हमें तो हर वफ़ा में, बेवफ़ाई सी लगती है
अब तो अच्छी बात भी, बुराई सी लगती है
जब मिलती हैं सजाएँ, बिन ख़ता के यारो,
तो दिल को हर चीज़, पराई सी लगती है
कुछ कहें तो लोग, समझते बग़ावत हमारी,
पर बंद मुंह रखना, जगहंसाई सी लगती है
अब रुक के इस महफ़िल में, क्या करें हम,
इधर तो हर नज़र ही, कसाई सी लगती है
नहीं है हमें यक़ीं, अब तो किसी पे भी यारो,
हमें तो साफ़ जल में भी, काई सी लगती है
न मिलता है कोई भी इधर, अच्छा सा दोस्त,
अब हर किसी के अंदर, खटाई सी लगती है
वैसे अकेले नहीं हैं हम, इस दुनिया में ‘मिश्र’,
अब हमें तो हर आत्मा, सतायी सी लगती है