Mushi Premchand and cinema
पिछले एक सप्ताह से एक ऐसे विषय पर लिखने की जद्दोजहद में लगा रहा कि दिन-रात कैसे बितते रहे, पता ही नहीं चल रहा था। इसी उधेड़बुन में लिखते हुए न जाने कितने पन्नों को रफ़ करते हुए फाड़ डाला, शायद विषय की गंभीरता को मैंने हल्के में ले लिया था और जब लिखने बैठा तो प्रतीत हुआ कि मैं अपने अल्पज्ञता से ‘गागर में सागर’ समाहित करने का प्रयत्न कर रहा हूँ। और इसी क्रम में अपने हठ के आगे झुकना भी स्वीकार नहीं कर सका। स्वयं से हो रहे इस वार्तालाप के साथ-साथ मेरी अनेक शिक्षाविदों और विषय के महारथियों से भी चर्चा होती रही। जिसमें प्रमुख रुप से महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष आदरणीय प्रोफेसर सूरज पालीवाल सर, दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी के शोधार्थी एवं मेरे परम मित्र ध्रुव जी, दिल्ली विश्वविद्यालय के ही नीरज चिलवर  (प्रेमचंद की तीन कहानियों पर बनी फ़िल्म में एम.फिल किया है) तथा मेरी सदा की मार्गदर्शिका, मेरी दीदी दर्शना कुमारी (यद्यपि अर्थशास्त्र विषय से डी. फील तथापि हिंदी की प्रशंसक एवं स्वयं को हिंदी में अल्पज्ञ मानती हैं फिर भी मुझे इनसे बहुत कुछ सीखने को मिलता है) हैं। सभी ने अपने-अपने सुझाव नोट्स तथा अपने कृतियों का पी.डी.एफ. तक भेजा। एक लंबी चर्चा परिचर्चा के बाद हमारा शीर्षक अंततः तय हुआ। “प्रेमचंद और सिनेमा” शायद यही मैं ढूंढ़ रहा था।
  इस शीर्षक के माध्यम से मैं इस तथ्य को स्पष्ट करना चाहता हूँ कि हिंदी साहित्य के इस धुरंधर की जीवन यात्रा के साथ-साथ उनके मूल नाम “धनपत राय” से “प्रेमचंद” बनने तक का सफर तथा उनके  रचनाओं का सिनेमा के साथ संबंधों को उजागर कर सकूँ। अपने युग के इस महान रचनाकार की एक-एक कृति पर यदि लिखा जाए तो किताबें बनती जाएंगी, ऐसा हुआ भी है फिर भी इस चुनौती को स्वीकार करते हुए मैं यह धृष्टता कर रहा हूँ । पाठकों से विनम्र निवेदन है कि मेरी इस धृष्टता को क्षमा करते हुए मेरे प्रयास में आई त्रुटियों को दूर करने हेतु अपना बहुमूल्य सुझाव अवश्य देंगे।
premchand aur cinema
मुंशी प्रेमचंद के प्रारंभिक जीवन से प्रारंभ करते हैं। इनका जन्म 31 जुलाई 1880 को उत्तर प्रदेश के शिव नगरी (बनारसी) के निकट लमही गांव में अजायब राय एवं आनंदी देवी की संतान के रूप में हुई। दुर्भाग्य से 7-8 वर्ष की अवस्था में माता एवं 14-15 वर्ष की आयु में पिता का साया सर से उठ गया।  15-16 वर्ष की अवस्था में हुआ प्रथम विवाह भी सफल नहीं हो पाया। इन सभी परिस्थितियों ने उनके प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा में अनेक अड़चनें अवश्य पैदा की फिर भी, शिक्षा प्राप्ति के प्रति उनकी लगन, कड़े परिश्रम तथा समर्पण ने सभी बाधाओं का डटकर सामना करते हुए स्नातक की पढ़ाई पूरी की।  25 वर्ष की अवस्था में तत्कालीन समाज की मान्यताओं को पीछे छोड़ते हुए ‘शिवरानी देवी’ एक विधवा परंतु विदुषी महिला के साथ पुनः परिणय सूत्र में बंध गए, जो आजीवन हर पग पर उनके साथ खड़ी रहीं। इन दोनों की तीन संताने श्रीपत राय, कमला देवी और अमृत राय हुए। 1909-1910 ई. में उनकी एक रचना ‘सोज़- ए- वतन’ प्रकाशित हुई। जिसकी आम जनमानस में इतनी ख्याति हुई कि तत्कालीन अंग्रेज हुकूमत भी थोड़े समय के लिए डगमगा गई। फलत:  ‘सोज़- ए- वतन’ की 500 प्रतियों को अग्नि की भेंट चढ़ाते हुए धनपत राय को जेल में बंद करने की हिदायत तक दे डाली गई । कलम के इस जादूगर को तब तक अपनी भावनाओं को शब्दों में पिरोने की लत-सी लग गई थी । वह कहते हैं न जहाँ चाह होती है वहाँ कोई न कोई राह अवश्य ही निकल जाती है। अंग्रेजों की इस धमकी के पश्चात “ज़माना” पत्रिका के संपादक दयानारायण निगम (मित्र) ने उनके समस्या का समाधान ‘धनपत राय’ को ‘प्रेमचंद’ में परिणत करके निकाला। इस प्रकार ‘धनपत राय’ से ‘ बनने की यात्रा तय हुई।
अब आरंभ करते हैं मुंशी प्रेमचंद तथा उनकी रचनाओं के साथ सिनेमा जगत की यात्रा की। जिसका प्रथम पग स्वयं मुंशी प्रेमचंद द्वारा ही तब उठाया गया था । जब 1933 में अपनी आर्थिक तंगी को दूर करने के विचार से मुंबई (तत्कालीन बम्बई) की ओर रुख किया और वहाँ फ़िल्म बनाने वाली एक कंपनी ‘अजंता सीने टोन’ में 8000 रुपए सालाना पर बतौर लेखक जुड़ गए। उनकी पहली फ़िल्म 1934  में “द मिल मजदूर” इसी कंपनी के बैनर तले बनी तथा इसका निर्देशन ‘मोहन भवनानी’ ने किया।  इस फ़िल्म को इस प्रकार फ़िल्माया गया की जीवंतता साफ झलकती रही।क्योंकि फिल्म में मजदूरों की समस्या, उन पर होने वाले अत्याचार, भेदभाव,उनके अधिकारों का हनन इत्यादि का चित्रण किया गया था। जब यह बात मुंबई के उद्योगपतियों को मालूम पड़ा तो उन्हें लगा कहीं मजदूर फ़िल्म देखकर विद्रोह न कर दें । इसलिए उद्योगपतियों के समूह ने मिलकर फ़िल्म को रिलीज ही नहीं होने दिया। कुछ समय बाद फ़िल्म को दिल्ली और लाहौर में रिलीज किया गया। अंततः जिसका डर था वही हुआ फ़िल्म देखकर मजदूरों ने अपने मालिकों का विद्रोह करना प्रारंभ कर दिया। फलतः फ़िल्म को प्रतिबंधित घोषित किया गया। इससे प्रेमचंद अत्यंत आहात भी हुए। चूंकि साहित्यकार में बाज़ारवाद का पुट लेश मात्र भी नहीं होता, वह तो अपनी हृदय की गहराइयों से निकले उद्गार को शब्दों में पिरोता है जिस कारण उसे अपने लेखन से एक अद्भुत भावनात्मक लगाव होता है । शायद इसी कारण अपनी दूसरी कृति लिखते समय  मेकर्स द्वारा कहानी मैं अत्यंत फेरबदल अर्थात लेखक की मनोभाव में करवाए गए अवांछित हस्तक्षेप ने मुंशी जी का मुंबई से मोहभंग कर दिया और उन्होंने अपने दो महीने का वेतन  छोड़ इलाहाबाद की ओर रुख किया। यहाँ उल्लेख करना उचित होगा कि यद्यपि मुंशी जी का  मुंबई से मोहभंग हो गया हो परंतु मुंबई फ़िल्म जगत उनकी रचनाओं से स्वयं को अलग न रख सका।
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विशेषज्ञों का मानना है कि मुंशी प्रेमचंद जी की मृत्यु के पश्चात उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘सेवासदन’ पर इसी नाम से के. सुब्रमण्यम ने 1938 में एक फ़िल्म बनाई। ‘रंगभूमि’ पर भी इसी शीर्षक से 1941 में फ़िल्म बनाई गई। 1963 में इनके अत्यंत ही मार्मिक उपन्यास ‘गोदान’ पर भी फ़िल्म बनाई गई। जिसका निर्देशन ‘त्रिलोक जेटली’ द्वारा किया गया तथा इस फ़िल्म में बतौर अभिनेता राजकुमार, महमूद, मदन पुरी एवं अभिनेत्री के रूप में कामिनी कौशल, शशिकला, सुधा कोटे एवं टुनटुन ने कार्य किया। मुंशी जी के प्रसिद्ध उपन्यास ‘गबन’ पर भी इसी नाम से क्रिशन चोपड़ा और ऋषिकेश मुखर्जी के निर्देशन में फ़िल्म बनाई गई। जिसके प्रमुख कलाकार सुनील दत्त, साधना, कन्हैयालाल, अनवर हुसैन, कमल कपूर, लीला मिश्रा इत्यादि रहे । मुंशी जी की कहानी ‘त्रिया चरित्र’ पर अब्दुल रशीद कादर के निर्देशन में ‘स्वामी’ नाम से फिल्म बनाई गई। जिसमें प्रमुख रुप से सितारा देवी, जैराज तथा जीवन ने अभिनय किया।  मशहूर फ़िल्म निर्देशक सत्यजीत रे ने भी प्रेमचंद की दो महत्वपूर्ण कहानियों…. जिसमें प्रथम, संजीव कुमार, अमजद खान, सईद जाफरी, शबाना आज़मी,फरीदा ज़लाल अभिनीत फ़िल्मpremchand aur cinema ‘शतरंज के खिलाड़ी’ (1977)  थी। इस फ़िल्म को नेशनल फ़िल्म अवार्ड फॉर बेस्ट हिंदी फीचर फ़िल्म का पुरस्कार प्राप्त हुआ था। वहीं दूसरी फिल्म सद्गति (1981) में रिलीज हुई। इस फ़िल्म का निर्माण दूरदर्शन भारत सरकार द्वारा किया गया तथा मुख्य पात्र के रूप में ओमपुरी, स्मिता पाटिल, मोहन आगाशे ने अभिनय किया । इस फ़िल्म को भी नेशनल फ़िल्म अवार्ड – स्पेशल जूरी  से सम्मानित किया गया। प्रेमचंद जी की एक प्रचलित कहानी कफ़न पर तेलुगु भाषा में 1977 में ‘ओका उड़ी काथा’ नाम से फ़िल्म बनी, जिसका निर्देशन मृणाल सेन ने किया। फ़िल्म को सर्वश्रेष्ठ तेलुगू फ़िल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया।
फिल्मी  सफर के साथ-साथ टेलीविजन पर  धारावाहिकों और टेलीफिल्म्स द्वारा भी उनकी रचना ने दर्शकों का खूब मनोरंजन किया। इस कड़ी में सबसे प्रमुख नाम गुलज़ार साहब की “तहरीर(Tehreer)….. मुंशी प्रेमचंद” दूरदर्शन पर प्रसारित की गई। जिसे अत्यंत ही जीवंतता के साथ फिल्माया गया। धारावाहिक के पात्रों ने भी ऐसी भूमिका निभाई जिसे देखकर ऐसा प्रतीत हुआ कि उसी काल स्थिति में समय चक्र को लेकर चले गए। इस क्रम में मुख्य रूप से उनकी प्रमुख कहानियां…. कफ़न, ठाकुर का कुँआं, सवा सेर गेहूँ, नमक का दारोगा, पूस की रात, निर्मला, ज्योति, ईदगाह, बूढ़ी काकी, हज्ज़-ए-अकबर हैं। इसके साथ ही उनके विश्वविख्यात उपन्यास ‘गोदान’ पर  श्रृंखलाबद्ध धारावाहिक भी गुलज़ार साहब के निर्देशन में बनी और अत्यंत ही पसंद की गई। वहीं दूसरी तरफ अजय मेहरा के निर्देशन द्वारा उनकी प्रसिद्ध कृति ‘सेवा सदन’ पर श्रृंखलाबद्ध धारावाहिक का निर्माण किया गया, जिसे दूरदर्शन पर ही प्रसारित किया गया। यहाँ यह भी उल्लेख करना चाहूँगा कि टेलीफिल्म्स भी इनकी कहानियों से स्वयं को अछूता नहीं रख पाया। इनकी प्रमुख कहानियाँ दूध का दाम, मुक्ति मार्ग, बड़े भाई साहब, कज़ाकी इत्यादि पर एम.के. रैना साहब ने टेलीफिल्म्स  बनाई , जिन्हें दूरदर्शन प्रसार भारती एचीव पर प्रसारित भी किया गया।
इस प्रकार अपनी बातों को संक्षिप्त रूप में समाहित करते हुए बताना चाहूँगा कि मुंशी प्रेमचंद की जीवन यात्रा बहुत ही सुखद नहीं रही । हर पग पर उन्हें संघर्ष का सामना करना ही पड़ा परंतु उन्होंने भी पग-पग पर दिए इम्तिहान में सफलता प्राप्त की । तत्कालीन समय में जिस लेखक को सिनेमा जगत में शायद उनके अपने उसूलों की वजह से अथवा यूं कहें बाजारवाद के प्रति उदासीनता ने वह ख्याति प्राप्त नहीं मिल पाई जिसके वह हकदार थे । परंतु मरणोपरांत उनकी कृतियों पर किए गए कार्यों ने उन्हें संपूर्ण सिनेमा और टेलीविजन  साहित्य को शायद अपना  ऋणी बना लिया और युगों-युगों तक गाने हेतु उनके यश की गाथा छोड़ गए।
आज उनकी 140वी जयंती पर शत-शत नमन।

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