फुर्सत है तो कोई भी, मिलने नहीं आता
हाल दिल का कोई, समझने नहीं आता
हर कोई गुमसुम सा बस क़ैद है घर में,
अबतो कोई यार भी, अटकने नहीं आता
वीरान सडकों पर दिखते हैं बस मवेशी,
अब तो इंसान इधर, फटकने नहीं आता
भयभीत है हर शख़्स कोरोना के डर से,
अब कोई सुबह शाम, टहलने नहीं आता
क्या गुल खिलाया है कुदरत ने भी यारो,
कोई उचक्का भी अब, ठगने नहीं आता
भुगत रहे हैं मुश्किलें सब अकेले अकेले,
कोई किसी का हाथ, पकड़ने नहीं आता
रहते हैं चुपचाप तो न होती अनर्गल बातें,
अब तो कोई किसी से, झगड़ने नहीं आता
रुक सी गयी है दुनिया यूं लगता है ‘मिश्र,’
अब तो शिकवा भी कोई, करने नहीं आता