writer munshi premchand

क्यों न फिरदौस को दोज़ख़ से मिला दें या रब,
सैर के वास्ते थोड़ी-सी फ़िज़ा और सही।।
ग़ालिब

मुंशी प्रेमचंद या ऐसे अनेक रचनाकारों को आज आधुनिकतावाद के इस महामारी की चपेट में बैठे-बिठाए कोरोना पॉज़िटिव घोषित किया जा रहा है क्योंकि ऐसी घोषणा करने वाले ये वही डॉक्टर और प्रोफेसर लोग हैं जो अपने वाद-विवाद से घर में रोटी के लिए साहित्यिक आटा गीला करते रहते हैं। कुछ विद्वान तो खुले मंचो से ये काम करते हैं तो कुछ अंधे साहित्यिक कानून के प्रतिमानों को तोड़ती हुई अदालत के कटघरे में खड़े होकर ,जहाँ आदमी मुक़दमे की बहस में ही अपनी सारी ज़िन्दगी जीता रहता है। मग़र आज सबसे ज़्यादा बाज़ारवाद निज़ी तौर पर लाइव आकर ही अपनी शक्तिशाली और ताक़तवर विचारधारा को तेज करने में लगा है जैसे कि आपस में एक होड़ हो। दरअसल मज़ेदार बात ये भी है कि सवाल के ज़वाब भी लोग अपने-अपने तरीकों से निष्पक्ष होकर नहीं दे रहे हैं और कुछ हैं भी तो उसे पढ़ सुनकर और समझकर तो यही लगता है कि अब तमाम ऐसे लेखकों या उनकी रचनाओं का क्या होगा? जो हिंदी के अमूल्य धरोहर हैं। जबकि किसी के कहने से कुछ नहीं होता। इतिहास लिखने वालों का होता है। ये सभी जानते हैं।
ऐसे लेखकों का विपुल साहित्य प्रत्येक चेतना का इतिहास है। जिनका सौंदर्यशास्त्र इतना समृद्ध है कि अगर आप एक बार पन्ना पलट के देख लें तो आपको अपनी छाप ही दिखाई देगी। ख़ैर, साहित्य और पाठक का अपना सम्बन्ध होता है लेकिन सम्बन्धों के आधार पर न्याय का निष्पक्ष न होना ये ग़लत है।आप किसी भी साहित्य साधना को यूँ ही कूड़ा करकट नहीं कह सकते। किसी साहित्यकार को सुपारी किलर नहीं कह सकते । भाषा की अपनी मर्यादा होनी चाहिए। ये अलग बात है कि साहित्यिक सिनेमा की भाषा इस मर्यादा को बार बार तोड़ने की कोशिश करती है, जिससे कि बचना चाहिए।

katha samrat

बहरहाल प्रेमचंद वैश्विक हिंदी साहित्य के अकेले ऐसे कथाकार हैं जिन्हें उनके पाठक कभी सम्राट तो कभी सिपाही तो कभी मज़दूर से सम्बोधित करता है। काशी में जिस समन्वय की साधना को मध्यकाल में फ़क़ीर कबीर और गोस्वामी तुलसीदास कर चुके थे उसे ही आधुनिक काल में मुंशी प्रेमचंद कर रहे थे और वह भी धोती कुर्ता पहन के कोई सूट बूट नहीं। लमही गाँव में रहकर शहर के ए. सी. वाले कमरे में बैठ के नहीं। और शायद यही कारण भी है कि उनके लेखन शुरुआत सबसे पहले उर्दू भाषा से होती है। सोजे वतन का नाम कौन नहीं जानता जिस पर प्रतिबंध सरकार ने लगाया था। आप इससे ही उनकी कलम की स्याही और शब्दों के आग की लपट का अंदाज़ा लगा सकते हैं। प्रेमचंद का साहित्य इतना सपाट और सरल है कि कोई भी पढ़ सकता है और पढ़े पढ़ाये जाते भी हैं। प्रेमचंद जिस समय,समाज और मूल्य को लिख रहे थे वह आज से बिल्कुल ही अलग था ये भी हम जानते ही हैं। आज़ादी के पहले का वो दौर जब गांधी जी भी लोक की तरफ़ रुख़ कर रहे थे मतलब राजनीति भी नगरों से शहरों से लोकोन्मुख हो रही थी और इतना ही बल्कि आधुनिकतावाद के साथ साम्यवाद, समाजवाद, छायावाद या रहस्यवाद, और प्रगतिवाद न जाने कितने वाद हिंदी साहित्य में आ चुके थे। ऐसे में प्रेमचंद प्रगतिशील साहित्य की मशाल जलाकर राजनीति को रास्ता दिखा रहे थे। वो चाहते तो जयशंकर प्रसाद की तरह इतिहास भी लिख सकते थे लेकिन उन्होंने वर्तमान को चुना और वह भी उपेक्षित वर्तमान को, चाहे वो किसानी जीवन के सवाल का वर्तमान हो या किसी ज़मीदार,साहूकार का ज़वाब का वर्तमान । चाहे वो किसी दलित का शोषित जीवन का वर्तमान हो या चाहे स्त्री के चारित्रिक मन का वर्तमान, सबको शब्दों में पिरोया है। उन्होंने सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, निर्मला, गबन, कर्मभूमि, गोदान आदि लगभग डेढ़ दर्जन उपन्यास तथा कफन, पूस की रात, पंच परमेश्वर, बड़े घर की बेटी, बूढ़ी काकी, दो बैलों की कथा आदि तीन सौ से अधिक कहानियाँ लिखीं है। महाजनी सभ्यता उनका अंतिम निबंध, साहित्य का उद्देश्य अंतिम व्याख्यान, कफन अंतिम कहानी, गोदान अंतिम पूर्ण उपन्यास तथा मंगलसूत्र अंतिम अपूर्ण उपन्यास माना जाता है। १९०६ से १९३६ के बीच लिखा गया प्रेमचंद का साहित्य इन तीस वर्षों का सामाजिक सांस्कृतिक दस्तावेज है। उनमें दहेज से लेकर अनमेल विवाह, पराधीनता, लगान, छूआछूत, जाति भेद, विधवा विवाह, आधुनिकता, स्त्री-पुरुष समानता, धर्म सुधारक,वकील,डॉक्टर,राजनीतिज्ञ,नेता,साधु,चोर,पुलिस,क्लर्क, विद्यार्थी, परिवार,दोस्ती, बाप बेटे के रिश्ते तक उस दौर की सभी प्रमुख समस्याओं की तस्वीर मिलती है।

इस बात कहते हुए मुझे ये भी स्वीकार कर लेना चाहिए कि मैं प्रेमचंद का कोई आलोचक नहीं बल्कि उनका पाठक हूँ। प्रेमचंद पर बड़े से बड़े आलोचकों ने लिखा है जैसे रामविलास शर्मा,नामवर सिंह,शिवकुमार मिस्र,यहाँ तक कि कमलकिशोर गोयनका जिन्हें विष्णु प्रभाकर और मधुरेश प्रेमचंद के गोयनका मानते हैं।गोयनका जी तो प्रेमचंद पर काम करते हुए ही जीना चाहते हैं। इसीलिए कह रहा हूँ मैं तो सिर्फ़ उनका पाठक हूँ। गोयनका जी ने कहा है कि सार्थकता का प्रश्न व्यक्ति के लिए तभी तक है जब तक वह जीवित है, अन्यथा मृत्यु के बाद तो उसकी सार्थकता समय और समाज तय करता है। अतः प्रेमचंद की सार्थकता कालजयी है और वे सम्पूर्ण वैश्विक हिंदी के आत्मा के कथाकार हैं।
मैंने प्रेमचंद के उपन्यासों को उतना नहीं पढ़ा है जितना उनकी कहानियों को पढ़ा है। और कहानियों को पढ़ते हुए मुझे बार बार ये अनुभूति होती रही है कि कितना कमाल का लेखन है प्रेमचंद का कि हर वर्ग का हिंदी पाठक बिना उन्हें पढ़े अपनी हिंदी की यात्रा पूरी नहीं करता है। ये इसलिए भी कि इनकी कहानियों का अपना अलग ही आनंद होता है क्योंकि इसमें उस प्रकार का आनंद नहीं मिलता है जिस प्रकार से किसी कविता में या किसी नाटक या निबंध में या उपन्यास जैसी अन्य किसी विधा में मिलता है। अब यहाँ आनंद कह रहा हूँ तो वही आनंद स्वरूप ब्रह्म कह रहा हूँ जिसे तैतरीय उपनिषद में रसो वै सः संबोधित कर परिभाषित किया गया है कि वही रस है। और हम इतना तो जानते ही हैं कि कविता में कहानी तो होती है लेकिन कहानी में कविता नहीं होती, इसके पीछे का तर्क ये है कि दोनों का स्वभाव ही स्वरूपगत विधा से एक पद्यमय है तो एक गद्यमय है । ख़ैर,रास्ते के अलग हो जाने से मंज़िल की ख़ूबसूरती भी राही को उतना ग्राह्य नहीं लगती जितना उस मंज़िल के सटीक रास्ते से जाकर लगती है। फिर भी अपनी अपनी मंज़िल अपना अपना सफ़र लोग सुनिश्चित करते ही रहे हैं वरना इतनी सारी विधाओं का जन्म कैसे होता ? फिर कैसे कोई भारतेंदु बनता कैसे कोई रामचन्द्र शुक्ल या फिर प्रेमचंद। प्रत्येक रास्ते के सफ़र का आनंद उसका अपना आनन्द है। अब आप चाहे कोई कहानी का सफ़र तय करें या कविता का,उसका अपना आनंद जरूर मिलेगा। अतः मैं फिर कहना चाहता हूँ कि इन्हीं अलग अलग रास्तों की भाँति कहानी का भी अपना आनंद होता है। जब मैं प्रेमचंद की कहानियों को पढ़ता हूँ। यहाँ इस कथन के बहाने कि कहानी का अपना आनंद होता है,मैं कुछ साबित तो नहीं लेकिन हाँ कहानियों को पढ़ने की कोशिश जरूर करता रहा हूँ। अब ये अलग बात है कि हाल के कुछ वर्षों में भी मन कहानियों की तरफ़ कम आकृष्ट हुआ है। फिर भी इतना जरूर पढ़ते रहा हूँ कि आधुनिक विर्मश के कुछ सवाल कहानियों के माध्यम से मुझे मिलता रहे। फिर चाहे वो विमर्श दलित का हो,दिव्यांग का हो,आदिवासी का हो ,स्त्री का हो या फिर जेंडर का। और आज ऐसे में जब कहानियां जहाँ इतने सारे प्रश्न खड़ा करती हों वहां मुझे कहानी सम्राट प्रेमचंद ही सर्वप्रिय लगते हैं और मैं उनकी कहानियों के पन्ने पलटना शुरू कर देता हूँ। अब प्रेमचंद पसन्द भी किसे नहीं हैं, कुछ हैं भी तो उनका नाम नहीं लेना चाहता।आप इतने से समझ जाएंगे कि उन्हें प्रेमचंद की कुछ कहानियां कूड़ा करकट समझ में आती हैं। ख़ैर उनकी अपनी राय है और ये सब तो साहित्य में मठाधीश करते ही रहते हैं और शायद इसलिए साहित्य इतिहास की इसी तरह की गतिविधियों का एक नाम भी कहलाने लगा है। जिसमें कितना कुछ है जो इस तरह से भरा पड़ा है। हाँ, ये अब अलग बात है कि कोई भरने में कूड़ा कचरा कैसे भर सकता है लेकिन मुझे जहाँ तक लगता है कि उन कहानियों के पन्ने ना पलटने से पढ़ने वाले की क़िताब को आज की तारीख़ में फंगस लग गए हों। मग़र कौन समझाए कि क़िताब में फंगस लगने से उसमें छपी कहानियों को फंगस नहीं लगता और ना ही वो कूड़ा कचरा हो जाती हैं।

premchand

दरअसल मेरी चोट ये है कि प्रेमचंद की जिन दस पंद्रह कहानियों को मैंने पढ़ी है उन कहानियों के माध्यमों से मेरे मनोविकार दूर ही हुए हैं और मैं सन्तुष्ट ही होकर लौटा हूँ। अब कफ़न कहानी के बुधिया की कराहती आवाज़,पूस की रात का सन्नाटा और बड़े घर की बेटी का संयुक्त परिवारों में होने वाली कलहों, समस्याओं से मैं बराबर उद्वेलित होता रहता हूँ। साफ़ कहूँ तो जब भी मुझसे करुणा विस्मृत होती है मैं प्रेमचंद की इन कहानियों को उठा लेता हूँ। और पढ़कर   मन शांत कर लेता हूँ। अभी कुछ दिनों पहले ही इसी कोरोना काल में उनकी लिखित कहानी रामलीला का पाठ भी किया था। कहना ये भी चाहता हूँ कि जो लेखक होता है वो दूसरे लेखक के शब्द प्रयोग के श्रम संवेदनशीलता का अंदाज़ा तो लगा ही सकता है। और प्रेमचंद तो मजदूर हैं सिपाही हैं प्रगतिशील श्रमिक हैं। देश,काल,परिस्थितियों के लेखक हैं। कथाकार हैं।
मैं ये बात मोदी जी की तरह किसी दिन अचानक रात के 8 बजे आकर लाइव भी कह सकता हूँ। इसके पीछे मेरे पास तर्क भी बहुत हैं क्योंकि मैं कोई फेकू तो बिल्कुल भी नहीं हूँ। लेकिन फिर भी अग़र लिखने से काम चल जाय तो इससे प्रामाणिक और क्या चीज़ हो सकती है। और ये भी जानते हुए कि अब पढ़ने वाले कम हैं बोलने वाले ज़्यादा तो एक मलाल के साथ फिर ये स्पष्ट करता चलूँ कि मैं प्रेमचंद,नामवर सिंह और रामविलास शर्मा जी की उस बहस में बिल्कुल ही नहीं जाना चाहता जो इस कोरोना काल में हुए, कुछ लाइव व्याखानों के माध्यम से हुई है। फिर भी समझने वालों की अपनी सदबुद्धि।
बहरहाल,मैं तो बस पढ़ने की कोशिश कर रहा हूँ प्रेमचंद की उन कहानियों को जो सिलेबस में भी पढ़ी पढ़ाई जाती हैं और इतर भी। मालूम ही है कि उन्होंने लगभग 300 सौ से अधिक कहानियां लिखी हैं। फिर भी एक एक कहानी पर एम.फील और पीएच.डी. तक करने वाले विद्वान या स्वतंत्र शोध अध्येताओं के पन्ने पलट के देखें तो कुछ कहानियों को प्रेमचंद की प्रतिनिधि कहानियों के साथ ही साथ कहानी के उद्भव और विकास में बिना पिलर बनाये और मानक बनाये कहानियों का आनंद कोई भी साहित्य पाठक या साहित्योत्तर पाठक ना ही पा सकता है ना ही समझ सकता। मैं इससे थोड़े दूर जाकर कहूँ तो प्रेम जब समग्रता को धारण करता है तो उससे जुड़ा हर वो कोई छोटे से छोटा अंग अपनी उपादेयता को सिद्ध करता हुआ नज़र आता है। सफ़र प्रेम का फिर सुहाना हो जाता है सरल हो जाता ।तेज धूप भी बौछार की बारिश लगती है। आप अंदर तक सिहर जाते हैं। रास्ते में बहुत कुछ मिलता दुःख से लेकर सुख तक। घर से लेकर बाज़ार तक, बाज़ार से लेकर घर तक। और ये सब तब होता है जब आप प्रेमचंद की कहानियों का सफ़र तय करते हैं। प्रेमचंद तो छोटे बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक की कहानी लिखते हैं। इस जिंदगी की बेगारी, लाचारी, दर्द,अलगाव,समन्वय का पीड़ा, ग़ैर बराबरी का सवाल किसे नहीं लिखा है। बल्कि सच तो ये है कि 1915 से 1936 ई. के बीच की ये कहानियां उन्हें आईना दिखाती हैं जिनके चेहरे पर ये ग़रीबी, भूख, तंगहाली और तो और पूस की रात की ठिठुरन व झोपड़ी में कराहती बुधिया एक दाग़ बनकर दिखाई देती हैं। अतः प्रेमचंद के साहित्य से समाज का आईना नाराज़ होगा ही। भले उसे परदा लगा के क्यों न काम करना पड़े। इसलिए अब अग़र इन कहानियों का अपना आनंद है तो कहानियों का अपना आंनद होता है।
अइये अब कुछ एक कहानी को पढ़ते हुए विस्तार से न सही संक्षिप्त ही सही कहानियों का आनंद लेते हैं,कहानी के मूल संवेदना और शिल्प को ध्यान में रखते हुए।
पहली कहानी जो मैंने पढ़ी है वह है ईदगाह,जिसके बहाने प्रेमचंद हामिद और उसकी दादी की कथा कहते हैं सुनाते हैं। यह कहानी संवेदना के स्तर पर बड़ी ही मार्मिक कहानी है। शिल्प भी बहुत छोटा है। हामिद की मनोदशा को पढ़कर मैंने भी कई बार चाहकर कुछ काम नहीं किये हैं। माँ की सुविधा के लिए कुछ समान खरीदें हैं। अग़र आपने भी कभी ऐसा किया है तो वह प्रेमचंद की कहानी का ही असर होगा। जहाँ तक मुझे महसूस होता है। हामिद भले ही उम्र में और कद में छोटा है लेकिन उसके विचार बड़े ही तर्कसंगत, सुसंगत और विवेकसम्मत नज़र आते हैं। ये हो भी क्यों न प्रेमचंद जो लिख रहे थे।
लेकिन दूसरी कहानी कफ़न जो आख़िरी भी है उस पर बातचीत जरूरी समझता हूँ। जो संवेदना और शिल्प की दृष्टि से बेजोड़ कहानी है । जिसके कथानक में घीसू और उसका बेटा माधव जो झोपड़ी के द्वार पर अलाव के सामने आलू के पकने का इंतज़ार कर रहे हैं और अंदर माधव की स्त्री बुधिया प्रसव पीड़ा से पछाड़े खा रही है। जिसके लिए माधव का कहना है कि ‘मरना ही है तो जल्दी मर क्यों नहीं जाती? देखकर क्या करूँ।’ माधव फिर घीसू से कहता है कि तुम्हीं क्यों नहीं देख आते तो श्वसुर की मर्यादा का उल्लेख करते हुए घीसू कहता है कि ,”उसे तन की सुध भी नहीं होगी?मुझे देख लेगी,तो खुलकर हाथ पांव भी न पटक सकेगी।” कामचोर और आलसीपन के प्रतीक पुरुष हैं दोनों। आलू ख़ाकर वहीं दोनों सो गए और सबेरे माधव ने स्त्री को मरा पाया। फिर कफ़न के लिए ज़मीदार से मिले दो रुपए,तथा बनिये और महाजन से मिले कुछ पैसे मिलाकर पाँच रुपये से बाजार में कफ़न न ख़रीदकर शराब की बोतल खरीदकर पीते हैं। पीने के बाद घीसू कहता है..कफ़न लगाने से क्या मिलता ?आख़िर जल ही तो जाता है।’ और अन्य सब लोगों का ज़वाब भी खोजते हैं कि..कह देंगे कि रुपये कमर से खिसक गए।वही लोग फिर से रुपये दे देंगे। फिर दोनों वहीं गाने गाते हुए कि…”ठगनी क्यों नैना चमकावे!ठगनी!,” नाचकर अंत में वहीं बेहोश गिर पडते हैं।
katha samrat
कफ़न कहानी पूरी दर्दपूर्ण तथा रहस्यात्मक शीर्षक लिए हुए है। भाषा सरल एवं सरस है ही। संक्षिप्त घटनाएं संक्षिप्त विवरण के साथ हैं ही। संवाद छोटे और भावमय है ही।कुल मिलाकर मानव-जीवन के आंतरिक संघर्ष -अंतर्द्वंद चित्रण करती हुई मुक़म्मल कहानी है। इस कहानी की एक सबसे बड़ी विशेषता ये भी है कि इसके पात्र ही सब कुछ कह रहे हैं,लेखक को व्याख्या विश्लेषण अधिक नहीं करना पड़ रहा है। सवाल तो कहानी के शीर्षक से ही शुरू हो जाता है कि कैसा कफ़न,किसके लिए कफ़न की बात है। इसलिए यह कहानी लगभग सभी कहानी तत्वों के दृष्टि से सम्पूर्ण है, मुक़म्मल है ।फिर वो कथावस्तु,पात्र,संवाद,देशकाल-परिस्थिति,वर्णन -शैली और उद्देश्य आदि ही क्यों न हों। इसलिए कहानी एक ऐसा उद्यान नहीं जिसमें भांति भांति के फूल,बेलें सजी हुई हैं,बल्कि वह ऐसा बगीचा है,जिसमें एक ही गमले का माधुर्य अपने समुन्नत रूप से दृष्टिगोचर होता है। इसलिए मुझे लगता है कि कहानियों का अपना आनन्द होता है। इसलिए हिंदी साहित्य के कहानियों के बाग़ के माली को कथाकार को उनके जन्मजयंती पर मैं प्रणाम करता हूँ नमन करता हूँ।
धन्यवाद!

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