ज़िन्दगी की उलझनों से, हम मजबूर हो गए !
अब हर किसी की नज़र से, हम बेनूर हो गए !
कभी सोचा था कि चलना ही ज़िन्दगी है यारा ,
मगर सफर के हालात से, हम मजबूर हो गए !
मांगे बिना ही मिल गयीं तन्हाईयाँ तो हमको,
मगर दुनिया के रंग साजों से, हम दूर हो गए !
हम तो आदी थे अपनों की भीड़ के अब तलक,
मगर दिल के फासलों से, हम मजबूर हो गए !
उपदेश तो देते रहे खुश रहने का और सब को,
पर खुद के लिए इस काम से, हम दूर हो गए !
उम्र के हर पड़ाव पर हम तो मुस्तैद थे “मिश्र”,
पर अपनों के नुकीले तीरों से, हम चूर हो गए !