएगा, जो समाज के डर से उसे यतीम कर भाग निकली। अगर वह सचमुच में उसे अपना समझती होती तो इस तरह उसे अनाथ न कर जाती। इस तरह छॊड़कर जाने के पहले उसने तनिक भी नहीं सोचा कि मैं अब किसके सहारे जीवित रहूंगा। बिना मां के कोई बच्चा जीवित रहने की भला कैसे सोच सकता है? हो सकता है कि मैं मर ही जाऊं। नहीं…नहीं…मैं अब न तो उस नवयुवती के घर जाऊंगा और न ही उसे मां कहकर पुकारुंगा, क्योंकि एक मां होने का दर्जा उसने स्वयं छोड़ दिया है।

खून के रिश्ते का ध्यान आते ही उसकी आंख के सामने उस युवक का चेहरा डोलने लगा जिसके साथ वह नवयुवती अकसर आती–जाती रही है, जो उसके साथ कालेज में पढ़ता है। वह उस युवक के घर की स्थिति जानता है, जहां वह रहता है। वह इसी शहर के सिविल लाइन में एक कमरा किराये पर लेकर रह रहा है। उसके गर्भ में आते ही वह युवती उस युवक के कमरे में घबराई हुई सी पहुंची थी। कमरा अन्दर से बंद था। हल्की सी थाप से कमरा खुला। अपनी दिलरुबा को सामने पाकर वह खिल सा गया था। ” आओ।।अन्दर आ जाओ…काफ़ी दिन बाद आ रही हो? सब ठीक-ठाक तो है न! मैं अभी फ़ोन लगाने ही वाला था”। उसने धीरे से उसका हाथ पकड़कर बिस्तर पर बैठा लिया और गले में हाथ डालते हुए उसने एक भरपूर चुंबन लिया और आंखे नचाते हुए कहने लगा… तुम्हारी यादें हमें चैन से सोने नहीं देतीं।।रात-रात भर जागकर केवल और केवल तुम्हारे ही बारे में सोचते रहता हूं। फ़िर कान में फ़ुसफ़ुसाते हुए कहने लगा। बहुत दिन हो गए। कुछ हुआ नहीं” कहते हुए उसने उसे अपनी बाहों के घेरे में कस लिया था।

वह किसी हिमशिला सी जड़वत बैठी थी और उसकी आंखों से आंसू झरने लगे थे। आंखों में आसूं देखकर वह युवक दहल सा गया था। एक अज्ञात भय ने उसे अपनी लपेट में ले लिया था। लगभग भरभराई आवाज में उसने धीरे से पूछा-” क्या बात है? आखिर तुम रो क्यों रही हो? कुछ तो बोलो।।मेरा दिल जोरों से घबराने लगा है। बोलो…बोलो। आखिर क्या बात है, तुम्हें इस तरह निराश और हताश देखकर मेरा दिल बैठा जा रहा है। बोलो डार्लिंग कुछ तो बोले ?
“पन्द्रह दिन से ऊपर हो गए हैं ?”
“मैं समझा नही”
“हर माह की दस तारीख को बैठती हूं।।आज तीस हो गई। मुझे तो डर लगा रहा है कि कहीं मैं?”
युवक ने युवती के चेहरे को गौर से देखा। चेहरा देखकर उसने अन्दाजा लगाया। लगा कि वह सही बोल रही है” तो इसमे घबराने वाली कौन सी बात है?।

युवती को लगा कि शायद वह इस बात को गंभीरता से नहीं ले रहा है।
“यह मजाक का वक्त नहीं है। सचमुच में मुझे डर लग रहा है। कुछ गड़बड़ी तो निश्चित रुप से हुई है। मैंने तुम्हें मना भी किया था कि जल्दबाजी अच्छी नहीं, लेकिन तुम माने नहीं।”

“ओफ़ ओ…तुम भी न! इतनी छोटी सी बात में घबरा गईं। मैं हूं न! फ़िर डाक्टरी पढ़ रहा हूं। कल ही मैं तुम्हारे लिए टेबलेट्स लेता आउंगा। देखना…सब ठीक हो जाएगा।” चलो…अब थोड़ा सा मुस्कुरा भी दो “कहते हुए उसने उसके बहते हुए आंसूओं को अपनी हथेली से पोंछ डाला।

उसके चेहरे पर एक हल्की सी हंसी की किरण फ़ूटी और तत्काल बुझ भी गई।

“लो तुम फ़िर सीरियस हो गईं। अरे भई…माडर्न युग की बाला हो, माडर्न जैसी रहो। यही तो खाने और खेलने के दिन है। एक बार चक्की-चूल्हे से लग गए तो फ़िर किसे सिर उठाने की फ़ुर्सद मिलेगी?। उसके शरीर पर दबाव बनाते हुए उसने उसे बिस्तर पर लिटाना चाहा लेकिन वह बुत बनी बैठी रही।

“हम क्या, सभी जानते हैं, औरत और मर्द के मिलन से क्या होता है? क्या तुम इतना भी नहीं जानतीं? फ़िर इसमें डरने और घबराने वाली जैसी बात नहीं है। कल ही तुम टैबलेट ले लेना। सब ठीक हो जाएगा।

“मीठी-मीठी बातें करके फ़ंसाना तो तुम अच्छी तरह जानते हो। मुझ पर अभी क्या बीत रही है, इसकी कुछ परवाह है तुम्हें ? टेबलेट-वेबलेट से कुछ नहीं हुआ तो मुफ़्त में मैं मारी जाउंगी”

“ऎसा भी कहीं होता है कि दवा अपना असर नहीं बतलाएगी। अगर टेब्लेट से काम नहीं बना तो फ़िर एक इंजेक्शन काफ़ी है इस बला को टालने के लिए। तुम बिल्कुल भी फ़िक्र मत करो। मेरा कहा मानो और निश्चिंत हो जाओ। कल की चिंता से मुक्त होकर उन्मुक्त जीवन जिओ। कुछ नहीं होगा, मैं कह रहा हूं न !। अब तैयार भी हो जाओ।”

बातों ने अपना असर दिखलाना शुरु कर दिया था। दोनो के जिस्मों में एक तूफ़ान उठ खड़ा हुआ था। तेज गति से चलने वाले तूफ़ान ने मन के संयम को तिनके की तरह उड़ा दिया था।

परीक्षाएं दस दिन बाद शुरु होने वाली थी। युवती अपनी सहेली के यहां पढ़ने जाने के बहाने से घर से निकली और सीधे उस युवक के घर जा पहुंची। कांपते हाथों से उसने कालबेल पर अंगुली रखी। एक घनघनाहट के साथ घंटी बज उठी। युवक ने दरवाजा खोला। दौड़कर वह उसके सीने से चिपक गई और फ़बक कर रोने लगी। युवक इस अप्रत्याशित घटना से अनजान था। घबरा उठा। फ़िर उसके बालों में उंगलिया फ़ेरते हुए, उसे सांत्वना देने लगा -“रोओ मत…थोड़ा धीरज से काम लो…मैं हूं न! तुम्हारे साथ…” युवक ने हमदर्दी भरे शब्दों में कहा।

“धीरज…।धीरज…कैसा धीरज…तुम तो निश्चिंत होकर बैठे हो और यहां जान पर बन आयी है”

युवक खामोश खड़ा रहा। उसका रोना अब सिसकियों में बदल गया था।

“तुम तो कहते थे सब ठीक हो जाएगा… क्या ठीक हुआ… तुम्हारी गोलियां और इंजेक्शन भी कुछ नहीं कर पाए… अब तो छः महिने हो गए। पेट भी काफ़ी निकल आया है। ढीली ड्रेस भी कब तक लोगों की पारखी नजरों से कैसे बचा पाएगी… मां की नजरें मेरा पीछा करती रहती हैं लगातार। शायद उन्हें इस बात की आशंका भी हो गई हो। उन्होंने अभी कुछ कहा तो नहीं है, लेकिन उनका घूर-घूर कर देखना, इस बात का प्रमाण है कि हमारी चोरी पकड़ी गई है। आज नहीं ओ कल बात निकलेगी ही…क्या जवाब दे पाउंगी मैं…” सिसकते हुए उसने कहा।

“इस शहर में प्रायः हमारे सभी परिचित हैं। बात खुल जाएगी। ऎसा करो…किसी बहाने तुम दो दिन के लिए बाहर जाने के लिए मां की परमिशन ले लो। किसी बड़े शहर में चलकर रफ़ा-दफ़ा करके चले आएंगे। किसी को कानों काम खबर नहीं होगी” उस युवक ने कहा।

“अब कुछ नहीं हो पाएगा… कुछ भी नहीं। मेरी सलाह मानों तो हम किसी मंदिर में अथवा चर्च में चलकर शादी कर लेते हैं…।।एक बार शादी का ठप्पा लग जाएगा, फ़िर कोई क्या बोल पाएगा…तुम भी फ़्री और मैं भी”…भर्राए हुए शब्दों ने उसने प्रस्ताव रखा।

“शादी…यू मीन मैरिज…कैसे संभव है डार्लिंग… हम तो खैर कर लेगें… लेकिन मेरे डैडी और मम्मी इसके लिए कभी भी सहमत नहीं होगें। फ़िर मैं अपना धर्म नहीं बदल सकता।। तुम्हारे माता-पिता भी तो किसी और धर्म के लड़के से शादी की स्वीकृति नहीं देगें। बड़ी उलझन में डाल दिया तुमने…।” युवक ने कहा।

“बड़े बुजदिल और कायर इन्सान हो तुम…। ऎसा कैसे कह सकते हो तुम…।।मुझे अपने जाल में फ़ंसाने के पहले तुम्हें अपना दीन-धर्म याद नहीं आया और अब ऎसी बात कह रहे हो?

“थोड़ा धैर्य तो रखो डार्लिंग…मुझे सोचने के लिए दो-चार दिन की मोहलत तो दो” रिरियाते हुए उस युवक ने कहा।”

अब सोचने विचारने की कौनसी बात रह गई …जो भी करना है, जल्दी करो…शादी के अलावा अब कोई विकल्प बचा भी नहीं है हमारे पास। यदि तुम इनकार करते हो तो केवल और केवल एक ही रास्ता मेरे लिए बचता है कि मैं आत्महत्या कर लूं। क्या तुम ऎसा होते देख पाओगे? कहते हुए वह फ़बक कर रो पड़ी।

कमरा अन्दर से बंद था, लेकिन बाहर की आवाज छनकर अन्दर आ रही थी जिसके आधार पर वह अन्दर बैठा बाहर की गतिविधियों का आकलन तो कर सकता था। पर अब तक वह किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पाया था। बित्ते भर के उस भ्रून के दिमाक में उथल-पुथल मची हुई थी कि अब उसे क्या करना चाहिए ?। यदि वह वहीं पड़ा रहता है तो निश्चित ही हास्पिटक की नर्स की नजर में पड़ जाएगा। फ़िर वह उसकी मां की तलाश में जमीन-आसमान एक कर देगी। कमरे की बात पूरे परिसर में फ़ैल जाएगी। पुलिस आ धमकेगी। केस दर्ज किया जाएगा । फ़िर उस युवती का अता-पता की तलाश की जाएगी। अगर वह पकड़ी गई तो उसके घर वालों का जीना दूभर हो जाएगा। और न पकड़ी गई तो उसे लावारिश समझ कर किसी बच्चा पालु संस्था के सुपर्द कर दिया जाएगा, जहां उसे जीवन तो मिल जाएगा,लेकिन वह अंत तक बिन मां-बाप का बच्चा अर्थात लबरा ही कहलाएगा। यदि इसी तरह वह कमरे में पड़ा रहा और दुर्भाग्य से कोई उस कमरे में नहीं आया तो हो सकता है कि बिना आहार के उसकी जान ही चली जाएगी।

तभी उसके दिमाक में एक विचार आया कि क्यों न वह अपने पिता के घर चला जाना चाहिए। तभी किसी नारी कण्ठ की आवाज सुनकर वह चौकन्ना हो गया। नर्स शायद इसी ओर आ रही थी, उसने अनुमान लगाया। आवाज सुनते ही वह बेंच पर से उचककर दरवाजे की ओट में जाकर खड़ा हो गया।

चूं…चा…चर्र…चर्क… की आवाज के साथ दरवाजा खुला। सबकी नजरों से बचता हुआ वह फ़ुर्ती से बाहर निकल आया।

अंधेरी रात होने के कारण उसने अपने को सुरक्षित महसूस किया। सड़क पर चलते हुए वह उस रास्ते पर आहिस्था से अपने कदमों को रखता हुआ उस दिशा की ओर बढ़ने लगा था, जहां उसके पिता का घर था। अंधेरा होने के बावजूद उसने घर पहचान लिया था। दरवाजा अन्दर से बंद था। भीतर युवक और युवती आपस में बातें कर रहे थे। दरवाजा बंद होने के बावजूद अन्दर की आवाज उचककर बाहर तक आ रही थी। वह दरवाजे से सटकर खड़ा हो बातें सुनने लगा।

“तुमको न तो किसी ने अन्दर जाते देखा और न ही बाहर।निकलते देखा। सबकी नजरों से बचते हुए तुमने बड़ी होशियारी से वह सब कर दिखाया,जिसकी मुझे उम्मीद भी नहीं थी। गुड…वेरी गुड ”

“सबकी नजरों को हम धोका तो दे सकते हैं लेकिन ऊपर वाले के नजरों से कैसे बच सकते हैं? हमने छिपकर जो पाप किया उसे कोई नहीं जान पाया,लेकिन उसकी नजरों में हम चोर ही हुए न !।”

“ये पाप।।पुण्य की बात मत करो…इसके चक्कर में हम रहते तो जानती हो कितना क्या कुछ झेलना पड़ता इसका अन्दाजा है तुम्हें। चलो, अच्छा ही हुआ कि सस्ते में निपटे।”
“सो तो है…लेकिन बच्चा बहुत प्यारा था। गोल मटोल, गोरा-गोरा, बड़ी-बड़ी प्यारी-प्यारी सी
आंखे, लरजते होंठ, वजन भी उसका कम से कम दस-बारह पौण्ड से कम न रहा होगा। इतने प्यारे बच्चे से जुदा होने को मन ही नहीं कर कर रहा था। फ़िर जल्दबाजी में मैं उसे दूध पिलाना भी भूल गई। ऎसा न हो कि बेचारा भूख के मारे दम ही तोड़ दे”।

“छोड़ो भी अब इन सब बातों को…”

“तुम पुरुष हो न ! नहीं समझोगे इन बातों को और न ही जान पाओगे कि ममता क्या होती है। मैं समझ सकती हूं क्योंकि मैंने उसे जनमा है…उसे अपनी कोख में पाला है। बस ईश्वर से एक ही प्रार्थना करती हूं कि बेचारा बच जाए। नहीं जानती वह किस यतीमखाने में परवरिश पाएगा ?। क्या तुम कुछ नहीं कर सकते उसके लिए?”।

“देखो…मैं तुम्हारी भावनाओं को समझ रहा हूं। समझ रहा हूं कि तुम पर कैसी क्या बीत रही है, लेकिन हम भावनाओं में बह गए तो मुसिबत बन जाएगा वह हमारे लिए।? क्या तुम आने वाली मुसिबतों का सामना कर पाओगी…? नहीं न !”

“अच्छा तो अब मैं चलती हूं “।

दरवाजा खुलने की आवाज सुनते ही वह दीवार से चिपक गया। नवयुवक युवती को छोड़ने कुछ दूर तक गया। इसी का फ़ायदा उठाते हुए वह चुपके से कमरे में प्रवेश करते हुए सोफ़े पर जाकर बैठ गया। युवक ने जैसे ही कमरे में प्रवेश किया उसने वहीं से बैठे-बैठे कहा- “गुड मार्निंग डैड…वेरी गुड मार्निंग। पहली बार मिल रहे हैं न हम ! अतः गुड मार्निंग कहना जरुरी था।”

इस अप्रत्याशित घटना से युवक बुरी तरह चौंक गया था। वह समझ नहीं पा रहा था कि बंद कमरे में कौन अन्दर घुस आया है? कमरे में नाईट बल्ब अपनी सीमा और सामर्थ के अनुसार उजाला फ़ेंक रहा था। उसने आंखे मिचमिचाते हुए उसने कमरे का निरेक्षण शुरु किया। दस-बारह इंच का हाड़ के पुतले को वह नहीं देख पाया था। तभी उसने एक बार अपने शब्दों को दुहराया-“वेर गुड मार्निंग डैड…मैं यहां सोफ़े पर बैठा हूं।”

“गुड मार्निंग…लेकिन तुम हो कौन और मेरे कमरे में कैसे घुस आए? झल्लाते हुए उसने कहा।
“लो अब आप अपने ही खून को नहीं पहचान पाए ? मैं आपका बेटा……जिसे कठोर दिल वाली मेरी मां ने मुझे जनमते ही अस्पताल में छोड़ दिया और भाग निकली। फ़िर पलटकर तक नहीं देखा कि मैं किस हाल में हूं”।

“तुम यहां आए कैसे ?

“वेरी सिम्पल…चलकर आया और कैसे। अरे आप तो बच्चों की सी बातें करने लगे। एक बेटा अपने पिता के यहां नहीं जाएगा तो फ़िर कहां जाएगा?

“मेरा कोई बच्चा-वच्चा नहीं है। चलो…भागो यहां से”

“फ़िर कहां जाउं?”

“जहन्नुम में और कहां”

“वैसे तो आप दोनों ने मुझे जहन्नुम भेजने के लिए कितने ही प्रयास किए।।क्या सफ़ल हो पाए? नहीं न! फ़िर वहीं भेजना चाहते हैं?”

“तुम भागते हो की नहीं……नहीं तो तुम्हें पकड़ कर बाहर फ़ेंके दिए देता हूं”। कहकर युवक उसके पीछे दौड़ा। वह कभी बिस्तर के नीचे, तो कभी सोफ़े के पीछे, तो कभी बुक सेल्फ़ के पीछे छिपते हुए उसे छकाते रहा। इस भाग-दौड़ में उसका दम फ़ूलने लगा था। एक नन्ही सी जान, आखिर भागता भी तो कितना ? उसे इस बात का भी डर सताने लगा था कि कहीं वह उसके हाथ लग गया तो संभव है कि गर्दन न मरोड़ दे। दरवाजा अधखुला था। भाग निकलने का एक ही उपाय था। उसने दौड़ लगा दी और सड़क पर आ गया। बाहर छाए अन्धकार का उसे फ़ायदा मिल गया। वह एक बड़े से पत्थर की आड़ में जा छिपा। युवक ने उसे यहां वहां ढूंढा, लेकिन इसे खोज नहीं पाया और उलटे पैर वापिस लौट आया।

पत्थर की ओट में देर तक सुस्ताते रहने के बाद उसे भूख भी लग आयी थी। उसकी भूख केवल मां के दूध से ही शांत हो सकती थी। तभी उसे युवक और युवती के बीच चल रही बात का एक सिरा पकड़ में आया। वह कह रही थी कि उसे दूध पिलाना भूल गयी। इतका मतलब साफ़ है कि उसे मेरी चिंता है। अब केवल एक ही रास्ता बचता है कि युवती के यहां जाना चाहिए। उसने फ़ूर्ती से कदम बढ़ाए और उस ओर चल पड़ा, जिस ओर वह रहती थी।

अन्धकार होने के बावजूद उसने घर पहिचान लिया था।

दरवाजा अधखुला था। बिना कोई शोरगुल किए उसने कमरे में प्रवेश किया। अन्दर तीखी बहस चल रही थी। एक सोफ़े पर एक उसके नानी बैठे हुए थे। हाथ बांधे दो नवयुवक खडे थे, जो रिश्ते में उसके मामा थे, दो नवयुवतियां कड़ी थी, जो रिश्ते में उसकी मौसियां थी और दीवार से सिर टिकाए वह युवती थी, जिसके गर्भ में वह नो माह तक रहा था। एक ओर दुबककर खड़ा होकर वह बातें सुनने लगा।

“ये कुल्छ्छनी है पिताजी…इसका गला घोंट देना चाहिए”। बेटा बोल रहा था।

“इसने तो हम सब की नाक काट कर रख दी। इसे इतनी कड़ी सजा दी जानी चाहिए कि कई जनमों तक याद रहे”। दूसरा बेटा बोला।

“अब हम दो बहने घर से बाहर कैसे निकल पाएंगी पिताजी ? हर कोई हम पर उंगली उठाएगा कि ये तो उसकी बहने है, निश्चित ही ये भी वैसी होगी जैसे की इनकी बड़ी बहन है। लोग हमको बुरी नजरों से देखेगें और हमारी इज्जत पर हाथ डालने से नहीं चूकेगें। इसे फ़ौरन अपने घर से निकाल दीजिए”। एक बहन बोली थी।

पिता अवाक थे। क्या बोले, क्या न बोले, क्या निर्णय करें, कैसे निर्णय करे। उनके इंसान के तराजू के पल्ले ऊपर-नीचे हो रहे थे…।वे किमकर्त्व्यविमूढ़ बैठे हुए थे। आंखों से आंसू झरझराकर बह रहे थे। मां ने अपना सिर पल्लु में ढंक लिया था। शायद वे सोच रही होगी कि किस मनहूस घड़ी में मैंने इसे जना था। कुछ भी कुछ बोल पाने की स्थिति में नहीं थी।

किसी अपराधी की तरह दीवार से सिर टिकाए युवती खड़ी थी। उसने उसे पहचान लिया था। पहचानता कैसे नहीं? गर्भ में जो पूरे नौ माह रहा था। बित्ता भर के होने के नाते किसी की भी नजर उस पर अब तक नहीं पड़ी थी। देर तक खड़े रहने से उसकी टांगों में दर्द होने लगा था। भूख भी जोरों से लग आयी थी। हलक सूखने लगा था। “और देर तक यूंहि खड़ा रहा तो संभव है जान भी चली जाएगी। इन्हें लड़ना झगड़ना है तो झगड़ते रहें, इससे उसे क्या…उसे तो तत्काल दूध चाहिए भूख मिटाने के लिए”

उसने तत्काल निर्णय लिया और तन कर सबके जाकर खड़ा हो गया। विनम्रता से उसने बारी-बारी से सबको प्रणाम करते हुए बोला। ” नानाजी- नानीजी, आप दोनों को प्रणाम, मैं आपका नाती…। दोनो मामाऒं को प्रणाम… मैं आपका भांजा और दोनों मौसियों को प्रणाम… मैं आपका भतीजा… मैं सबके सामने खड़ा हुआ हूं। आप आपस में खूब लड़िए।।झगड़िए…इससे मेरा कोई लेना-देना नहीं। मुझे तो सबसे पहले अपनी मां से मिलना है, जो जल्दबाजी में मुझे अनाथ कर भूखा छोड़ आयी थी” कहते हुए उसने दौड़ लगाई और अपनी मां के पैरों से जा चिपका। युवती ने फ़ौरन उसे उठाकर अपने सीने से चिपका लिया फ़िर सरपट दौड़ लगाते हुए कमरे में जा समाई और फ़ौरन दरवाजे की कुंडी चढ़ा दी।

बिस्तर पर लेटते हुए उसने ब्लाउज के हुक खोल दिए और अपने बेटे का मुंह स्तनों ले लगा दिया।।ऎसा करते हुए उसे अपार सुख की प्राप्ति हो रही थी और वह वह चुकुर-चुकुर करते हुए दूध पीने लगा था।

वह यह नहीं जानता और न ही जानना चाहता है कि लोग-बाग उसकी मां को कुलच्छनी, कुलटा, कुलघाती, बेशर्म, बेहया आदि कहकर बुलाते होंगे। वह तो केवल और केवल इतना भर जानता है कि उसने अपने गर्भ में मुझे नौ माह पाला है और मुझे जना है। वह उसकी अपनी माँ है। हा!, वह उसकी अपनी माँ है।

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